मेरी पलकों ने रह - रह
के
उठाये हैं
तेरी सूरत तो इन आँखों के फाहें
हैं
मैं गुम हो गयी उस वीरान बस्ती
में
दूर तक मौजूद जहाँ पर तेरे साये हैं
मौजजा हो कि अगर तुम
चले आओ साथी
मैंने दिए उल्फ़त के राहों में
जलायें हैं
ये ज़मी ही
नहीं ये आसमां भी चौंक जाए
कि तेरी आहट पर सब कान लगायें हैं
मेरी दुनिया में कुछ
और ज़रूरी ही
नहीं
मैंने हर ख़्वाब महज़ तुमसे सजायें हैं
सोये हुए जिस्म
में अब भी जागता है दिल
तेरे आमद की ये उम्मीद लगाये हैं
सच कहूँ मान लो हमदम मेरे हमसाथी
बात यूँ ही नहीं हम
लब तलक लायें हैं
तेरी बाहों का
सहारा जो मिल जाए मुझे
ज़िन्दगी यूँ हो कि ज़न्नत की पनाहें हैं
© परी ऍम. 'श्लोक'
मैंने दिए उल्फ़त के राहों में जलायें हैं
ReplyDeleteये ज़मी ही नहीं ये आसमां भी चौंक जाए
Very Nice.............
सोये हुए जिस्म में अब भी जागता है दिल
ReplyDeleteतेरे आमद की ये उम्मीद लगाये हैं
...वाह...बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (22-08-2015) को "बौखलाने से कुछ नहीं होता है" (चर्चा अंक-2075) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteतेरी बाहों का सहारा जो मिल जाए मुझे
ReplyDeleteज़िन्दगी यूँ हो कि ज़न्नत की पनाहें हैं ..
वाह ... बहुत ही लाजवाब और दिलकश शेर हैं इस ग़ज़ल के ...
उम्दा प्रस्तुति...
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