Sunday, September 28, 2014

आवाज़ो के शहर में सुन्न हूँ मैं

आवाज़ो के शहर में
सुन्न हूँ मैं…
बोलने की आज़ादी
गूंगे व्यक्ति के लिए
बेमायने होते हैं
फिर चाहे फूटे ज्वालामुखी
अंदर की बेबस चट्टानों में !

मैंने समझा था जिसे
जीवन का स्वर्णिम पल
असल में वो तो
मेरे अस्तित्व का मंथन था
जिसके उपरान्त बचने वाला था
मात्र मोहरा
जिसका दाव रिश्तो के
शतरंज पर खेला जाना था !

देखते ही देखते
सब परवर्तित हो गया
अब पूरी कायनात
बस इस बंद कमरे का
इक कोना बन गया

कमरे की खिड़की से
बाहर नहीं झाँका करती अब
सिमट के पास आ गयी
सारी कल्पनायें

पंखे से लटक कर
मेरी ख्वाइशें हर दिन
आत्म हत्या करती हैं

हर रात दरवाजा खुलता है
इक अँधेरा अंदर आता है
और अपनी हवस के कुंड में
झोंकता है मेरा मान
मेरे स्त्री होने का
श्राप सिद्ध करता है
और
सुबह होने से पहले
बिन बताये चला जाता है
फेंक दी जाती है रोटी
ताकि जीवित रहूँ मैं
और वह दानवी काली परछाई
शांत कर सके अपनी कामुकता

 
बेसुध पड़ी मैं
एका-इक उठती हूँ
और फिर लड़खड़ा के
धम्म से गिर पड़ती हूँ

भूतिया वीरानापन गूँज उठता है
दीवारे जो थक चुकी है
सिलसिलेवार अत्याचार से
प्रश्न करती है
कि आखिर क्यूँ सह रही हूँ मैं?

उत्तर देती उससे पहले ही
पाँव का बिछुआ अटक जाता
माथे पर सिन्दूर लगाए
मेरा प्रतिरूप घूम जाता
और
दीवारो को हिदायत दे देती
ये मिया-बीवी के बीच का मामला है
किसी को आने की इजाजत नहीं

माँ ने कहा था कि  
औरत की इज्जत पति के घर में है
और अब इस बुढ़ापे में…..
बेटी का बोझ कैसे ढ़ोऊँगी मैं?

फिर से स्वीकार कर लेती मैं
यह भयावह सत्य
माँ-बाप के संस्कारो के नाम पर

और
सामाज के इज्जत के
गोल्ड मैडल के लिए
गुलामी का यह दर्दनाक दाव
जिंदगी के अखाड़े में
बड़ी ही ख़ामोशी से खेल जाती !!


_______परी एम 'श्लोक'

Friday, September 26, 2014

प्रेम के पात्र नहीं...सिर्फ घृणा के पात्र हो तुम

आज मुझे फ्रेंड रिक्वेस्ट आई यह कोई पहली बार नहीं था आती रहती है इक दिन तो किसी ने ऐसी कम्युनिटी में ऐड करने कि रिक्वेस्ट भेजी कि कि दिल किया उसके मुँह पर सीधा थूक दूँ लेकिन मेरी थूक भी इतनी सस्ती नहीं सो मैंने उसे ब्लॉक कर दिया......किसी को एकदम ऐड करने से पहले इक बार उसकी प्रोफाइल पर गौर तो फरमाना पड़ता है न ... जैसे कि औरत के नाम पर असहजता स्वाभाविक है.... और आज कल ज्यादातर लोग अच्छे नहीं होते ......जाहिर सी बात है अगर कोई सुन्दर तस्वीर लगी हो किसी लड़की के प्रोफाइल पर तो रिक्वेस्ट इसलिए नहीं आती की वो आपका प्रशंशक है आपकी कविताएं पसंद हैं...बल्कि इसलिए आती है की चेहरे की खूबसूरती दिखाई पड़ी है उसे... अब गलती से हम उस प्रोफाइल का निरीक्षण करने पहुँच गए .. जहाँ हमें यह तस्वीर प्राप्त हुई ... माफ़ कीजियेगा जहाँ तक मुझे मेरे दायित्व का पता है मेरी कलम कोई मनोरंजन का बीन बजाने का साधन नहीं है ...मेरा काम केवल प्रेम कि कविताएं लिखना नहीं बल्कि ऐसी बाते भी रखना है जो मैं नज़रअंदाज़ न तो खुद कर सकती हूँ न ही चाहती हूँ कि कोई और करे ...  इक तरफ तस्वीर में लिखी है वो बाते हैं जो नाली के कीड़ो (इससे ज्यादा गन्दा बोलना मेरी सीमा में नहीं वरना ज़रूर बोलती ) जैसी सोच रखने वाला पुरुष जाहिर करता है औरत के अंगो के प्रति अपनी मानसिकता .... इक तरफ है वो आइना जो उनको दिखाना ज़रूरी है ... कि औरत मात्र गोश नही है....

























