मैं तुम्हे
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जीतना चाहती थी
ये जानते हुए भी
कि तुम कोई युद्ध नहीं
न मैं कोई योद्धा
शब्दों के बाण से
घायल करना चाहा तुम्हे
हुस्न के जौहर में
जलाना चाहा
तुम्हारे कठोर इरादो को
ध्वस्त करना चाहा
ध्वस्त करना चाहा
लेकिन
फिर एक दिन
मैं अहिंसक हो गयी
और
मैंने खुद को हार दिया
जब मुझे
असल प्रेम का रंग चढ़ा
तो मैं समझ गयी
प्रेम में प्राप्ति नहीं
बल्कि
समर्पण ही
उसकी असली जीत है
© परी ऍम 'श्लोक'
प्रेम
ReplyDeleteसमर्पण मांगता है
अर्पण मांगता है
दर्पण मांगता है
तर्पण मांगता है
अति सुन्दर
अज़ीज़ जौनपुरी
सच में प्रेम की सफलता प्राप्ति में नहीं समर्पण में है..बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteसुन्दर भाव पूर्ण रचना !
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर आये !!
सुन्दर स्वीकारोक्ती
ReplyDeleteभावो से भरी
बहुत सुन्दर स्वीकारोक्त भाव पूर्ण रचना प्रस्तुति।
ReplyDeleteप्रेम में प्राप्ति नहीं
बल्कि
समर्पण ही है!!
सुन्दर लिखा.... नदी सागर में गिरती हुई और भी सुन्दर हो जाती है.... हार्दिक बधाई !!!!
ReplyDeleteवाह परी जी बहुत बढ़िया प्रस्तुति ..प्यार लेना नहीं देने का नाम है
ReplyDeleteबहुत बढ़िया परी जी
ReplyDeleteसादर
ख़ूबसूरत एहसास की ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति…
ReplyDeleteआप की हार में ही जीत है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति की है आपने
Sankshipt sabhdon me ise bazigari kahege :)
ReplyDeleteप्रेम का रंग चढ़ने के बाद कोई दूजा रंग नहीं चढ़ता ...
ReplyDeleteसुन्दर अहसास..सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteतो मैं समझ गयी
ReplyDeleteप्रेम में प्राप्ति नहीं
बल्कि
समर्पण ही
उसकी असली जीत है
बिलकुल ! प्रेम वास्तव में समर्पण का दूसरा नाम है !
लेकिन प्रेम में पूर्णता तभी आती है जब इस समर्पण को स्वीकृति और सम्मान मिलता है और तभी किसीको जीत हासिल होती है वरना अक्सर यह एकतरफा समर्पण भी तिरस्कृत होकर ही रह जाता है ! सुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteख़ूबसूरत एहसास की ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति…
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