Tuesday, July 29, 2014

तुम और मैं.....बंधे इक डोरी से ~~

इस सत्य को
बदला नहीं जा सकता
कि तुम और मैं
एक साथ चलते हैं
मैं नदी हूँ तो तुम धारा
मैं जुगनू तो तुम उसका प्रकाश  
तुम सेहरा तो मैं प्यास
तुम शब्द तो मैं अभिव्यक्ति
बंधे हैं हम प्रेम कि अदृश्य डोर से

बेशक
तुम्हे ये भीड़ तवज्जु दे
अपने पलकों पर बिठा ले
किसी की  भावनाओं  के तुम कायल हो जाओ
किन्तु मन के जज़ीरे पर
मेरे उपरांत पनपी वीरानियाँ
समाप्त करने में सदैव असक्षम रहोगे

बिना मेरे तुम्हारा अस्तित्व
उस चाँद की तरह है
जो हज़ारो तारो के बीच
होकर भी एक दम तनहा है 
और
मैं वो खायी
जिसमे तुम्हारी कमी से
उपजी हुई गहराई को  
कई जनमों तक पाटने के बाद भी
कभी भरा नहीं जा सकता !!

---------------परी ऍम श्लोक

नहीं........... अब नहीं !!

धीरे-धीरे तुम
सम्मान की ऊंचाइयों से
नीचे गिरते जा रहे हो
और आहिस्ता-आहिस्ता
मैं उठने की
कोशिश कर रही हूँ

अपने आपको पाने को
साफ़ कर रही हूँ दर्पण
धुंध की तरह जम गए हो
जिसपर तुम

गीत गाने के अलावा
हाँ जी की बिंदु के पार
अपनी आवाज़ को
नए आयाम देना चाहती हूँ
अपने आपको
इक पहचान देना चाहती हूँ

लम्बे समय से सोते हुए
थक चुकी हूँ
अब जागना चाहती हूँ
हमेशा हमेशा के लिए
मेरे साथ हो रही हिंसा को
कब्र में सुला देने को

सुनो!
तुम्हारे इरादो पे
नाचने का चलन
अब छोड़ रही हूँ
पांजेब बनी है बेड़ियां
इन्हे भी तोड़ रही हूँ
इससे ज्यादा
सहन की गुंजाईश मुझमें
नहीं अब नहीं !!!

------------------परी ऍम 'श्लोक'

मेरे होने का प्रमाण

मालूम नहीं .........

कौन है ? क्या है ?

कहाँ हैं ?

मगर
फिर भी है
इंतज़ार.....

और
जब भी
ये इंतज़ार
मद्धम पड़ने लगता है

तो
उठता है
सवाल
मेरे होने पर

ह्रदय
जिसका उत्तर
निसंकोच देकर
मुझे आत्मीय
शान्ति देता है

कि
तुम्हारा होना ही तो
मेरे होने का प्रमाण है !!


---------------परी ऍम 'श्लोक '

Monday, July 28, 2014

जिंदगी तुझे ईद मुबारक :)

गरीबी ने
एक वक़्त की रोटी दी
खुदा की रहमत समझ
दिलासा दिया
खुद को मैंने
रमजान का दौर है
रोज़ा रख रहा हूँ

जब ज्यादा
तकलीफ से गुजरा
कहीं पर भी बैठ
चिंता की चादर बिछा
उम्मीद का कुरान पढ़ लिया

वक़्त भी कब
हमेशा एक सा होता है ?
इसके
करवट लेते ही .....

खुशियो के चाँद ने
दस्तक दी
दुआओ की पाकीजगी
खिल उठी
रात रोशन हुई

मैं झूम उठा....
जिंदगी से गले मिलके
कह दिया मैंने
ईद मुबारक !!


------------परी ऍम 'श्लोक'

"असंतोष"

फूलो पर
चलते हुए भी
चुभता रहा
कांटा सीने में

खिलखिलाते हुए भी
छिपे आहों से बहते
अश्रुधाराओ की श्रृंखलाएं
नहीं टूटी ....
तब से अब तक !

हज़ारो तालियों की
गड़गड़ाहट के बावजूद
खलता रहा
उस अकेले
अनमाने ठोकर की गूंज

ख्याति और ऊँचाई
पाकर भी
गहराता गया
इक अकेला दर्द

जगमगाहट के बाद भी
अकेलेपन का अँधेरा
अंदर बढ़ता ही गया

जिंदगी में सब कुछ
प्राप्त करती गयी

लेकिन ........

