तुम नहीं समझे पाये
आज तक मेरी कश्मकश
और शायद कभी समझ भी न पाओ
तुमपे सवार है तुम्हारे वसूलो का नशा
और मुझपर सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा
मगर तुम हो की
मेरे उज्जवल नेक प्यार का अस्तित्व
अतीत के काले कोयले से
जड़ते ही चले जा रहे हो
और मैं तुम्हारी खूबियों को सर्वपरी रख
भूलती जा रही हूँ हर ज्यातीति तुम्हारी
मुझे अंजाम की फ़िक्र तो नहीं है
फिर भी कभी-कभी
तुम्हारे रवैये से खेद होता है मुझे
मगर फिर सोचती हूँ .....
वो प्रेम ही क्या जो अँधा न हो
और तुरंत मूँद लेती हूँ अपने मन की आँखे
पता नहीं क्यों?
वक़्त पीछे के समय को धूमिल करता जाता है
लोग इस खचड़-पचड़ में आगे निकल जाते हैं
लेकिन इस तुम प्रगाढ़ विरह के कीचड़ में
अपना अस्तित्व कमल की तरह पसारे हुए हो
शायद ! सच तो यही है ..
जिससे मैं बार-बार इंकार करती हूँ
तुम करो या न करो फिर कहो या न कहो
मेरे जीवन में रहो या न रहो
मैं तब भी तुम्हे चाहती रहूंगी ऐसे ही
या फिर इससे कई गुना और ज्यादा
क्यूंकि मुझे मालूम है ..
मैं बेशक अहम की दीवार क्यों न उठा लूँ
हर बार मेरे मन की आवाज इसे ध्वस्त कर देती है
तब हाथ कुछ नहीं बचता
सिवाय इस करार के की ...
हाँ !
तुमबिन मैं वो दिया हूँ
जो जल कर उजाला भले ही देदे
लेकिन उसके आधार का अँधेरा
वो खुद जलकर भी कभी समाप्त नहीं कर पाएगी !!
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
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