Wednesday, August 5, 2015

मुझे ज़रा भी इल्म न था

उस लम्हें के गुज़र जाने के बाद
अतराफ़ ये सन्नाटा पसर जाने के बाद
मेरा मासूम दिल जब सितारों की शब में 
अपने गिरेबाँ की सीढ़ियाँ उतरा 
तो बुझा हुआ मुहब्बत का चेहरा देख 
उसे इस बात का बेहद अफ़सोस हुआ  
कि ज़रा सी कहा -सुनी में खफ़ा होकर  
वो तुम्हारा दिया तोहफ़ा 
जो मुझे अपनी जाँ से अज़ीज़तर था  
कितनी बेरहमी से उस रोज़ 
गुस्से की धधकती हुई 
इक पल के आतिश-दाँ में झोंक आई थी
मुझे ज़रा भी इल्म न था 
जन्मों के रिश्तें पल - भर में खाक़ नहीं होते 
एक सदी, एक उम्र , एक जिंदगी मिट जाती है 
इक निशान दिल से मिटाते-मिटाते। 
__________________ 

© परी ऍम. "श्लोक"

14 comments:

  1. बहुत सुन्दर !
    तारीफ़ के लिए शब्द कम पड. जायेंगे !!

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  2. एक बेह्तरीएन अहसास !! दाद !!

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  3. अतीत से उठ आते कुछ पल .... बहुत मार्मिक रचना हुई है ...
    एक सदी, एक उम्र , एक जिंदगी मिट जाती है
    इक निशान दिल से मिटाते-मिटाते।

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  4. बढ़िया पंक्तियाँ
    कृपया यहाँ भी पधारिये
    http://ghoomofiro.blogspot.in/

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  5. कितनी बेरहमी से उस रोज़
    गुस्से की धधकती हुई
    इक पल के आतिश-दाँ में झोंक आई थी
    मुझे ज़रा भी इल्म न था
    जन्मों के रिश्तें पल - भर में खाक़ नहीं होते
    बहुत ही सुन्दर और सार्थक पंक्तियाँ परी जी !! ऐसे विषय पर आपकी लेखनी बहुत दमदार शब्द लिखती है !!

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  6. आप की पक्तियों के धन्यवाद जरा यहाँ भी -
    तालीम किसको कौन जानता ,
    जो दिया उसने उसे ही मानता |
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    https://plus.google.com/collection/ElSQe
    https://plus.google.com/collection/si1Lg

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  9. बहुत सुंदर प्रस्तुति परि जी ...

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  10. बहुत सुंदर प्रस्तुति

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  11. क्रोध सच में विवेक को खा जाता है. और असल ज़िंदगी में undo बटन तो है नहीं, कि दबाया और करनी को फेर दिया...
    इस रचना की भावना में सच्चाई है. निश्छल अभिव्यक्ति.

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