नहीं कोई गोश नहीं
लेकिन बना दी गयी
बाज़ारो में सब गोशो से
ज्यादा महंगे दामो पर मिल जाएगा
मेरा भी देह जिन्दा जी-मान ...
खरीददारों कि कमी नहीं
बड़े से छोटे समाज के
छुपे हुए सौदागर
दिन-रात उस बाजार में
मक्खियों कि तरह भिनभिनाते हैं
मैं अभिनेत्री बन
तुम्हारा मनोरंजन करने के लिए
तमाम जोखिम उठाती रही
और तुम मेरी ही तस्वीरो पर
अपनी मानसिकता निहित कर
चिपका देते हो अपने वाल पर
छी............
किसी भी आम औरत कि तरफ
मुझे भी फर्क पड़ता है
भले ही मैं
तुम्हारे लिए मात्र साधन हूँ
लेकिन मैं भी स्त्री ही हूँ
वास्तविकता यही है कि
तुम प्रेम के पात्र नहीं
सिर्फ घृणा के पात्र हो
पत्थर कि मूरति को
वस्त्र पहनाते हो
उसके आगे सर झुकाते हो
सोलह श्रृंगार का चढ़ावा करते हो
कन्याओ को भोज करवाते हो
भेड़ियो....
और जिन्दा स्त्री के वस्त्र उतारते हो
मान जो उसका
सबके कीमती श्रृंगार है
उसको ही छीन लेते हो
हमें ही अपनी वासना का
भोग बना लेता हो...
मुझे तुमसे घृणा है
अथाह घृणा.........................................
और जिस दिन
सारी सीमाये ख़त्म हो जायेगी
सहन कि
ये रोग महामारी कि तरह
हर औरत के जहन में
तुम्हारे लिए पनप जाएगा
तब तुम्हारा सर्वनाश निश्चित है !!



_____परी ऍम 'श्लोक'


नोट:
मेरे मन में जो उठा मैंने लिख दिया ... हो सकता हो किसी को लगे कि मैंने गलत भाषा या तरीका अपनाया ... किन्तु सत्य तो अक्सर कड़वा होता है न ... उसको सज़ा कर कहना मेरे बस नहीं था !! 


 

"हाँ ! जी की नौकरी ना जी का घर "





हमारे देश में बहुत सारी प्राइवेट कंपनीज़ है....और हो भी क्यों बेरोज़गारी प्राइवेट कंपनीज़ कि वजह से ही थोड़ा कम है ...अब सरकारी नौकरी के भरोसे बैठेंगे तो बस बैठे रह जाएंगे हाथ पर हाथ धरे.... अगर गलती से कोई फॉर्म भरा पेपर दिया और गलती से पेपर अच्छा हो गया तो इक आशा होगी की चलो पेपर क्लियर हो गया तो इंटरव्यू भी क्लियर हो ही जाएगा ... पर पता चलता है सब में पास हुआ ..लेकिन इंटरव्यू में लुढ़क गया फिर सोचता हूँ इंटरव्यू तो अच्छा दिया था पर लुढ़का कैसे आह !

अचानक दिमाग दौड़ता है बिलकुल सटीक पॉइंट पर बात समझ आती है मामला घूस का लगता है ..फिर पता चलता है दसवी में बार फेल लड़का पास कर गया इस इंटरव्यू को ..माथा ठनक जाता हैदेखा जो सोचा था वही हुआ ! खैर अब ये तो कोई बड़ी बात है नहींतो अब दिल पर क्या लेना?....झटक के चिंता को बढ़ जाता हूँ आगे की ओर .. अब अगर घर में बैठो तो दुनियाँ जीने देती है.. घरवाले ..रोज़ ताने ..रोज़ झगड़ा .. ऐसे पचड़ों से बेहतर कोई जॉब है चलो सरकारी सही प्राइवेट ही सही .. 

