नए रंगो से रंगे मेरे स्वप्न
संभाले रखूं या फिर निकाल लू बाहर
इन्हे हकीकत कि दिशाओ में ले चलूँ
कदम बढ़ाती हूँ
फिर पीछे आ जाती हूँ
क्यूंकि आसान नहीं इतना
इनके मुकम्मल होने कि ख्वाइश
ये वो सपने हैं
जो कीमती है मुझे
और अज़ीज़ भी है
डरती हूँ इन्हे खोने से भी
और
चाहती हूँ कि ये पूरा भी हो जाए
फिर पलट जाती हूँ अपनी ही कोशिशो से
रात भर बुनते हुए सपने
सुबह उठते ही लपेट कर
रख देती हूँ दिल के महफूज़ कोने में
या यूँ कहो
पीड़ा में विलाप नहीं करने का
साहस तनिक भी अब नहीं है मुझमे
फिर सोचने लगती हूँ ...
रहने दूँ इन्हे ऐसे ही
कल्पनाओ के आवरण में
बड़े नाज़ुक हैं कहीं टूटे तो फिर ??
रचनाकार : परी ऍम "श्लोक"
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