मेरी पलकों ने रह - रह
के
उठाये हैं
तेरी सूरत तो इन आँखों के फाहें
हैं
मैं गुम हो गयी उस वीरान बस्ती
में
दूर तक मौजूद जहाँ पर तेरे साये हैं
मौजजा हो कि अगर तुम
चले आओ साथी
मैंने दिए उल्फ़त के राहों में
जलायें हैं
ये ज़मी ही
नहीं ये आसमां भी चौंक जाए
कि तेरी आहट पर सब कान लगायें हैं
मेरी दुनिया में कुछ
और ज़रूरी ही
नहीं
मैंने हर ख़्वाब महज़ तुमसे सजायें हैं
सोये हुए जिस्म
में अब भी जागता है दिल
तेरे आमद की ये उम्मीद लगाये हैं
सच कहूँ मान लो हमदम मेरे हमसाथी
बात यूँ ही नहीं हम
लब तलक लायें हैं
तेरी बाहों का
सहारा जो मिल जाए मुझे
ज़िन्दगी यूँ हो कि ज़न्नत की पनाहें हैं
© परी ऍम. 'श्लोक'