Sunday, March 30, 2014

"इनदिनों"

इनदिनों
मेरे हाथ
जिंदगी कि समझ का
इक मोती आ लगा है
मैं इसे जितना घिसती हूँ
ये उतना चमकता है
और
उतना ही प्रभावशाली
बनता चला जाता है
मुझमे मेरा व्यक्तित्व....

इनदिनों
मेरी खताओ को कोई
चुरा ले गया है मुझसे
मैं कोशिश भी करूँ तो
अब वो बचपन कि तरह
उस नादान उम्र कि तरह
वो गलतियां लौट कर
मेरे पास नहीं आती
डर के दुबक जाती है
कहीं किसी अँधेरे कोने में...

इनदिनों
मुझे लग रहा है
मैं आज़ाद हूँ
उड़ सकती हूँ
जितना चाहूं पंख फैलाऊं
पुरे गगन पे
अधिपत्य जमा लूँ
चूम आऊँ
वो चमकता गर्म सितारा
अपने पंखो से
उसके झुलसते चहरे पर
हवा कर दूँ ..

इनदिनों
शंख बन गयी हूँ मैं
जब भी गुंजती हूँ
सबको जगा देती हूँ
मेरे ताल में आवाज़ में
श्रद्धा उतर आई है..

कमल बन गयी हूँ
कीचड़ भी मुझपे
अपना प्रभाव नहीं डाल सकता
मेरे पंखुड़ियों कि लालियाँ
कीचड़ कभी भी
मटमैली नहीं कर सकता ..

इनदिनों
बेहद बदल गयी हूँ मैं
और अब केवल बदलाव चाहती हूँ !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

खून पीती ज़मीन

रिश्तो का
कब हास हो गया ?
पता भी न चला ....
दो बिस्सा ज़मीन ने
मांग ली अपनेपन कि बलि
दे दिया गया उसे
बाप का सम्मान
माँ का दुलार
और
धुत्कार कर छोड़ दिया गया
बुजुर्ग माँ-बाप को...
मिला दिया गया
उनके सपनो को मिटटी में..
उनके अभिमान को
जला कर राख कर दिया गया.. 
जिनके परवरिश ने  
ढेमलाते हुए ढेले से
एक चट्टान बनाया हमको
उन्हें भी आभास न हुआ
कि उस बेटे का हृदय
कब पत्थर हो गया ?
जिन बच्चो को हर दिन
आपसी प्यार और एकता का
पाठ पढ़ाया गया
कब वो भाई-भाई ज़मीन के लिए
एक दूसरे कि
जान लेने पे अमादा हो गए
कैसे मीठी बोली
गाली ग्लोझ का रूप ले बैठी ?
आखिर कैसे ये रिश्ते
हिंसक हो गये ?
बेबस माँ-बाप ने तो
ये कल्पना भी नही कि थी
कि उम्र के एक ऐसे पड़ाव पे
जब एक-दूसरे कि
सबसे ज्यादा ज़रूरत होगी उन्हें
तब उस वक़्त उन्हें
ऐसे टुकड़ो में बाँट दिया जाएगा
उनदोनो का पेट भरना
इतना दूभर हो जाएगा
जिन्होंने अपना तन पेट काट कर भी 
हमारा पेट हमेशा भरा रखा
इसकदर जीते जी मौत को
उनके सामने
ऐसे पेश कर दिया  जाएगा 
सच !
सोचती मैं भी हूँ
कभी कभी
इक इंसान क्या इस कदर
भूखा और लालची भी हो सकता है
जो बिना शिकन के
विश्वास कि खाल नोच कर
खाद बना ज़मीन को उपजाऊ बना लेता है
सींचता चला जाता है
कभी छल तो कभी बल से
चंद टुकड़े ज़मीन को
अपने सबसे करीब रिश्तो के खून से !!!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

((ये रचना उन कट्टर लोगो के ऊपर थूकते हुए जो जायदाद के नाम पे करते हैं भावनाओ से खिलवाड़, अपने जन्मदाता को त्रिस्क़ृत करते हैं और साथ ही विनती भी करती हूँ बुजुर्ग को बच्चो कि तरह से परवरिश दो इस वक़्त उन्हें सबसे ज्यादा जरुरत होती है अपनों कि ))

Saturday, March 29, 2014

"बेशकीमती रिश्ते"


क्या कहीं है ?
या
कहीं मिलता हो ?
ऐसा रिश्ता
जो केवल जुबानी खजाना न हो
जिसके होने से खुद को
दुनिया का सबसे अमीर इंसान
समझा जा सके
इतना नायाब हो
जिसमे दमखम हो
जुड़े रहने कि हर परिस्थिति में
जो गुरूर में नहाया न हो
स्वार्थ कि माला न जपता हो
जो जिद्द में नग्गया न हो
वक़्त के पानी में
साबुन कि तरह गल के
खत्म न हो सके
जिसके जंगा जाने के
भय के कारण
हमें झूठ का पॉलिश न करना पड़े
जिसके विश्वास कि डोर
 इतनी पक्की हो कि
 ब्लेड कि धार या तलवार
दोनों ही सूरतो में
इसे काटा न जा सके
जिसके वात्सल्य का रस
कोई भी जोंक खून कि तरह
पी न सके
जहाँ रिश्तो के समझ का शज़र
कोई शक का दीमक
खोखला न कर सके
जो गुण कि तरह
हर दिन के अभ्यास से बढ़े
जिसमे स्थिरता हो
बस ऐसा रिश्ता
अगर
कहीं मिले तो बताना
मैं देखना चाहती हूँ
क्या आज भी जिन्दा है
इस दौर के मलबे के नीचे
ऐसे सुंदर और बेशकीमती रिश्ते !!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

जाने क्यूँ ?