तुम्हारी कमी का
असंतोष ..............
मुझमे वक़्त के साथ
नासूर बनता चला गया !!

--------------------परी ऍम 'श्लोक'

Sunday, July 27, 2014

बे-अल्फ़ाज़ खत

हमारे बीच
इक खामोश रिश्ता है
जो इतना गहरा और मज़बूत है
जिसे न तो काटा जा सकता है
और ना ही इसकी जड़ो कि
गहराई का अंदाज़ा
लगाया जा सकता है...

दूर होकर भी
इतने करीब हो
कि तुम सांस लेते तो
मैं महक उठती हूँ...

अब तुम्हे
क्या लिखूं इस खत में
समझ नही आता
या यूँ कहूँ
अल्फ़ाज़ नहीं मिलते
अपने जज्बातों को
उनकेरने के लिए... 

ये खाली पन्ना है
भेज रही हूँ
अपने नाम के साथ
जब इसमें कोई अक्षर
न नज़र आये
तो समझ जाना
इसकदर प्यार है तुमसे
कि शब्दकोष में वो शब्द नहीं
जिसे लिख के जता सकूँ
अपने भीतर के
उमड़ते एहसास तुम्हे ..

पढ़ लेना तुम
ख़ामोशी की भाषा
जो दिल से दिल तक का
सीधा संचार है !!

---------------परी ऍम 'श्लोक'

तुम हो साकार स्वप्न मेरा


बरसो की हुई
साधना हो तुम मेरी
गूढ़ अनमोल चाहत हो
भूमण्डल हो मन का
सोच का आवरण हो
पूरा ब्रह्माण्ड हो तुम मेरा

मेरी शक्ति हो
जो तुम हो तो हर शय मेरी
देह के अंदर जलता हुआ
आत्मा का प्रकाश हो
साकार स्वप्न हो मेरा
वो बिंदु हो जिसपर केंद्रित हूँ मैं
 

जौहरी हो तुम जड़ते हो
हीरे-मोती निखार देते हो मुझे
हो तुम लबो का गीत
कंठ का लय
धड़कनो की सरगम
धमनियों में बहते हो
हर सांस में रहते हो

हो तुम ....
तपस्या का वो फल
जिसने जीवन की कड़वाहट मिटा
इसे शहद से भी ज्यादा
मीठा बना दिया है !!
 
---------------परी ऍम श्लोक 

Friday, July 25, 2014

अपना अलग उसूल है...

जाओ नहीं मालूम मुझे
इन बेतुके सवालो का जवाब
किन्तु हाँ!
मैं अपने वज़ूद को
मदारी का बंदर नहीं बनाना चाहती
कि सभ्यता कि डफली बजा-बजा कर
तुम जो भी चाहे करवाते रहो
कर्तव्यों का घुंगरू पहन
अपने इच्छाओ के शव पर
सिर्फ तुम्हारी ख़ुशी के लिए
जीवन भर नृत्य करती रहूँ
मुझे पिंजरे का तोता बना
जितना भी रटवाओ
बस उतने ही शब्द बोलूं
नहीं मानती मैं ऐसे नियम
जो मुझे जाहिल बना दे
नहीं परोस सकती अपने आप को
तुम्हारे मुताबिक
दर्द होगा तो आह! करुँगी
गलत का हमेशा बहिष्कार
क्यूंकि मुझे नहीं सजाना
तुम्हारी ज्यातिति सह कर
महानता का ताज अपने सर पर
मेरा अपना उसूल है
जो कहता है
शोषित की मंडली में शामिल होकर
जीवन की लालसा पालने से बेहतर है
विरोध करते हुए
इक वीरांगना कि तरह
वीर गति को प्राप्त हो जाओ !!!


------------------परी ऍम 'श्लोक'

डोरी कच्ची हो तो पतंग छूट जाती हैं....


डोरी कच्ची हो तो पतंग छूट जाती हैं 'श्लोक'
ऐसे झूठे रिश्तो को निभाने से क्या होता है ..
 
दिल के जहान में जब रोज़ बलबा होता है
किसी और कि ख़ुशी में मुस्कुराने से क्या होता है..
 
तू भी लिखता है जाग कर मैं भी लिखती हूँ रात भर
हाल दोनों सुनाते हैं लव्ज़ सजाने से क्या होता है ..
 
