Thursday, July 2, 2015

मेरे अंदर के अनाथ प्यार ने

मैंने सोची थी बात फूलों की , 
बहारों की, सितारों की, नज़ारों की 
चाहा था किसी के आँखों में 
बन के ख़्वाब मैं टिमटिमाती रहूँ 
कोई  दिल हो जहाँ बस मैं धड़कू 
कोई ऐसा हो जिसकी ठंडी आहों में 
मेरे खातिर हो तड़प और बेताबी 
उंगली पकड़ कर किसी का मैं भी 
जिंदगी की आख़िरी छोर तक जाऊं  

मगर इस जहां में हर इन्सां 
महज़ अपने लिए ही जीता है
यहाँ पर हर किसी के पैर तले 
किसी दूजे का अरमान कुचला है
बस सोच में ही ये उम्र कटी 
और  मेरा दिल प्यार की एक बूँद को 
बन कर सेहरा जलता रहा 

फिर 
वो दौर भी आया कि 
मेरे अंदर के अनाथ प्यार ने  
आकर सदमें में ख़ुदकुशी कर ली। 


© परी ऍम. 'श्लोक' 

7 comments:

  1. khoobsurat andaz-a-bayan ke liye mubarakbaad kabool karain ....magar khudkushi baharhal gunah hai ...ye na hone dain ....

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  2. फिर
    वो दौर भी आया कि
    मेरे अंदर के अनाथ प्यार ने
    आकर सदमें में ख़ुदकुशी कर ली।
    सभी सपने किसी के कहाँ और कब पूरे होते हैं ? आपकी रचनाओं में एक सवाल होता है , स्वतः ही उपजता है , चाहे वो समाज से हो या समाज के बनाये गए नियमो से !

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  3. उत्तम अभिव्यक्ति

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शनिवार (04-07-2015) को "सङ्गीतसाहित्यकलाविहीना : साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीना : " (चर्चा अंक- 2026) " (चर्चा अंक- 2026) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. खुदगर्ज दुनिया में ऐसा ही होता है ... हर कोई अपने को ही जीता है ...
    भावपूर्ण ...

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