जाने क्यूँ ?
इस राह से
इसकदर लगाव है मुझे
जिसकी मंजिल
न कभी थी
और
न कभी होंगी
हुह.........
मंज़िले कैसी होती हैं
ये मुआमला अफवाह हो गया है
इस सफ़र को तय करते ही
भूल चुकी हूँ मैं
बेवजह भटकाव कि बातो को
तवज्जु देना तक
यहाँ के हर दिलकश मंज़र में
रम सी गयी हूँ
और शायद !
ये ज़रूरी भी है
इस सन्दर्भ के लिए
और इस सोच को
सदैव जीवित रखने के लिए
जो भी करो शिद्दत से करो
फिर चाहे वो जिंदगी जीने का सफ़र हो 
या प्रेम का जन्मा हुआ
कोई अनकहा सा भाव !! 


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"मैं गाँव हूँ"

मैं गाँव हूँ
हरियाली से लदा-बदा
जिसकी मिटटी से सोंधी सी वो खुशबु
कभी नहीं जाती कहीं
मेरे केश वो पेड़ हैं
जिसकी शाखो पे कितनी चिरैयाँ आकर
अपना घौसला बनाती हैं
मेरी आँखे हैं
ताल, सरोवर, नदियां
जो फसलो को ताकती है तो वो जीते हैं
ये दिन कि लू के थपेड़े
मेरे सहनशक्ति के उदाहरण
और ये काली राते
मेरे सुस्ताने का समय   
मेरी बाजुए हैं पर्वत और ये पहाड़,
जिनके शिखर
मेरी महानता के गाथाकार हैं
लेकिन अब
मुझे तिल-तिल मारा जा रहा है
मेरे अस्तित्व पे कुल्हाड़ी दर कुल्हाड़ी
कई वार लगातार किये जा रहे हैं
मैं बदलता जा रहा हूँ नए रूप में
मेरे सीने पर बड़ी बड़ी ईंटो कि
मीनार बना डाली गयी हैं
जो मेरा दम घोटता जा रहा है
ये राते रोशनी से पूरी तरह लैस हैं
मैं न ही दिन कि तपिश को भाप पाता हूँ
न रात को चैन से सो पाता हूँ
मैं जागता हूँ
और देखता हूँ सब अपनी आँखों से
जिसे कारखानो के गर्द ने 
मोतियाबिन का ग्रहण लगा दिया है 
मगर बोलता कुछ भी नहीं
हाँ ! साहस ज़रूर जुटा रहा हूँ
खुद के खून का कतरा-कतरा निचुड़ते हुए
को दार्शनिक बनके देख पाने कि !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

"तुम हो हवा का झौंका कोई"

तुम मेरे जीवन में
हवा का वो झोंका हो
जो मुझे छूती हुई बेहद करीब से
गुजरती तो है अक्सर
मगर ठहरती कभी नही
न ही तुम्हे रोक पाना
मेरे वश कि बात है
किसी भी पल अपनी मनमानी करने
पहुँच जाती है जहाँ-तहाँ
इतनी सरगर्मियां बांधे हुए
गर्म सा रुख लिए ये हवा 
जब ज्यादा जस्बाती होती है
तो एहसासो के सारे बर्फ
पिघला कर भिगो देती है
मन का हर कठोर कोना
मुझे बहा ले चलती है
अपने खुमार के उफान में
कभी सागर से गागर भरके
पहुंचा देती है आकाश तक
और फिर वहाँ से बरस पड़ती है मुझपर
किसी भी मौसम में
कुछ पल हरा भरा करके
फिर सारे रंग उड़ा ले जाती है
अपने साथ ही
कभी झुका देती है
प्रणय से सनी हुई ज़मीन तक
कभी उठा देती है
अनाहक में अहम् के शिखर तक
सोचती हूँ क्यूँ न मैं
बंद करलूं सारे खिड़की दरवाजे
तुम्हे खड़ा रहने दूँ बाहर
ताकि तुम निराश होकर लौट जाओ
फिर कभी न वापिस आओ
ऐसे बेताब करने के लिए
और झूठे वहम में
गवाच देने के लिए मुझे
तब शायद !
कुछ हद तक समझ पाओ तुम
आलिंगन करके अलगाव कि
पीड़ा उगलती वो व्यथा
जिससे मैं तुमसे मिलने के बाद
अछूती नही रह पाई कभी !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

Thursday, March 27, 2014

" कभी-कभी"

कभी टूटे सपनो को
जोड़ने कि नाकाम कोशिश
कभी परछाइयो को
पकड़ने कि हैरान कोशिश
कभी बरसात कि बूंदो को
समेटने कि ताक में
कभी समंदर कि लहरो में
उतरने कि फिराक में
कभी मांझी बन के सोचती हूँ
कभी मुसाफिर बन के
साहिल कि ओर देखती हूँ
कभी प्रकृति अपने ओर खींचती हैं
कभी मसले मुझे
उनकी भाषा व्यक्त करने को
प्रेरित करते हैं
कभी मद्धम फ़ज़ा बन जाती हूँ
कभी धूल भरी आंधी
कभी उदासियाँ इतनी होती हैं कि
खुशियां लुप लुपा के खो जाती हैं
कभी मुस्कराहट के नीचे
हर वेदना दब के मर जाती हैं 
कभी चकोर कि तरह
आस्मां निहारती हूँ
कभी एक गरीब कि तरह
पेट के आगे सब कुछ हारती हूँ
कभी काँटों को
गुलाब बनके ढांप लेती हूँ
कभी कीचड़ में जीवन
कि हर स्वाश लेती हूँ
कभी नीम का पात हो जाती हूँ
तो कभी शहद या राब हो जाती हूँ
कभी स्त्री रूप मेरे लिए
इक व्यथा के अलावा कुछ नही होता
कभी इसपे गुमान का अवसर पा जाती हूँ
कभी बच्चा बनके अटखेलियां करती हूँ
कभी गम्भीरता का दर्पण बन जाती हूँ .

