उसने
मुझसे कहा एक बात कहूँ ?
खाओ क़सम कि इंकार करोगी
नहीं
मैंने मुस्कुरा के झट से कहा ओ पगले
तेरे लिए तो ये जान भी
हाज़िर है
मुझे ख़बर
क्या थी कि इसबार
उसकी साज़िश में है एक बड़ी सज़ा
वो मांगने वाला है जीने की
वज़ह
जाने सोचा था कि नहीं उसने
मगर उसे देखकर लगा था मुझे
एक शिकन तक नहीं थी
चेहरे पर
कोई मलाल न था अपनी ख़्वाइश पर
कहने लगा जान खफ़ा मत होना
और मुझे इल्ज़ाम भी कुछ न देना
बस तुमसे यही मैं कहना
चाहता हूँ
मैं तुमसे आगे जाना चाहता हूँ
मेरी आँखों से टप से
टपका कतरा
नस - नस में तल्ख़ अँधेरा छाया
ख़्याल ये भी मुझे आया दफ़तन
कहीं बुरा ये कोई ख़्वाब
तो नहीं
एक पल तो समझ न आया मौला
जवाब उसको क्या दिया जाए मौला
मगर रख के पत्थर अपने
सीने पे
कुछ यूँ छोड़ा ज़िन्दगी का सरमाया
कह दिया जाओ मेरे महबूब जाओ
कि तेरे इल्तिज़ा को है मंजूरी
मेरी
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© परी ऍम. 'श्लोक'
बहुत ही खूबसूरत दिल को छू लेती रचना है!!
ReplyDeleteआपका दिन शुभ हो!!
बहुत ख़ूबसूरत अहसास...उत्कृष्ट रचना
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