Thursday, August 20, 2015

ज़िन्दगी यूँ हो कि ज़न्नत की पनाहें हैं

मेरी   पलकों   ने   रह - रह   के  उठाये  हैं 
तेरी   सूरत   तो   इन   आँखों  के  फाहें  हैं 
मैं   गुम   हो   गयी   उस  वीरान  बस्ती  में 
दूर   तक   मौजूद   जहाँ   पर   तेरे  साये  हैं  
मौजजा हो कि अगर तुम चले आओ साथी 
मैंने   दिए   उल्फ़त  के  राहों  में  जलायें  हैं
ये  ज़मी  ही नहीं  ये आसमां भी  चौंक जाए 
कि  तेरी  आहट  पर  सब  कान   लगायें  हैं 
मेरी  दुनिया  में  कुछ  और  ज़रूरी  ही  नहीं 
मैंने   हर   ख़्वाब   महज़   तुमसे   सजायें  हैं 
सोये  हुए  जिस्म  में अब भी जागता है  दिल 
तेरे   आमद   की    ये   उम्मीद    लगाये   हैं
सच   कहूँ  मान  लो   हमदम   मेरे  हमसाथी 
बात  यूँ  ही  नहीं  हम  लब  तलक  लायें  हैं 
तेरी  बाहों  का  सहारा  जो  मिल  जाए  मुझे 
ज़िन्दगी   यूँ  हो   कि   ज़न्नत  की   पनाहें  हैं 


© परी ऍम. 'श्लोक'

Wednesday, August 19, 2015

तस्वीर फाड़ी होगी खत भी जलाया होगा

तस्वीर  फाड़ी  होगी  खत भी जलाया होगा 
यकीं है  फिर भी वो मुझे भूल न पाया  होगा
मेरे  जाने  के  बाद  इतनी  खबर  है  मुझको 
दिन में तड़पा होगा रात सो भी न पाया होगा 
रोज़ मिलते थे छिप-छिप के  जिस बाग़ीचे में  
सुबह  उठकर  फिर  वहीं  सैर पर आया होगा 
मुझी को तलाशा होगा हर  शख़्स के  चेहरे में 
और  नज़र  भी  मुझी  से  उसने  चुराया होगा  
दिल  में  दर्द  मचलता होगा  तूफ़ानों की तरह  
मगर  वो  ख़ुश  है  झूठ  सबको जताया  होगा   
जिक्र किया  होगा जो किसी ने बातों-बातों में 
सूनी आँखों  में  सौ  दरिया  उत र आया होगा 
किसी  ने  पूछ  लिया  होगा रोने का सबब जो 
बहाना  इक  वही   तिनकें   का  बनाया  होगा  
ख़ुदा  से  जम   के  हमदम   मेरा  झगड़ा  होगा
बेरहमी  का  सर  इल्ज़ाम  भी   लगाया  होगा  
और  कहा  होगा  कि  तेरे दर कभी न आऊंगा 
फिर  किसी ख़्वाइश  पे दामन न फैलाया होगा  
मैं  याद आई  होंगी बर्दाश्त  की हद  हुई  होगी 
होकर  बेचैन वो  मेरी  क़ब्र तक  आया   होगा 
कितना  तनहा  है मुझे रह-रह के  बताया  होगा 
लिपट के कतबे से बहुत चीखा-चिल्लाया होगा 

मैंने महसूस क्या किया उसपल है बयां मुश्किल 

बस इतना  जान लो  कि उसके अंगार से  आंसू 
यूँ  गिरे  कि  मेरी  क़ब्र  जल के  राख  हो  गयी। 
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© परी ऍम. "श्लोक"  

Tuesday, August 18, 2015

मैं तुमसे आगे जाना चाहता हूँ

उसने   मुझसे  कहा  एक  बात   कहूँ ?
खाओ  क़सम कि इंकार करोगी  नहीं
मैंने मुस्कुरा के झट से कहा ओ पगले
तेरे  लिए  तो  ये  जान  भी  हाज़िर है
मुझे    ख़बर   क्या  थी   कि   सबार
उसकी  साज़िश में  है एक बड़ी सज़ा
वो मांगने  वाला  है  जीने  की  वज़ह
जाने   सोचा   था   कि    नहीं   उसने
मगर   उसे   देखकर   लगा  था   मुझे
एक  शिकन  तक  नहीं  थी  चेहरे पर
कोई मलाल न था अपनी ख़्वाइश पर 
कहने  लगा  जान   खफ़ा   मत  होना
और  मुझे  इल्ज़ाम  भी  कुछ  न देना
बस तुमसे यही  मैं  कहना  चाहता हूँ
मैं   तुमसे   आगे   जाना   चाहता  हूँ
मेरी  आँखों  से टप  से  टपका कतरा
नस - नस   में   तल्ख़  अँधेरा  छाया
ख़्याल   ये   भी  मुझे  आया  दफ़तन
कहीं  बुरा  ये  कोई   ख़्वाब  तो नहीं
एक  पल  तो  समझ  न आया मौला
जवाब उसको  क्या दिया जाए मौला
मगर  रख  के  पत्थर  अपने  सीने  पे
कुछ  यूँ  छोड़ा  ज़िन्दगी का सरमाया
कह  दिया  जाओ  मेरे  महबूब जाओ
कि  तेरे  इल्तिज़ा  को  है  मंजूरी  मेरी



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© परी ऍम. 'श्लोक'  