कभी-कभी तो 
ये ख्याल आता है कि
ये लेखन भी मुझे कितनी
जिंदगियो से जोड़ती हैं
जिस ओर कलम मुड़ती है
मैं उस एहसास के
तलातुम में डूब जाती हूँ
जीने लगती हूँ
कितनी भावनाओ कि
आकाश गंगा में
बिना किसी न नुकुर के

सच कहूं तो
कविता का अंश
सम्मिलित होते ही
कवि का जीवन बहुरंगी हो जाता है !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

Wednesday, March 26, 2014

"खालीपन"


इक खालीपन है
इस तमाम हुजूम
और
कुशादा के बावजूद
मैं हूँ मेरी परछाई है
जो साथ देती तो है
मगर उजालो के लालच में
अगर कहीं नहीं हो तो तुम
बस सन्नाटा है और तन्हाई है
बिखरे हुए सपने है
हर कदम पे चुभते है जो 
लेकिन पैरो में नहीं सीधे सीने में
उम्मीद है बुझी हुई
इस दिए में केवल अब
शबनम के कतरे बचे हैं
जो जलते नहीं सिर्फ जलाते हैं
कितने ज़रूरी हो तुम
जिंदगी के लिए.....
तुम्हे खोकर जाना मैंने
अब अगर चाँद-तारे भी
मेरे कदमो में आ गिरे
तो भी सब बेकार है
कोई भी खिलौना
कोई भी जीत
कोई भी आकर्षण 
अब मेरे मन के बच्चे को
मना नहीं सकता
वो हसी हसने को
जो तुम्हे देखने मात्र से ही
गुदगुदा देता था मुझे
कोई भी महफ़िल
मेरे अंदर के सूनेपन को
मिटा नहीं सकती
और
कोई भी बारिश
सूखे हुए संवेदना के रेगिस्तान को
अब कभी भी नम नहीं कर सकती
क्यूकि सब कुछ बीते लम्हो के
फैसलो के बादोलत हारा जा चुका है !!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

Tuesday, March 25, 2014

"आज भी निरंतर"

वक़्त बह रहा है
सब कुछ बदल गया है
यहाँ से वहाँ तक
हर साया करवट ले चुका है
बदलाव हर ज़र्रे के
रोम-रोम में समा गया है
मगर मैं अब शिला हो गयी हूँ
जहाँ कल थी वहीँ आज भी
न इससे पीछे जाने कि
हिम्मत बाँध पायी हूँ मैं
न किसी ने आगे
ले चलने का ढाढस बांधा
काट के रास्ता बनाते रहे
मेरे सपनो के सुनहरे पंखो को
मेरे मन के कोमल माटी में 
उगे हैं उदासी के कांटे
जो मुझे चुभते हैं
मगर अब अपने दर्द को
तवज्जु देना भी नहीं चाहती
बेशक उस पड़ाव पे सिमट कर
अब एक इंतज़ार है
मेरी साँसों के
साथ-साथ चलती हुई
कि कभी तुम आओगे
मुझे छूकर मेरी भीतर
तमन्नाओ का बीज बोने को
मुझमे जिंदगी कि रोशनी को
सही मायने में उजागर करने को
ये हसरत उस शिला को
बेअहसास नहीं होने देती
और चलती रहती है
हर कठोरता के बावज़ूद
उसके भीतर एक मिनट में बहत्तर
बार धड़कती हुई
तुम्हारे नाम पे उसकी धड़कन
आज भी निरंतर !!  


रचनाकार : परी ऍम श्लोक  

"सुख कि ज़ायज़ हकदार"

इसी जुगाड़ में हूँ कि
कहीं से और कैसे भी लाकर
बहारे तुम्हारे जीवन को
तोहफे में दे दूँ
ताकि तुम सहेज लो
उसे प्यार से
और कोई भी पतझड़
तुम्हारे जीवन से
इसे चाहकर भी छीन न सके
तुम्हारे आस-पास
कई सूरज जला के रख दूं ताकि 
तकलीफो के काले साये तुम्हे
रोशनदानी के सलाखो के
बीच से झांक न सके..
तुम्हारे लबो पे
मुस्कराहट लाकर झाड़ दूँ
ताकि हसी तुममे जब भी
खुदको देखे तो बहुत नाज़ करे
और फिर कभी तुम्हारा साथ
छोड़ने कि भूल न करे
तुम्हारे चहरे पर
सिन्दूर  कि लालियाँ बिखेर दूँ 
और आँखों में चांदनी कि चमक 
तुम्हारे दामन में
तमाम गर्दूँ के सितारे
बेहिसाब भर दूँ
दुःख के सारे गर्द एक फूक से उड़ा दूँ
बुझे और बंज़र मन में
फूलो कि बगिया बो दूँ
हर मात रगड़ के धो डालूं
शय से रच दूँ
तुम्हारा हर रास्ता हर सफ़र
और तुम्हे सौप दूँ
सुखो कि विरासत
जिसकी तुम ज़ायज़ हकदार हो !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक
( Dedicated to maah sister )

Saturday, March 22, 2014

खामोशियाँ कुछ तो कहती हैं???


