आँखों
की रोशन लवें बुझी हैं
रात
के कब्ज़े में संतरी लम्हें चले आएं
उदास
हवाएं दरख्तों से नीचे नहीं उतरी
नींद
के जुगनू बागो में टहलने नहीं आये खामोश हैं सदायें सारी
सुन्न
है आलम सारा
कोई
आहट नहीं ..सरसराहट नहीं...
मैंने
उम्मीद के तिनके जलाएं हैं गीली माचिस से
मगर
दूर तक बस्ती पर जुल्मतों का ही साया हैं
आज
फिर आस्मां को घटाओं ने घेर रक्खा है
आज
फिर मुझसे मिलने न चाँद आया है !!
©परी
ऍम. 'श्लोक'