Friday, May 2, 2014

"मेरे अस्तित्व कि पीड़ा"


इस बात पर हलचल
मेरे मन के धरातल पर
अक्सर होती रहती है कि
क्यूँ भद्दी नज़र का भुकंप
मेरे जीवन कि खुशियो को
खंडर करता जा रहा है ?
क्यूँ ये हैवानियत
मेरे अस्मिता के लिए
श्राप बन गयी है ?
क्यूँ कई तह कपड़ो के बाद भी
जिस्म को पार कर जाता है
घृणित भावना का कुरूप आदमी ?
क्यूँ मेरे मान को
जिन्दा रखने कि कोशिश
डर बनके दीमक सा
मेरी आज़ादियो को
चाटता जा रहा है ?
जिसकी पीड़ा ने मेरी मुस्कान पर
उदासी का बादल छा दिया है....
क्यूँ फब्तियां गाली बनके
मेरे गुमान को खनता जा रहा है?
क्यूँ साथ-साथ चलते हुए भी
ये फासला बढ़ता जा रहा है ?
मेरे पैदा होने के गम में
माँ कि आँख में
अश्को का सैलाब देखा था मैंने
जो मेरे रूह पर
तेज़ाब कि तरह पड़ी थी
आज उन्हें ख्याल खाये जा है
कि मुझे खुटियाने के लिए
सस्ती ज़मीन कहाँ है
क्यूंकि आज बेटो के बाप
ज़मींदार बन गए हैं
सच ! मेरा हुनर मेरे लिए ही
सिकुड़ के रह जाता है
सब सहकर भी
किसी को व्यथा सुनाने पर
उनकी तालीम मिलती है
कि औरत को सहना पड़ता है
क्यूँ मेरे वज़ूद के पेड़ पर लगे
सपनो के फल को
हर रिश्ता ढीला मार के तोड़ता है ?
क्या असल में ये इक ऐसा गुनाह है
जिसकी सज़ा दिन-बा-दिन
बढ़ती ही चली जाती है ?
वो कोई इक दिन भी तो नहीं
जिस दिन मेरे अस्तित्व को
रौंदा जाया जा रहा हो
कहाँ अछूता है इससे आखिर
महिला दिवस का जश्न भी ?
क्या कहूँ इसे ?
पुरुष प्रधान सोच का आइना
या फिर ये सड़ती हुई
मानसिकता कि बदबू है
जिसमे मेरा दम हर वक़्त
चाहते हुए भी घुटता रहता है !!

 
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

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