बूढ़ी काकी के घर से
आवाज़ नहीं आ रही सुमन कि ..
कहाँ गयी होगी??
खेलने भी नहीं आयी
काकी कि पनीली पुतलियाँ
कुछ तो कहती है?
वो चुप है पूछने पर कुछ नहीं बोलती..
पर खामोशियाँ कुछ तो कहती हैं???
भीतर से सिसक सुनायी दी,
छोटू झट से भागा अंदर
सिसक बंद हो गयी
किसकी आवाज़ होगी ये??
इतनी मद्धम सी...
मैं भी जिद्दी बयाले से देखने लगी
सुमन अंदर थी चिथड़े कपड़ो में
चोट के निशान चहरे पर, शरीर पर....
मैं सेध लगा अंदर गयी.
क्या हुआ??
वो कुछ न बोली
ना आह! ना ऊह!,न हाय!
लिपटी सुमन और टपके आंसू सिर्फ..
पर .....
खामोशियाँ कुछ तो कहती हैं??
खामोशियाँ भी चीख पड़ी...
मुझे छूती उसकी धड़कनो ने
समझ तक सुराख़ कर दिया
चोटो ने मन में मवाद..
अब मुश्किल नहीं था
अंदाज़ा लगा पाना कि

वो शिकार हुई थी अस्मिता हनन कि!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 24/12/2013

Friday, March 21, 2014

!!तमाम शब् मैंने!!


तमाम शब् मैंने तन्हाईयो से बात कि
तेरी कमी को हर ज़र्रे में एहसास कि
मेरी धड़कनो ने जब भी तेरा नाम लिया
हर दफा तमन्ना हुई मुझको परवाज़ कि

तुमसे मिलने से पहले खुद से बेगानी थी
तुम्ही से सीखा है कद्र मैंने जस्बात कि
मैंने दौड़ कर यादो को फ़ौरन चुप कराया
सन्नाटो को सुना रहा था दास्तां बेताब सी

बेखबर रहे क्यूँ तुम इस बात से अबतक
क्यूँ तुम्हारी जस्तुज़ू ने नही मेरी तलाश कि

जानते हो क्या ? तुम बारहमासी बरसात हो
और मैं बिन आशियाने का परिंदा हूँ आकाश कि

ग़ज़लकार : परी ऍम श्लोक

!! आईने में उतर रही है !!

कैसी तस्वीर ये आईने में उतर रही है
कलयुग के नाम पे इंसानियत जल रही है

जिन्दा लोगो में मरे हुए देखे ईमान जबसे
ये कमी मुझे तबसे हर रोज़ खल रही है
 
बेहद मिठास रखी हुई है लबो पे आदमी ने
भीतर मगर नफरत कि आरज़ू उबल रही है

किसपे करे यकीन सोचने में इक उम्र बीती
मोहोबत तक हर शख्स को आयदिन छल रही है

हर नाता सिका हुआ है खुदगर्जी कि धूप से
बेटिया भी आज औरत कि कोख में मर रही है

पैसा हुआ है जबसे दीन-धर्मं इन इंसानो का
सिक्के के इशारो पे तबसे आबरू उतर रही है

ये कौन सा व्यापार है मुल्क से सरहद पार है
बच्चे से औरत तक कि तस्करी बेखौफ चल रही है

हर आलम में अब घुटन ही घुटन रमा हुआ है
'श्लोक' कि कलम भी दर्द से टूट कर बिखर रही है


Written By : परी ऍम "श्लोक"

Thursday, March 20, 2014

!! मैं लौ कि तरह हर जहन में जलना चाहती हूँ !!


मैं ज़माने कि सोच से आगे निकलना चाहती हूँ
तपी धरती और तेज़ धूप के बीच चलना चाहती हूँ

मासूमियत ने वज़ूद को बड़ी चोट दी है इसलिए
मैं अपने किरदार कि ये अदा बदलना चाहती हूँ

जिंदगानी ने हर मोड़ पर रुस्वाई कि है हमसे
मगर मोहोब्बत से इसे आग़ोश में भरना चाहती हूँ

किसी ने न सोचा हो सुना हो न चाहा हो कभी
कुछ जुदा सा कारनामा मैं करना चाहती हूँ

वैसे तो फैसलो ने खता बनके कांटे चुभोये हैं
मैं फिर भी हर सबक से सवरना चाहती हूँ

न चांदनी न रोशनी न ही आग न कोहीनूर
मैं इनसे भी निखरे अंदाज़ में उतरना चाहती हूँ

हदे, सरहदे, मझधार होती होंगी ज़माने के लिए
मैं फ़िज़ा कि तरह हर ज़ब्त से गुजरना चाहती हूँ

सितारो को अपने आँचल में अंधेरो को काजल में
बरसात कि हर बूँद को आजुरियो में भरना चाहती हूँ

मुझे बयान करेगी तारिख मेरे जाने के बाद भी
मैं लौ कि तरह हर जहन में जलना चाहती हूँ 

ग़ज़लकार : परी ऍम श्लोक

Wednesday, March 19, 2014

!!तेरा जिक्र आता है!!

तेरा जिक्र आता है हर जुबान के साथ
तू ख्वाब बन जाता है हर शाम के साथ

तेरे बारे में सोचती हूँ जब इत्मीनान के साथ
हुस्न और निखर जाता है तेरे नाम के साथ

जाने किस दुनिया में छिपा बैठा है वो चेहरा
जिसे खुदा ने बनाया है बड़े ईमान के साथ

इस भीड़-ए-बस्ती में कोई तो मेरा अपना है
तुझे पाकर मैं कह दूंगी बड़े गुमान के साथ

काश! तेरे पहलु में जिंदगी इतनी रोशन हो
चांदनी खिली होती है जैसे चाँद के साथ

तेरे बिन न गुजारु मैं शब्-ओ-सुबह कोई
दिन चढ़े भी तो प्यार के अज़ान के साथ

तुम मुझसे जुड़ जाना बिना शर्त कुछ ऐसे
जैसे आयत रमा हुआ हो पाक़ कुरान के साथ


ग़ज़लकार : परी ऍम श्लोक

!! इसकदर हैवान हुआ फिरता है आज आदमी !!

