Monday, May 5, 2014

"हद से ज्यादा खफा हूँ मैं...."


खफा हूँ मैं
उस खुदा से जिसने मुझे औरत बना कर
धरती के इस नरक में उठा कर फेंक दिया
खफा हूँ मैं
अपनी माँ से भी आज
कि उसने मुझे जनम देते ही मारा क्यूँ नही
और क्यूंकि इतने नाज़ से पाला मुझे
ये कीड़े लगे पुरुष समाज की सोच को
हर दिन झेलने के लिए
खफा हूँ
मैं उन लोगो से
जो तमाशा देखते हैं एक औरत के अपमान का
सिर्फ दार्शनिक बनकर
और मूक रह जाते हैं विरोध के नाम पर
खफा हूँ मैं
उन खाकी वर्दी पहने जिम्मेदार अफसरों से
जिसका दायित्व रिश्वत खाना है
लेकिन अपनी जिम्मेदारी को निभाना नहीं
खफा हूँ मैं
उन औरतो से भी
जिनके झुकने की वजह से
आज मुझे भी झुकना पड़ रहा है
और अगर मैं झुकी तो इसका हर्जाना
आगे सबको भरना पड़ेगा
खफा हूँ मैं
ऐसी मानसिकता से
जिनकी आँखों में औरत के नाम पे सिर्फ शरीर दौड़ता है
उससे बस पा लेने की चाहत दौड़ती हैं
खफा हूँ मैं
अपने आप से
कि मेरी बाजुओ में उतनी ताकत
और मन में वो उबाल क्यूँ नहीं जैसा पुरुष में होता है
क्यूँ नहीं है मन कठोर मेरा
क्यूँ बह जाती हूँ मैं भावनाओ में अक्सर
खफा हूँ मैं
उन गलियो से
जहाँ से गुजरते हुए मुझे
छेड़-छाड़..फब्तियों.अश्लीश हरकतों का
सामना करना पड़ता हैं
उन जुबान से जो अभद्र भाषा कसते हैं
आय दिन मेरे वज़ूद पे
खफा हूँ मैं
मर्दो की घिनौनी मंशा से
जो अपराध को जन्म देते हैं
जो औरत की नाकार सुनते ही
तेज़ाब डाल कर उसके जीवन को झुलसा देते हैं
खफा हूँ मैं
इस सच से
जो मेरे दिमाक के परदे को फाड़ देते हैं
कि औरत सिर्फ और सिर्फ इक साधन है..भोग का साधन
इसके अलावा उसका दूसरा अस्तित्व नहीं हैं
हाँ !  हाँ ! हाँ !
खफा हूँ मैं इस देश से....
यहाँ की कानून प्रणाली से...
यहाँ की आब-ओ-हवा से...अपने अस्तित्व से .....
आज बेपनाह...बेहद..हद से ज्यादा खफा हूँ मैं..... !!!!!!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

5 comments:

  1. खफा होने से काम कैसे चलेगा ? लड़ना होगा ना ?
    अच्छी रचना ।

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  2. अपने अहसासों को शब्दावली देना खूब जानती हैं आप....अछे पेरवी की है अहसासों की.....दाद

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  3. अभिव्यक्ति बहुत ही अच्छी है। …।
    जिस तरह से writer अपने सोच की गंगा को शब्द-जाल में बांधकर रखता है , ठीक उसी तरह उसे दुनिया की सरहद में लाना चाहिए , समाज के सामने प्रस्तुत करना चाहिए, ताकि दुनिया का १% दुस्ट मानव-मात्र ९९% भद्र लोगो से डर सके।

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  4. बेहद खूबसूरत रचना

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  5. खफा हूँ मैं
    मर्दो की घिनौनी मंशा से
    जो अपराध को जन्म देते हैं
    जो औरत की नाकार सुनते ही
    तेज़ाब डाल कर उसके जीवन को झुलसा देते हैं

    अच्छी रचना ।

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