Tuesday, May 20, 2014

ग्वाचा हूँ मैं कहीं ख्वाबो के दरीचों में

ग्वाचा हूँ मैं कहीं ख्वाबो के दरीचों में
अपना पता रात के धुंदलके से पूछता हूँ

अज़ब चाह है मुझको बताएंगे तो हसोगे
मैं मौत के शहर में जिंदगी को ढूंढता हूँ

सबसे जीत कर भी दिल से हार जाता हूँ
अपने इसी खामी से मैं हर रोज जूझता हूँ

आ जाता है सुस्ताने मेरे ख़्यालो के छाँव में
वो याद जिसको वक़्त के गीले कपड़े से पोछता हूँ 

तुमसे कहूँगा तो तुम भी ताना कसोगे मुझपे
छिपा के कहीं पे रख लू अपना हाल सोचता हूँ



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

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