क्यूँ इसकदर ये हालातो कि आंधी चलती है
पुरुष कि जननी है औरत क्यूँ फिर जलती है

गन्दी मानसिकता के जोंक ने खून पी लिया
सहम के औरत अब भीड़ में भी चलती है

इसकदर हैवान हुआ फिरता है आज आदमी
कि औरत अब किसी भी साये से डरती है

हादसे कि वजह कुछ भी कैसे भी हो मगर
उंगली उठती है यूँ कि सब मेरी ही गलती है

लव्जों में इतनी बदजुबानी ने पनाह पायी है
कि हर कूचे में मेरे अस्तित्व पे फब्तियां उछलती हैं

लिबास को वजह बताने वालो ज़रा बताओ मुझे
वो शिकार क्यूँ होती है जो दुपट्टा ओढ़ के चलती है

कहो बदले अगर बदलना है तो वहशी नियत अपनी
जो हर एक लम्हा औरत के मान को छलती है

गर रोंदना औरत को तुम्हारा परुषार्थ साबित करता है
तो सुनो ऐसे पुरुषार्थ पर 'श्लोक' थूकती चलती है

Written By : परी ऍम श्लोक

"अपराध"


अपराध घटता है
हमारे आस-पास ही
औऱ बढ़ता ही जाता है
जानलेवा गैस कि तरह..
कभी हत्या, उत्पीड़न, रेप,
दंगा, चोरी, ठगी औऱ
ऐसे कई घृणित अपराध
जिनसे नज़र चुरा
निकल पड़ते हैं हम
हमें क्या लेना-देना सोच कर
समाचार देख कर बताते हैं
पूरा माज़रा घर में कि ये घटना
मेरे सामने ही हुई थी..
पर कौन टांग अड़ाए
दूसरो कि फटी में..
औऱ फिर कोशिश ही नहीं करते
जागरूक होने कि
या किसी को करने कि
हिम्मत नहीं करते
गलत का विरोध करने कि
मानवता को डर के
साये में सुला देते हैं
निकल पड़ते हैं
खुद को आम इंसान समझ के
मूल्यो को ताक पर रख के
क्यूँ भूल जाते हैं ??
अपराध ओज़ोन परत
चीर करके कभी भी
ग्रसित कर सकती हैं
हमें उसी तकलीफ से
जिसकी खबर कुछ दिन पहले हमने
अखबार में सुबह कि चाय के वक़्त पढ़ी थी!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"औरत त्याग कि देवी"


मेरे औरत होने का दर्द
न मैं आँखों से दिखाती हूँ
न जुबान से बताती हूँ
मगर अक्सर सोचती हूँ
औरत होने का हश्र
मेरी व्यथा जो तकलीफ का
इक अध्याय तैयार कर देती है
मेरे अंदर ही दबे दबे
अंत के दरवाज़े पर
जा खड़ी होती है
सपने देखे हैं मैंने भी
लेकिन उससे ज्यादा देखा सपनो को 
टूटते हुए, बिखरते हुए
जलते हुए, सिकुड़ते हुए
मगर उर्फ़ करने के वक़्त
ख्याल आता रहा अपनों का
कभी बेटी बनके परिवार का
सम्मान बनाये रखने का भार
कभी बहन बन के जिम्मेदारियां उठाना
कभी पत्नी बनके सब निछावर कर देना
कभी माँ बनके सुख चैन अर्पण
इनसब के बीच वक़्त नही मिलता
खुद कि तकलीफ को
सहलाने और पुचकारने का
कैसा ह्रदय है मुझमे ?
और कितना सहन कर सकती हूँ ?
कभी-कभी आश्चर्य में डाल देते है सवाल
जवाब येही है कि औरत हूँ
और सहते रहना मेरे वज़ूद कि सच्चाई है
मुस्कराहट मेरी सादगी का चोला
जिसे पहनने के कारण
मेरे अपनों को आह के आंच से बचाना है
औरत जनम के साथ समर्पण
मेरे करम में लिख दिया गया है
सही है ये शायद कि
औरत के रूप में मैं त्याग कि देवी हूँ


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

Tuesday, March 18, 2014

!! मैं हारी तो बहुत मगर जीतती रही !!

मैं हारी तो बहुत मगर जीतती रही
हर ठोकर से कुछ न कुछ सीखती रही

मैंने अपनी सोच को जंगाने न दिया
तजुर्बो से जहन के आँगन को लीपती रही

गुजरे पल मुझसे कभी जुदा न हो
इस कोशिश में रात भर लकीर खींचती रही

कोई पढ़ न ले आँखों कि लालिया मेरे
पतरंगे के बहाने से आँख मींचती रही

बेचैनयो ने मेरी धड़कन बढ़ा रखी थी
हसरत मेरे कानो में हरपल चीखती रही

कही शज़र कांटो का पैर न पसार ले
मैं फूलो के राब से अपनी रूह सींचती रही


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! बचपन खो गया है उम्र के गलियारो में !!


ज़रा सी बात पर फूट कर देर तलक रोती हूँ
बचपन खो गया है उम्र के गलियारो में

चोट लगती है तो दमन से उसे ढक लेती हूँ
डर लगता है ज़माने के बेतुके सवालो से
कभी नापा करती थी चाहतो को टूटी चूड़ी से
आज उसे तलाशती हूँ लव्ज़ के हवालो में

जस्बात हर घड़ी मुझे कमज़ोर करते रहते हैं
उलझ गयी हूँ तबियत के रेशमी जालो में

वो दिन था कि सोते थे रातो पे हुकूमत करके
अब तो नींद भी टहलते हैं किसी के ख्यालो में


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!!दिल कि अमीरी लेकर!!