बस फिर अच्छा सा रिज्यूम तैयार करके नौकरी ढूंढने निकल पड़ते हैं और जितनी भी नौकरी की साइट्स हैं सब पर रजिस्ट्रेशन करवा देते हैं.. उसके बाद कॉल आनी शुरू हो जाती हैइक और टेंशन सर अच्छी नौकरी के लिए रजिस्टर करवाएं उसके चार्जेस हैं तीन महीने के लिए दो हज़ार.... छह महीने के लिए चार हज़ार.... और साल के लिए दस हज़ार रुपये भरने होंगे ... फिर हँसी आती है टेंसन वाली"लो भाई गाँव बसा नहीं लुटेरे पहले गए" .. और पटक के मारते हैं फ़ोन ... और फिर बिना किस सहयोग लगातार नौकरी कि ख़ाक छाननी पड़ती है .. क्या करें प्राइवेट कम्पनियो का हाल भी बहुत बुरा चल रहा है नौकरी उनके लिए है जो किसी के भाई-बाप के रिफरेन्स से आते हैं या तगड़ी पहुँच है .. .. अब मेरा बाप तो किसान है.. मेरा भाई है ही नहीं ! लेकिन बड़े पापड़ बेल कर जाकर इक दो महीने में नौकरी लग ही जाती है कुछ काबिलियत और ज्यादा अंग्रेजी के बल पर..क्यूंकि अब हमारे देश में हिंदी कहाँ चलती हैं सब कोई अंग्रेजी ही बोलता हैं ..कभी-कभी मैं भूल जाता हूँ कि भारत में हूँ या अंग्रेजो कि देश में !

अब रोज़-रोज़ मेनटेन होकर नौकरी पर पहुँच जाते हैं ढेर सारा काम करते हैं क्यूंकि भाई नौकरी तो क्लर्क कि हैं सब कोई काम पकड़ा जाता है .. शाम तक सारी मेन्टेनेन्स अस्त-व्यस्त हो जाती है ... अब किसी को मना भी क्या करना प्राइवेट नौकरी में बड़े पोस्ट पे बैठने वाले आराम करते हैं ... नीचे वाले काम करते हैं .. उसके बाद भी उनको रोज़ सैल्यूट मारना पड़ता हैं जिनके लिए दिल में इज्जत है नज़र में सही बोले तो भी हाँ...गलत बोले तो भी हाँ ... और जहाँ तक बात सही कि है यह मात्रा कम ही होती है... लेकिन ऐसा क्यों करें भाई ... प्राइवेट नौकरी है "हाँ जी कि नौकरी ना जी का घर" .. नौकरी इसलिए खतरे में नहीं होती कि काम अच्छा नहीं कर रहे बल्कि इसलिए ज्यादा खतरे में होती है कहीं इन बड़े पोस्ट पर बैठे कोट पहनने वाले लोगो कि ईगो हर्ट हुई हो ... अब भाई अपनी ईगो तो नौकरी है ये चली गयी तो घरवाले जीने देंगे बस यही सोच कर काम करता रहता हूँ बुद्धू बन कर सलाम ठोककर ...

क्यूंकि सरकारी नौकरी तो है नही सारी पावर क्लर्क के पास है... नीचे पैसे खसका दो काम हो जाएगा ... और ज्यादातर तो वहां कोई काम ही नहीं करता अब सुन लो कर्मचारी बीमा योजना के ऑफिस का हाल मेरे मुँह से भाई वहां मेरा अक्सर आना जाना रहता है पूछो वहां तो ऐसा दिखाते हैं मैं भीख माँगने गया हूँ उनके ऑफिस में ... वही . घूस देकर भर्ती होंगे तो काम भी तो घूस वाला ही करेंगे..जानते हो कभी-कभी बड़ा सोचता हूँ बिज़नेस करलूं ..पर पैसे कहाँ से लाऊँ ... कहीं घाटा लगा तो... साला हम मिडिल क्लास लोग सोचते बहुत हैं ..क्या करें? ..

अब बीवी मेरी कोई किटी पार्टी में तो जाती नहीं ...बिचारी को पार्क ले जाने के पैसे भी जेब में नहीं रखूँगा तो बेईमान पति बन जाऊँगा... तो सोचता हूँ गर्दन हिलाता रहूँ ..काम चलाता रहूँ ऐसे ही कमाता रहूँ ..बीवी खुश... तो मैं खुश अब अंदर से खुद को मार-मार के इतना मज़बूत तो हो ही गया हूँ कि सबकी ख़ुशी के लिए चेहरे पर झूठी लम्बी हँसी रख सकूँ ...ख़ुशी बाहर सही घर में ही बरक़रार रखने कि इक कोशिश तो कर लेता हूँ मैं!!!
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©परी ऍम 'श्लोक'