Friday, September 5, 2014

"तरस के रह गयी"

लाख बरसी आँखे
धोती रही इससे
इच्छाओ का रक्त
जाने कितने ही रूमालों को
टपकता दरिया बना दिया

लेकिन मन पर
छायी हुई पीड़ाओं की
काली स्याह घटायें
अब तक नहीं छटी
हु-बा-हु है आज भी

और
भोर के सूरज की
इक नन्ही रोशनी भरी
मुस्कान को
मैं बस
तरस के रह गयी !!

_________परी ऍम 'श्लोक'

4 comments:

  1. लाज़वाब बहुत ही सुन्दर भाव उकेरे हैं आप नें

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  2. bahut Sundar!
    kitne hi dardon mein mit kyon na gayi hon raahein
    kahin anturman mein ek talash abhi shesh hai
    vidhvanson ke dhooye to ghumadte hi rahte hain
    ek sundar si aplak smruti ki aas abhi shesh hai!

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