अज़ब इस शर्त पे हारी और बेहाल रही 
दिल कि अमीरी लेकर भी मैं कंगाल रही

उलझन कि जुल्फे सुलझाई मैंने तनहा ही
जिंदगी मेरे लिए मगर इक सवाल रही

तेरे बारे में जब सोचा तो ये ख्याल आया
इक साये के पीछे ता-उम्र मैं परेशान रही

शोहरत के हाथ ज़मीर बेचने वाले और होंगे
मेरे लिए तो मेरी गरीबी ही मेरा जहान रही

तेरा नाम मिटाते-मिटाते वक़्त कि सांस घिस गयी
यादो के जिस्म में मर कर भी इतनी जान रही

मुझे अपनी नज़र के ओंदे कि परवाह रही अक्सर
दुनिया दूसरो कि दीद में उठने कि गुलाम रही

मायूसियों ने कई बार मेरा रास्ता काटा
मगर मैं फिर भी खरे सिक्के सी इंसान रही


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

Saturday, March 15, 2014

"जब सपने बदल गए"

मुझमे जीतने का जस्बा था
हालातो को मात देने का शौक
जीत मेरा दामन थामे हुए थी
न उसने छोड़ा
न मैंने मात खाई
हर बार मेरे हौसले खड़े होकर
मुझे सलाम करते करते थक जाते
मेरे सपने मैंने टूटने नहीं दिए
शायद !!!!
या फिर यूँ कहो कि.. 
वो सपने ही नहीं सजाये
जो टूटे तो मैं टूट जाऊं
शिद्दत से कुछ हुआ ही नहीं
बस इक आदत थी जो चले जा रही थी
औऱ मैं उसको रास्ता देती रही
मगर जाने कब ??
मेरे सपने बदल गए
सोच के चहरे बदल गए
जिंदगी के मायने बदल गए 
रंग ही रंग बिखर गए दुनिया में...
मैंने पहली बार अज़ीब सी शिकस्त खायी
जिसमे न ही हार जाने का
कोई मलाल था मुझे
न ही हारा हुआ सा कुछ महसूस  हुआ
मुझे जाने क्यूँ इतना आराम था
इत्तेफाक कि शिकार थी मैं
लेकिन कुछ ऐसा महसूस हुआ 
जैसे इस हार ने मुझे जिता दिया
अगर मैं ये कहूँ तो झूठ न होगा
वो जो मेरी जीत भी
आज तक मुझे
कभी महसूस नहीं करा पायी
इस बार मैंने कुछ ही क्षण में
हार कर भी वो हासिल कर लिया था
लेकिन इस बार मैंने
सबसे खूबसूरत हिस्सा हार दिया था
अपने अस्तित्व का...
जानते हो क्या ?
वो था मेरा बेहद मासूम दिल
जिसे वो लेकर चला गया
बिना मेरी मर्जी को जाने-बूझे
औऱ मैं उसे चाहकर भी रोक नहीं पायी !!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"ख्यालो से कविता"

मैं तो सिर्फ
अपनी कलम से
सादे पन्नो पर
अपनी सोच कि
बेताब सी लकीर खींचती हूँ
कुछ कल्पनाओ के
आकर्षक मोती
हर्फ़ के रूप में पिरोती हूँ
 किरदार में जीने कि
उसके हालात को भापने कि
भावना को महसूस करने कि
इक छोटी सी कोशिश करती हूँ
सपनो को सहेज कर
विस्तार में रख लेती हूँ
कुछ हकीकत के परिंदे
लोगो के जहन में छोड़ देने कि
मुमकिन सी आरज़ू करती हूँ
जीती हूँ कुछ नेक पल
बेहद खामोश लम्हो में
जिसमे सारी अपेक्षाए
मेरी ओर मुड़ जाती हैं
औऱ मुझसे इमला लिखवा लेती हैं..

उसके बाद मैं जब उसे पढ़ती हूँ
तो मेरे सामने शब्दो कि
इक सुन्दर माला प्रस्तुत होती है..


कभी कभी तो
मुझे भी नहीं मालूम चलता कि
कब मेरे ख्यालो से कविता बन जाती है !!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Friday, March 14, 2014

स्वप्न का निस्र्पण

वास्तविकता मेरे बेहद करीब थी
बेहद प्यारी खूबसूरत निखरी सी
दिलकश सा इत्मीनान था जिसमे
मगर उस वास्तविकता के पीछे भी थी
इक लम्बी पंक्ति
जो मुझसे वाबस्ता नहीं थी
लेकिन मुझे वो जानना था
जिससे बेखबर थी मैं
कुछ ज्यादा गूढ़ा रहस्यमयी
जो इक कारण बन जाए
मुझे छूती हुई सिलसिले को
अज़नबी बनाने का
फिर मैंने समेटना आरम्भ किया
जो मेरा था उसे
और
वहाँ जा पहुंची जो खत्म था
जिसका कोई वज़ूद ही नहीं था
वो सच हो सकता होगा
मगर
अब बेमायने था बेकार था
उसके ऊपर था वो सत्य जो मुझे दिखा
और
मेरा ही था हमेशा
पर शायद समझ का ज्यादा उठाव
मुझे गिराने वाला है क्या पता ?
मैं कोहरा छटने कि प्रतीक्षा में थी
कि रात हो गयी सब अँधेरा हो गया
कैसी जिद्द थी ये आखिर
जिसने सुन्दर चित्र का
चेहरा बिगाड़ के रख दिया था
शुक्र है ये स्वप्न था
इसे सच होने दिया जाता
तो कितनी ही सत्य को रोंदने का
मलाल हमेशा रह जाता मुझे !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

 

"तू इक वहम है"


अज़ब इत्तेफाक है.
कुछ खोया है
मगर वो जाने क्या है ?
जो मिलता नहीं ...
इक तरफ ये दिल है
 कि मेरी ज़रा भी सुनता नहीं..

कैसे इस दुश्वारियों के
आलम से किनारा करती
हकीकत तू कभी था ही नहीं
फिर कैसे न मैं
इन ख्वाबो का सहारा करती
जीत कर मिलती अगर ख़ुशी
तो शायद थोड़ी कोशिश दोबारा करती
बार-बार फिर अपना सकून
तुझपे न हारा करती...