Monday, August 17, 2015

उसने मुसलसल कई गुनाह किये

उसने मुसलसल कई गुनाह किये 
और अक्सर कहता रहा मेरी खता क्या है

उसे मालूम नहीं शायद 
चोरी गुनाह है और देखो 
उस अनाड़ी ने चुपके से मेरा दिल चुरा लिया
आफ़ताब से भी तेज़ था उजाला उसका 
कि उसने मेरे जिस्म का साया हथिया लिया  

उसे मालूम नहीं शायद 
धोखा-धड़ी गुनाह है 
उसने ऐतबार के मंदिर में 
प्यार का फूल चढ़ाया और कई कसमें खाई 
लव्ज़ दर लव्ज़ वादा किया 
और बिना आहट बिना आवाज़ के गुज़र गया 

उसे मालूम नहीं शायद 
कि क़त्ल की बड़ी सज़ा मुक़र्रर है 
उसने अपने हाथों से रात की गवाही में
चाँद का नूर लेकर टिमटिमाती तन्हाई में  
कई जिन्दा ख़्वाब मेरे आँखों की शीशी में भरे
और सुबह होते-होते बड़ी बेरहमी से उसे
ज़मीन पर पटक कर चकनाचूर कर दिया 

मैंने सबूत के क़ागज़ाद नहीं बटोरे 
मगर मेरा गमज़दा वज़ूद इस बात की गवाही है 

कि 
उसने मुसलसल कई गुनाह किये 
और अक्सर कहता रहा मेरी खता क्या है

© परी ऍम. श्लोक  




Wednesday, August 12, 2015

मुहब्बत इक इत्तिफ़ाक़ है

मुहब्बत इक इत्तिफ़ाक़ है 
सोची समझी कोई कोशिश नहीं  
ये कब, किस वक़्त, किसके लिए  
हमारे अंदर पनप जाए मालूम नहीं 
ये दिल,धड़कन या फिर 
जिस्म का रिश्ता नहीं
एक रूहानी रिश्ता है 
जो जिस्म ढलने के बाद भी 
कायनात में रोशन रहता है  
जिंदगी के पहले दिन से  
मुहब्बत हमारे अंदर मौजूद होती है  
मगर इसे जागने के लिए 
महबूब के इक नज़र की ज़रूरत होती है 
मुहब्बत की पैदाइश ज़रूर होती है
मगर मौत नहीं 
ये वक़्त की आँच पर पक कर निखरता है
मरता कभी नहीं 
इसके लिए ज़रूरी नहीं 
एक जैसे ख़्यालात का होना 
दो अलग दिशाओं का मिलन है मुहब्बत 
इसका कोई रूप - रंग नहीं
मुक़द्दस एहसास है मुहब्बत 
कभी रोज़े का दिन है
तो कभी चाँद रात है मुहब्बत 
मुहब्बत प्यास है 
जो हर जुबां पर कायम है 
मुहब्बत खुद के लिए जीना नहीं 
बल्कि किसी और को पल-पल जीना है
मुहब्बत इक अटूट विश्वास है
बेहद सुकूं है इसके पहलु में  
और बेहद संगीन अज़ाब है 
मुहब्बत 

मेरी तरसी हुई निगाहों का एक ख़्वाब है।

© परी ऍम. ''श्लोक

Wednesday, August 5, 2015

मुझे ज़रा भी इल्म न था

उस लम्हें के गुज़र जाने के बाद
अतराफ़ ये सन्नाटा पसर जाने के बाद
मेरा मासूम दिल जब सितारों की शब में 
अपने गिरेबाँ की सीढ़ियाँ उतरा 
तो बुझा हुआ मुहब्बत का चेहरा देख 
उसे इस बात का बेहद अफ़सोस हुआ  
कि ज़रा सी कहा -सुनी में खफ़ा होकर  
वो तुम्हारा दिया तोहफ़ा 
जो मुझे अपनी जाँ से अज़ीज़तर था  
कितनी बेरहमी से उस रोज़ 
गुस्से की धधकती हुई 
इक पल के आतिश-दाँ में झोंक आई थी
मुझे ज़रा भी इल्म न था 
जन्मों के रिश्तें पल - भर में खाक़ नहीं होते 
एक सदी, एक उम्र , एक जिंदगी मिट जाती है 
इक निशान दिल से मिटाते-मिटाते। 
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© परी ऍम. "श्लोक"

Sunday, August 2, 2015

एक ही साँचे में

हिन्दू का खून काला क्यूँ नहीं है 
मुस्लिम का नीला, सिक्खों का गुलाबी 
और ऐसे ही जुदा धर्मों के लोगों का लहु 
इक दूसरे से जुदा क्यूँ नहीं है 
काश ! हर किसी के माथे पर 
ख़ुदा ने गहरा के लिख दिया होता 
कि वो किस मज़हब का है
या फिर चेहरा ही थोड़ा टेढ़ा-मेढ़ा बना दिया होता 
किसी की नाक सर पे लगा दी होती 
किसी का कान माथे पर चिपका दिया होता 
और किसी की आँखों को होंठो पे फिट कर देता 
कम से कम इतना किया होता 
हर फ़सादात, हर आफ़त, 
हर आतंकवादी हमले के बाद 
मारे गए लोगों  की लाश पर 
बहने वाला आंसू का रंग ही बदल दिया होता
मैं सोचती हूँ कि 
मज़हब का नाम लेकर आपस में लड़ने-मरने वाले 
अपने-आपको इक-दूसरे से अलग समझने वाले 
ज़मीन के इन दिमाग़ी बीमार नमूनों को 

ख़ुदा ने एक ही साँचे में क्यूँ ढाल दिया। 


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© परी ऍम. "श्लोक"