आवाज़ो
के शहर में
सुन्न
हूँ मैं…
बोलने
की आज़ादी
गूंगे
व्यक्ति के लिए
बेमायने
होते हैं
फिर
चाहे फूटे ज्वालामुखी
अंदर
की बेबस चट्टानों में !
मैंने
समझा था जिसे
जीवन
का स्वर्णिम पल
असल
में वो तो
मेरे
अस्तित्व का मंथन था
जिसके
उपरान्त बचने वाला था
मात्र
मोहरा
जिसका
दाव रिश्तो के
शतरंज
पर खेला जाना था !
देखते ही देखते
सब
परवर्तित हो गया
अब
पूरी कायनात
बस
इस बंद कमरे का
इक
कोना बन गया
कमरे
की खिड़की से
बाहर
नहीं झाँका करती अब
सिमट
के पास आ गयी
सारी
कल्पनायें
पंखे
से लटक कर
मेरी
ख्वाइशें हर दिन
आत्म
हत्या करती हैं
हर
रात दरवाजा खुलता है
इक
अँधेरा अंदर आता है
और
अपनी हवस के कुंड में
झोंकता
है मेरा मान
मेरे
स्त्री होने का
श्राप
सिद्ध करता है
और
सुबह होने से पहले
बिन
बताये चला जाता है
फेंक
दी जाती है रोटी
ताकि
जीवित रहूँ मैं
और
वह दानवी काली परछाई
शांत
कर सके अपनी कामुकता
बेसुध
पड़ी मैं
एका-इक
उठती हूँ
और
फिर लड़खड़ा के
धम्म
से गिर पड़ती हूँ
भूतिया
वीरानापन गूँज उठता है
दीवारे
जो थक चुकी है
सिलसिलेवार
अत्याचार से
प्रश्न
करती है
कि
आखिर क्यूँ सह रही हूँ मैं?
उत्तर
देती उससे पहले ही
पाँव
का बिछुआ अटक जाता
माथे
पर सिन्दूर लगाए
मेरा
प्रतिरूप घूम जाता
और
दीवारो को हिदायत दे देती
ये
मिया-बीवी के बीच का मामला है
किसी
को आने की इजाजत नहीं
माँ
ने कहा था कि
औरत की इज्जत पति के घर में है
औरत की इज्जत पति के घर में है
और
अब इस बुढ़ापे में…..
बेटी का बोझ कैसे ढ़ोऊँगी मैं?
फिर
से स्वीकार कर लेती मैं
यह
भयावह सत्य
माँ-बाप
के संस्कारो के नाम पर
और
सामाज
के इज्जत के
गोल्ड
मैडल के लिए
गुलामी
का यह दर्दनाक दाव
जिंदगी
के अखाड़े में
बड़ी
ही ख़ामोशी से खेल जाती !!
_______परी एम 'श्लोक'