कहानी कि उधेड़ बुन में ही लव्ज़ खर्च कर दिए मैंने
फिर तेरा नाम न लिखती तो कैसे गुजारा करती??

कभी आकर देख तो
वीरानियो का सितम मुझपे
और फिर तू ही बता कि...
कैसे तुझे न इस हाल में मैं पुकारा करती ??

नूर कि तरह रही है आज तक मेरी हस्ती
किस-किस नज़र कि मार से खुद को संभाला करती..

तुम्ही ने देर करदी है आने में
और फिर है हज़ार शिकवा भी
अब तुम ही बताओ न मुझे
मैं कैसे बीते लम्हो को लौट आने का इशारा करती....

इस उलझन से मुझको करार मिलता नहीं
कम्बख्त !
कि तू इक वहम है
जो मुझमे है तो मगर तलाश कर भी मिलता नहीं!!



ग़ज़लकार : परी ऍम श्लोक

Wednesday, March 12, 2014

"घनघोर घटा"

नाच उठे हैं मोर
अपने पंखो को फैलाये
बादलो कि ऐसी रंगत देख के
काली काली
घनघोर घटाओ के
पनाहो में आज
उजली सी पारदर्शी बूंदो का
मेला लगा हुआ है
इसमें शामिल हूँ मैं भी
तुम भी, सखी भी
औऱ
ये प्रकृति के हरे भरे पौधे भी...
नहा रहे हैं पर्वत, ये झरने,
बुझा रही है प्यास ज़मीन
जो शायद पिछले बरखा से
ऐसे ही प्यासी है
आज तृप्त हो जायेगी
भीग रही हूँ मैं
बिन छाता, बिन छत के
सबके चेहरे पे मुस्कान है
फूलो में ताज़गी आ गयी है
हवा भी पाँव में
घुंघरू बाँध के आयी है
बिजलियो कि चमक
कभी-कभी मुझे चौका देती है
मगर
बारिश में भीगने कि उत्सुकता
मुझे ऐसे ही
बरसते बादलो के साये के नीचे
खड़ा किये रखती है
मैं हटी औऱ ढीठ
जबतक ये मेला खत्म नहीं होगा
मैं ऐसे ही आनंद उठाती रहूंगी
अब तुम ही बाताओ बरखा 
इतने दिन में तो तुम
लहराती हुई आयी हो
औऱ बलखाती हुई चली भी जाओगी
ऐसे में तुमसे मिलने से
मुझे कोई रोक सकता है क्या ??

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"तलाश मेरी कहानी कि"

जब कभी-कभी तन्हाई में
मैं अपने आप में गुम होती हूँ
दुनिया के बारे में न सोचकर
अपने बारे में सोचती हूँ
मुझसे बाते करती हूँ
तब उड़ान के उजले पंख
मेरी तमन्नाओ में लग जाते हैं
फिर अक्सर
ये रह-रह के ख्याल आता है

कि काश !
कोई ऐसा भी हो इस जहान में
जो अपने तमाम काम से किनारा करके
बड़ी फुरसतों के साथ कुछ पल
सिर्फ मेरी गज़ले पढ़े....
उन ग़ज़लो में रमे हुए
उर्दू लव्जों के मायने तलाशे
मेरी कविताओ के संदर्भो में
उलझता फसता , कुछ समझता
कुछ पूछता, कहीं से ढूँढता
अनसुने शब्दो के अर्थ को...

ऐ काश !
हो जाता कोई 
ऐसे ही मेरी तमाम दुनिया
जिसकी तारीफ मेरे लिए बुलंदियां होती
जिसकी नज़र मेरे लिए नज़ारे
जिसका दिल मेरा आशियां होता
जिसकी बाहें मेरा सहारा
जिसकी बाते मेरे लिए
वास्तविकता कि अमिट लकीर
जिसका प्रेम मेरा दायरा होता
जिसकी धड़कन कि ताल पे
मेरी जिंदगी रक्स करती
बस वो रहता
मेरे जुबां पे ज़ेहन में लव्ज़ में
कहीं कुछ ठहराव मिलता
मेरे बहते हुए जज़्बातों को
कोई यूँ बाँध बनके
हर तरफ से घेर लेता मुझे

काश !होता वो
उस अलग सी दुनिया का सुल्तान
जिससे इज़ाज़त लेकर
हवा भी मुझसे मुखातिब होती
जिसके लिए मैं अनमोल होती
मेरी खासियत खामियों के आगे होती
अगर ऐसा मुमकिन होता
तो हाँ फिर ये तय है
मैं अपनी कलम के हर गुदगुदाते हर्फ़
उसके वज़ूद को समर्पित कर देती बिना शर्त..

सच कहूं तो
मेरी अधूरी प्रेम कहानी
आज भी अपनी पलके बिछाये
उस किरदार कि प्रतीक्षा में है
जो उस सच्ची प्रणय वृत्तांत का महानायक है
अगर ऐसा होता तो
शायद फिर मैं
इक ऐसी कहानी कि सूत्रधार बन पाती
जिसके किरदार मरे हुए
प्रेम कहानी को असल में जिन्दा कर देते है !!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Tuesday, March 11, 2014

"मैं नये अस्तित्व कि रचयिता हूँ"