मोहोबत मोहोब्बत होती हैं आँखों से झलकती है
बार बार कह कर जताने से क्या होता है ..
 
तमन्नाओ में शिद्दत रखो जो तुम्हारा है चला आएगा
बार-बार चीखने चिल्लाने से क्या होता हैं ..
 
जिसका दिल में कब्ज़ा हो वो छोड़ा नहीं करते
हाथ किसी के हाथ में थमाने से क्या होता हैं ..
 
आदत है तुम्हारी तो रात को खवाबो में आने कि
आखिर तुम्हे दिन भर भूलने भुलाने से क्या होता है ..
 
 
------------परी ऍम 'श्लोक'

Thursday, July 24, 2014

प्रेम-कहानी

कबसे उस क्षण की
प्रतीक्षा में बैठी थी
और बुने जा रही थी
मन ही मन
इन्द्रधनुष के रंगो से स्वेटर।

डाले जा रही थी
प्रेम के दिए में 
आशाओ का तेल। 

कि कभी तो
मनचाहा अंत होगा
मेरी प्रेम कहानी का भी
कभी तो इन
दहकते सिसकते लम्हों पर
डाल पाउंगी
संतोष का ठंडा पानी
कभी तो लिख पाऊँ मैं
सच्चे प्रेम के निर्मल भाव
जिसके कोमल शब्दों से 
रस टपक रहे होंगे। 

परन्तु मेरी हर आशा टूट गयी
हर दुआ बेअसर रही।

धड़कनो के रंगमंच पर
जिस कहानी का शुभारंभ
तुमने किया था 
उस पर पर्दा गिरा कर 
तुमने इस कहानी को
सुन्दर अध्याय देने कि
सारी संभावनाएं ही खत्म करदी। 

---------परी ऍम 'श्लोक'
 

Tuesday, July 22, 2014

लोग नजाने कैसे दिल में खंज़र रखते हैं ....

लोग नजाने कैसे दिल में खंज़र रखते हैं..
मैं गुस्सा भी रखता हूँ तो आवाज़ो में आ जाती हैं..

कितनी भी छिपाऊं आपबीती मैं ज़माने से ..
उछल कर हाल-ए-हालात मेरे अल्फाज़ो में आ जाती हैं ..

मैं पहुंच जाता हूँ कामयाबी के आखिरी छोर पर ..
फिसल कर फिर मेरी हस्ती आग़ाज़ो में आ जाती है...

दिन भर भटकता है गरीब शहर में जालिम पेट के खातिर
रात को नींद हँसती हुई टूटी खाटो पे आ जाती है

इंसान भी हसरत से आसमा के पंछी कि तरह है
पंख कटते ही ज़मी पे बनते ही परवाज़ो में आ जाती है

वो बेटी घुट कर बाहर निकलने कि कोशिश करती है
जान उसकी परमपराओं के दरवाज़ों में आ जाती हैं

जुल्म का गुरेज जब भी करने का भी मन करता है
माँ कि जान है कि बच्चे कि मुट्ठी में आ जाती हैं

वही धरती वही आसमान वही पानी वही मौसम
दलित के नाम पे फर्क फिर क्यूँ जुबानों में आ जाती है ?

खुदा का रूप वो भी है खुदा का नज़राना तू भी
औरत के नाम पे हरकत क्यूँ इमानो में आ जाती हैं?

---------------परी ऍम 'श्लोक' 

जंगी हैं हम

जंगी हैं हम मौत से लड़ जाते हैं...
हार कर कब्र नहीं खोजा करते...
बिल्ली अगर रास्ता काट जाए...
तो हम सफर नहीं छोड़ा करते...!!

---------------परी ऍम 'श्लोक'

काट दो अन्याय अगर सर उठाये तो....

काट दो अन्याय अगर सर उठाये तो ....
फूंक दो पर जब भी ज्यादा फड़फड़ाये तो...

सूरज को निगल कर शाम का सकून भी चुग ले ...
मशाल जला दो अँधेरा अगर घर में आये तो ...

हवाएं जब तक ठंडक दे इज्जत बक्षो उन्हें...
बंदी बना लो जब भी घरोंदा गिराये तो....


------------परी ऍम "श्लोक"

जिंदगी कांधो पर उठा के चलते हैं...

