Saturday, November 1, 2014

प्रेम और समर्पण

मैं तुम्हे
जीतना चाहती थी
ये जानते हुए भी
कि तुम कोई युद्ध नहीं
न मैं कोई योद्धा
शब्दों के बाण से
घायल करना चाहा तुम्हे
हुस्न के जौहर में
जलाना चाहा
तुम्हारे कठोर इरादो को
ध्वस्त करना चाहा
लेकिन
फिर एक दिन
मैं अहिंसक हो गयी
और
मैंने खुद को हार दिया
जब मुझे
असल प्रेम का रंग चढ़ा
तो मैं समझ गयी
प्रेम में प्राप्ति नहीं
बल्कि 
समर्पण ही
उसकी असली जीत है
 
_____________________
© परी ऍम 'श्लोक'

16 comments:

  1. प्रेम
    समर्पण मांगता है
    अर्पण मांगता है
    दर्पण मांगता है
    तर्पण मांगता है

    अति सुन्दर
    अज़ीज़ जौनपुरी

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  2. सच में प्रेम की सफलता प्राप्ति में नहीं समर्पण में है..बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति...

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  3. सुन्दर भाव पूर्ण रचना !
    कृपया मेरे ब्लॉग पर आये !!

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  4. सुन्दर स्वीकारोक्ती
    भावो से भरी

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  5. बहुत सुन्दर स्वीकारोक्त भाव पूर्ण रचना प्रस्तुति।
    प्रेम में प्राप्ति नहीं
    बल्कि
    समर्पण ही है!!

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  6. सुन्दर लिखा.... नदी सागर में गिरती हुई और भी सुन्दर हो जाती है.... हार्दिक बधाई !!!!

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  7. वाह परी जी बहुत बढ़िया प्रस्तुति ..प्यार लेना नहीं देने का नाम है

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  8. ख़ूबसूरत एहसास की ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति…

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  9. आप की हार में ही जीत है
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति की है आपने

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  10. Sankshipt sabhdon me ise bazigari kahege :)

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  11. प्रेम का रंग चढ़ने के बाद कोई दूजा रंग नहीं चढ़ता ...

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  12. सुन्दर अहसास..सुन्दर अभिव्यक्ति...

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  13. तो मैं समझ गयी
    प्रेम में प्राप्ति नहीं
    बल्कि
    समर्पण ही
    उसकी असली जीत है
    बिलकुल ! प्रेम वास्तव में समर्पण का दूसरा नाम है !

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  14. लेकिन प्रेम में पूर्णता तभी आती है जब इस समर्पण को स्वीकृति और सम्मान मिलता है और तभी किसीको जीत हासिल होती है वरना अक्सर यह एकतरफा समर्पण भी तिरस्कृत होकर ही रह जाता है ! सुन्दर प्रस्तुति !

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  15. ख़ूबसूरत एहसास की ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति…

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