मैं मान के लिए
जान दे सकती हूँ
और तुम
गुरूर और हट के लिए
किसी भी स्त्री के मान को
बेपरवाह रोंद सकते हो
मेरे लिए मेरा सम्मान सर्वपरि है
तुम्हारे लिए तुम्हारा अहंकार
तुम्हारे लिए मान का अर्थ
समाज का दृष्टिकोण है
मेरे लिए मेरी आत्मा कि गवाही
तुम्हारा अस्तित्व हमसे है
तुम ये जानते हो
लेकिन कभी गहनता से
विचार नहीं किया
हमें सब मालूम है
लेकिन हमने कभी
इसपर घमंड नहीं किया
मैं सहन करती हूँ
ये मेरी सहनशक्ति का प्रमाण है
तुम सितम करते ही
ये तुम्हारी कायरता का
मुझमे दैव्य रूप है
मैं नये अस्तित्व कि रचयिता हूँ
तुम केवल पुरुषार्थ के दूत
मालूम है क्या तुम्हे?
बहुत फर्क है
तुममे और मुझमें
तुम सबकुछ पाकर भी
छीनने से बाज़ नहीं आते
और हम सबकुछ न्योछावर करके भी
संतुष्ट होकर जीवन बिता डालते हैं
तुम महान बनने कि
कोशिश करके भी कितने छोटे हो
और हम कुछ न जता कर भी सर्वश्रेष्ठ
जिसके अर्थहीन होते ही
तुम्हारा कहीं नाम-ओ-निशान
तक नहीं बचेगा  !! 

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

Monday, March 10, 2014

"बेड़ियां" औरत की आत्म कथा


















क्या किसी ने देखी है?
मेरे पाँव कि बेड़ियां
वो लोहे कि
भारी मोटी अनदेखी ज़ंज़ीर
जिसमे पुरुष प्रधान समाज
और वक़्त ने मुझे जकड़ दिया है
वो डर
जो मेरा हमसाया है
मेरे साथ-साथ चलता है
कभी अंधेरो के कालेपन में   
कभी सूरज के खारेपन में   
कभी भीड़-भाड़ में 
तो कभी तन्हाई में 
मिलता है और फिर छोड़ता नहीं मुझे
जब भी मैं इस भरम में आती हूँ
कि इन पंछियो कि तरह
पूरी कायनात मेरी है
तो सदमा चढ़ बैठता है सीने पर
टूटती-बिखरती सहमी हुई
बेटी हूँ मैं
जन्म से पहले सोचा गया
कि मारा कैसे जाए
पैदा होने के बाद सोचा गया
कि बांधा कैसे जाए
जब बाहर निकली तो सोचा गया
ताड़ा कहाँ और कैसे जाए
मैंने जब लिबास पहना तो
तरकीब लगाया गया
कि आखिर इसे फाड़ा कैसे जाए
क्या कहूं ?
बहुत भारी है मन
अवसाद का जंगल उभर आया है
सिर्फ कांटे बचे हैं
औरत के भाग्य के हिस्से में
जिसपे चलना हमें ही है
कभी अपनों के लिए
कभी सब कुछ सही हो जाएगा
ऐसे ही कुछ सपनो के लिए
शायद
कभी समाज के आँख से पर्दा हट जाए
गन्दी मानसिकता बदल जाए
बस इसी सोच के साथ
हर दिन ढल जाता है
और
इसी उम्मीद के साथ ही
मेरी सुबह चल पड़ती है!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक







"फलसफा"


तुम्हारे फलसफे
जेहन के महफूज कोने में
बड़ी कद्र के साथ रखा है

लेकिन
होंठो तक इनकी वापसी
हार कि लकीर खींच देती हैं
ताकती मुस्कुराती आँखों से
टप-टपा के गिर जाती हैं
कुछ नमकीन बूंदे.....

दर्द कि प्यास
जब सारी हदे पार कर सुखा देती है
उम्मीद के गुलाबी होंठ
तब समझ में नहीं आता कि 
कहूं तो क्या और किससे ?
ऐसा कुछ भी तो नहीं
जो मरे हुए रिश्ते में जिंदादिली ला दें
और चुप रहूँ तो कैसे ?
इंतेहा हो जाती है बर्दाश्त कि
फिर कुछ अच्छा नहीं लगता 

कभी-कभी सोचती हूँ कि
मिटा दूँ हर वो एहसास
जिसका आग़ाज़ तुम हो
और अंजाम भी तुम ही हो   

मगर जानती हूँ मैं
कि कुछ दास्तान 
जहन के पन्ने पर तहरीर होते हैं
दिल कि पुतलियो के तस्वीर होते हैं

 
जो किसी भी एवज़ में
खत्म नहीं होते
बेशक
इन्हे मिटाते मिटाते
जिंदगी कि रबड़ तक घिस जाती है !!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Sunday, March 9, 2014

एहसास कि लहरो पर मैं



इन एहसास  कि
लहरो पर
मैं सवार हूँ
या
ये लहरे मुझपर
 

बड़ी कशिश है मौसम में
खुश मिज़ाज़ ये पुरवाई
आफताब कि रोशनी है ज़ोरो पर
बरखा में बरसात कि बूंदे
भिगोती जा रही है

कुछ मुझे , कुछ तुम्हे….

 
मेरे मन में रिधम
और
वादियो में गूंजता है
एक लय में
संगीत सा तुम्हारा नाम
 
सहमा दिल है बेताब धड़कन
मैं दौड़ कर पकड़ती हूँ
बदहवासी में ख्याली परछाई
और वो छिप जाती है
अंधेरो कि सिल्की आँचल में

नींदे बड़ी मशगूल है तुममे
और सकूं नींदो से खफा
तसव्वुर अपनी नयी दुनियाँ  में
जिसका हर चेहरा हर रूपतुम हो

कितना अज़ीब है फलसफा
जज़्बातों का 
ये जानते हुए भी कि तुम
इक खूबसूरत वहम हो मेरा
जिसका वास्तविकता से कोई नाता नही 
तुम सिर्फ मेरे अंदर हो

लेकिन
फिर भी
इस वहम में जीने का मज़ा
जिंदगी के मायूस लम्हों को
बेहद हसीं बना देता है !




रचनाकार : परी ऍम श्लोक