अपने होंठो पे मोती सज़ा के चलते हैं
मन रोये तो रोये हम मुस्कुरा के चलते हैं

अपने खैरखुआओ को जगा के चलते हैं
दुश्मनो के रंज से दामन बचा के चलते हैं

दर्द का नाम-ओ-निशां मिटाते चलते हैं
मसायल के दौर में भी गीत गा के चलते हैं

आंधियो में भी दिया जला के चलते हैं
बड़े जिद्दी हैं कांटो पर भी गुमां से चलते हैं

हमने सीखा नहीं जीते हुए से भी मात खाना
हम जंग में शेर होते हैं गुर्रा के चलते हैं

जब हम आशिक हो जाएँ तो बात न पूछो
नज़र के सामने से धड़कने चुरा के चलते हैं

अपनी गैरत पे बन आई तो फिर नहीं सुनता
सबको आईना उनके वज़ूद का दिखा के चलते हैं 

कुछ अहम हिस्सा है किसी को दे आया हूँ
तबसे इतनीमान से सफर में हम इतरा के चलते हैं 

होगा कोई लिखने वाला तकदीर यहाँ सबकी
हम खुद की तकदीर अपने कर्मो से बनाते चलते हैं

नेकी के उगे मिले पेड़ जब यहाँ से मैं गुजरूँ
बीजो को कदम-कदम पे गिरा के चलते हैं

जिंदगी अलविदा कहदेगी तो भी गिला नही 'श्लोक'
हम खानाबदोश हैं जिंदगी कांधो पर उठा के चलते हैं



----------------------परी ऍम 'श्लोक'

तुझसे दूर होकर भी तेरी चाहत नहीं छूटी....

बड़ी मसली बड़ी रौंदी मगर हसरत नहीं छूटी
तुझसे दूर होकर भी तेरी चाहत नहीं छूटी

जैसे कोई रंग लगाया हो तूने रूह में मेरी
मैंने लाख कोशिश की मगर रंगत नहीं छूटी

मैंने छत पे जाना बरसो पहले छोड़ दिया है
चाँद का आँगन में उतर आने की फितरत नहीं छूटी

बंद कर के बैठी हूँ दरख्ते और रोशनदान
तेरी यादो की फिर लेकिन वही शिरकत नहीं छूटी

खुद को बदल डाला सर से पैर तक मैंने
मगर दिल पागल की अभी हरकत नहीं छूटी

नदी से रूठ कर किनारो पर मैं बैठ गयी हूँ
लेकिन लहरो के भीगा देने की जहमत नहीं छूटी

तू बादल या बारिश है हवा है या रोशनी
बिना बुलाये चले आने की तेरी आदत नहीं छूटी

----------------------------परी ऍम 'श्लोक'

Monday, July 21, 2014

याद आती है......

भूल जाता हूँ भागादौड़ी में पता अपने घरोंदे का..
मगर जब शाम होती है घर की याद आती  है..

चुका देता हूँ खाने की कीमत होटलों में..
मगर माँ के प्यार की रोटी कीमत याद आती हैं..

महफ़िलो में कुछ पल बीत जाते हैं जैसे-तैसे..
मगर तन्हाई में अक्सर वो जीनत याद आती हैं ..

सुनता हूँ जब भी रातो को बजती हुई शेहनाई..
मुझे अपने महबूब की धड़कन याद आती हैं .. 

शहर में आकर बेशक मैं इत्र से नहाया हूँ
मगर गाँव के मिट्ठी की वो खुशबु याद आती हैं

देखता हूँ जब भी किसी की हँसती हुई गृहस्थी
मुझे चाँद याद आती है वो नूरी याद आती है

सागर की लहरो पर उतरता है जब कोई जहाज
मुझे बारिश में छोड़ी हुई कश्ती याद आती है

धूप से बच कर जब छज्जे की मैं ओट लेता हूँ
मुझे बरगद की छाया की ठंडक याद आती है

शौहरत के खातिर खुद को कितना बदल आया
अब अक्सर मस्त-मौला सी वो जिंदगी याद आती है

यहाँ जब मतलबी लोगो से कभी रूबरू होता हूँ
मुझे अपने लोगो की मोहोब्बत तब बहुत याद आती है

------------------परी ऍम 'श्लोक'

 

तुमसे प्यार करके .......

बड़ा करार पाया है दिल ने तुमसे प्यार करके ..
फिज़ाओ में बहार आया है तुमसे प्यार करके ..

फलक पे आ गयी हूँ आसमान पे छा गयी हूँ ..
चाँद-तारे आँचल में सिमट गए हैं तुमसे प्यार करके..

भीगी सी ख्वाइशें हो गयी हैं महकने लगे हैं ख्वाब...
रहमते बरस गयी हो जैसे तुमसे प्यार करके ..

अच्छा है या बुरा इससे कोसो दूर हूँ मैं ..
नई सी सोच खिल उठी है तुमसे प्यार करके...

तुझे देखकर हर गमो का चेहरा फीका पड़ जाता है
सकून का उम्मीद पा लिया है तुमसे प्यार करके

सूखे हुए सेहरा में जबसे दरिया बन के तुम आये
मैं फिर से जी गयी हूँ तुमसे प्यार करके

इक नयी खूबसूरत पहचान मिली गयी है मुझको 
तुममे खुद को पा लिया है मैंने तुमसे प्यार करके

घेर लेते हैं मुझे अँधेरी रात में तेरी याद के जुगनू
नींद रातो का उड़ा लिया है तुमसे प्यार करके

तेरे बिना एक पल भी हज़ार दिन से लगते हैं
इक रोग ये भी पा लिया है तुमसे प्यार करके

तेरी तारीफों के हर्फ़ से इस जनम की डायरी भर दी
नाम तेरा नगमो सा सज़ा लिया है तुमसे प्यार करके

----------------------परी ऍम 'श्लोक'

Sunday, July 20, 2014

बार-बार इश्क़ की दुहाई न दीजिये.....

बार-बार इश्क़ की दुहाई न दीजिये..
इतनी भी खूबसूरत बेवफाई न कीजिये...

नज़रो के लव्ज़ ही काफी हैं पढ़ने को 'श्लोक' ..
लबो को तकल्लुफ देकर गवाही न दीजिये..

काटे से भी न कटे दर्द का शज़र कभी ..
ऐसे तो दिल की मिटटी में बिवाई न कीजिये ..

लिखावट मेरे अहसासों की सबको खबर पड़े ..
इतनी भी गाढ़ी कलम की रोशनाई न कीजिये ..

हिस्सा जो रोशन है चाहत का रोशन रहने दो ..
आंधियो के तौफे में तो ये कमाई न दीजिये ..


------------------परी ऍम 'श्लोक'

Saturday, July 19, 2014

संवेदनहीनता


चीख सुनके
बहरे हो जाना
मौन होकर
दार्शनिक बने रहना
गूंगे हो जाना
जुबान पर ताला लटका कर
मानवता तो जैसे
कोढ़िया गयी है
इंसानो के बीच में
कोई नंगा करता है
कोई उसपे चर्चा करता है
लेकिन तन ढांपने का साहस
इन कायरो में नहीं
जंगा गया है कर्तव्य
घोट दिया है नेकियों का गला
अपनी मतलबपरस्ती में
भूल गए
जिस अवस्था में मैं हूँ
वो कभी भी
किसी भी घर की स्त्रियों को
अपने चुंगल में जकड़ सकता है
बनो कायर पहनो चूड़ी
बैठो छिप कर
जो लोग तुम्हारी
आवाज़ पे भाग खड़े होते
अपने डर से 
बढ़ाओ उनका हौसला
हीन कर्मो कि चाक पर
दीन समय के रूप को आकार दो
आने वाली नारी पीढ़ी को दो
गंदे मानसिकता का तौफा 
अखबारों में पढ़ो
टीवी पे देखो मेरी दुर्गति
करो मोमबत्तियों का मार्च
चंद हमदर्द लोगो कि अगुवाई में 
दया दिखाओ अपनी
लेकिन तब क्या फायदा आखिर ?
जब
तुम्हारी संवेदनहीनता
मुझे मृत्यु के मुख में डाल दे
मान को तितिर-बितिर करके...!!
 
------------------परी ऍम 'श्लोक'

Friday, July 18, 2014

नारी तू नारायणी.....कभी काली कात्यायिनी !!

बनो क्रूर
और चलाओ छप्पन छुरियाँ
सहूंगी मैं बिना उर्फ़
होगी मेरी
एक चुप पर हज़ार चुप
करो घृणा बनाओ लाख दूरियाँ
अपशब्द कहो स्तब्ध करदो मुझे
लगाओ अपना सम्पूर्ण पराक्रम
जताओ अपना पुरुषार्थ
अपने अहंकार के
पाषाण तले दबोच दो मुझे
करो अपनी मानसिक संतुष्टि
निभाऊंगी कदाचित अपना धर्म मैं
अपने दायित्व से
पल्ला झाड़ना नहीं सीखा मैंने
दिखाओ अपनी छोटाइयां
लेकिन उठूंगी मैं
जब तुम
अत्यधिक नीचे गिर जाओगे
मानवता को छेदिल कर दोगे
मेरे मन के भीष्म को
तीरो की शय्या पर सुला दोगे
सहन की सीमाओ को नाँघ जाओगे
उस पल विरोध का
बिंगुल मैं भी बजाउंगी
और तुम्हारी अति के
छाती पे चढ़
करुँगी अपने अधिकारों की
आसमानी ऊंचाई का
धव्ज़ा रोहण
और सम्मान से 
करुँगी जयघोष
गर्वानित सुर में
गाऊँगी....
नारी तू नारायणी
कभी प्रेमिका....कभी माता
तो कभी काली कात्यायिनी !!!!


----------------------परी ऍम 'श्लोक'

 

Thursday, July 17, 2014

"बादल बरसे सब जन हर्षे"

भीग जाने दो
अब ये तन मेरा
बहुत मुद्दत से मिला है
मुझको संग तेरा !

मन की बात
बादल से कहा
जब धरा ने
नाचा मोर
और कूका पपीहा !

फूल पत्तिया
ख़ुशी में नहायी..
मेंढक ने तालाबों में
टर-टर मचाई...
खुले बादल तले
मैं थी आई...
झूला सावन का
नीम की टहनियों पे
डालकर झूल आई !

धान ने डाला खेतो में डेरा..
हर्षाया किसान का भी जीयरा..
लगा था शाम हो आई है..
काले बादल में छिपा था
सूरज का उजेरा !

बाग़-बगीचे सब हरियाए..
प्यासे पंछी बड़ी राहत पाये..

रिमझिम खूब बरसाया है पानी
मेरी बिटिया भी खूब नहानी
देर आये मगर फिर भी आये तो
सुनो! बादल
तुम्हारी बड़ी मेहरबानी!! 


-------------परी ऍम 'श्लोक'

Wednesday, July 16, 2014

"अपनी जगह ढूँढ लेते हो"

मैं हर वक़्त तुम्हे भुलाने कि कोशिश करती हूँ
तुम हर वक़्त याद आने कि वजह ढूँढ लेते हो ...

मैं तुमको मिटाने को अतीत कि किताब फाड़ती हूँ 
तुम फिर आज के पन्नो में अपनी जगह ढूँढ लेते हो

अपने जख्मो कि जलन को आहो से ठंडा करती हूँ
तुम फिर मेरे खातिर नयी सज़ा ढूँढ लेते हो.. 

सोचती हूँ तुमसे तालुक तोड़ कर फासला बना लूँ
मगर तुम मेरे कदमो के निशान ढूँढ लेते हो..

मैं मुस्कुरा के अगर सुबह के दहलीज़ पे दस्तक दूँ
तो तुम दर्द का फिर इक नया सिलसिला ढूँढ लेते हो..

आईने के शक्ल में पहले मुझे इत्मीनान से तराशते हो
फिर तोड़ देने को पत्थर भी......बड़ा ढूँढ लेते हो !!



---------------परी ऍम 'श्लोक'

Sometime........



Sometime I have nothing to say ....
Sometime I have more things to share...
 
Sometime I lost myself in you completely ...
Sometime I found myself in your eyes ..
 
Sometime when I feel I am nothing...
That time you make me feel so special ..
 
Sometimes when I feel….. I am alone
You hold my hand & realize
you are always with me at any cost ....

Actually at that time
I realize how much sometime is important in my life…….

_______________Pari M. 'Shlok '

Tuesday, July 15, 2014

धरा और आकाश कि अनबन...

सिलसिला
ऐसा ही चल रहा है
कई रोज़ से
रोज़ बादल घुमड़ कर आता है
तरसाता है
और
फिर छट जाता है
तरेरने लगता है सूरज।

पंछियो का व्याकुल शोर
सुनते ही बीत रहा हैं
इस गर्मी ये दिन।
शीतल हवाएं भूल गयी हैं
मेरे घर आँगन का पता जैसे। 
रोज़ अनुमान लगाती हूँ
अब तो सावन भी शुरू है
मानसून चल पड़ा होगा
आएगी आज पक्का बरसात।

पर
जाने क्या अनबन हुई है ?
धरा और आकाश के बीच
कि धरती कबसे तड़प रही है
सूख के चटक गयी है
और बरसात नही होती
नाराज़गी कि उमस को
जर्रा-जर्रा झेल रहा है। 

कबसे पूछ रही हूँ दोनों से
कारण क्या है बताओ न
किन्तु दोनों ही चुप हैं
अब ऐसे में मैं
कैसे सुलझाऊँ ये अनबन ?


------------------परी ऍम 'श्लोक'

Monday, July 14, 2014

मुझे जब तेरा ख्याल आता है ............


मुझे जब तेरा ख्याल आता है
जहन में इक सवाल आता है

तू मेरा है या फिर कोई छलावा है
बदल-बदल के जो तेरा किरदार आता है

रह रह के मैं टकरा जाती हूँ
शक का जब ये दीवार आता है

रो पड़ती हूँ तब मैं अचानक ही
राहो में सपनो का मज़ार आता है

जख्म जिस्म का हो है इलाज कई
क्या हो जब दिल होकर बीमार आता है

इश्क़ के जंगल में ही ऐसा होता है
शिकारी खुद ही शिकार हो आता है

-------------परी ऍम श्लोक

"खामोशी के बाद का तूफ़ान"

मेरे विरोध के लिए 
माँ ने भी मेरी पीठ
कब थपथपाई है
वो बोली
कि खता किसी कि भी हो
समाज ने औरत पे ही
उंगली उठायी है। 

कल किसी ने मुझे छेड़ा
मैंने उसे थप्पड़ जड़ दिया
अफवाह यूँ फैली कि
भाभी भी जुबान पे
सौ सवाल उठाकर ले आयी है।

किसी के साथ देखा
तो बवाल बना दिया
जैसे मेरी इज्जत
किसी के घर कि जमाई है।

घर से बाहर निकलू
तो जन-जन को खटकु
समझ नहीं आता कि आखिर
मैं कौन सी सीमाएं
अपनी नाँघ कर आयी हूँ।

चुप रहूँ तो मैं अच्छी बेटी
सब सहूँ तो अच्छी बहु
जुर्म सहकर भी उर्फ़ न करूँ
तो अच्छी पत्नी
कौन है वो अनपढ़
जिसने ये
नियमावली बनायी हैं।  

जाओ बदलती हूँ
बरसो से मेरे हक़ में
खींची ये लकीर।

मैं हूँ विरोधी
विरोध करती रहूंगी
अपने कदमो तले
हर ज्यातिति कुचलती रहूंगी। 

ये खामोशी के बाद का तूफ़ान है
कहाँ कभी कोई चट्टान
फिर तुफानो को रोक पायी है।!!

------------परी ऍम 'श्लोक'

 

वहीँ हूँ मैं आज भी.........!!

लड़ी है मैंने भी एक जंग
मेरे अपने हृदय से
किया है संघर्ष
बहुत मुश्किल था
मेरे लिए भी वो दौर
कटे थे उन दिनों
एक घड़ी में
कई हज़ार लम्हे  
थम गयी थी मैं भी
शून्यकाल का वो दौर
मुझसे भूला नहीं जाता
सोचती थी मैं अक्सर
शक्ल क्या होगी जिंदगी कि
तुम्हे खोकर
संभवत:
बर्फ सी जम ही जाउंगी मैं
तुम्हारा साथ
एक ओर मज़बूत कर रहा था मुझे
दूसरी ओर शक्तिहीन
पर तुम्हारे बाद
संघर्ष बन गया सब कुछ
यहाँ तक ही मेरी हर इक सांस
अहसासों के जिस चक्रव्हीव में
मैं फस गयी थी
उससे बाहर आने का रास्ता
कदाचित मेरे पास भी नहीं था
खैर
ऐसे ही कभी सुबह हुई
कभी शाम ढली
तो कभी रात ने सब ढक दिया
हाँ!
बेशक रुकी नहीं हैं जिंदगी
किन्तु ये युद्ध भी विराम में नहीं है
चल रहा है रुक-रुक कर
यादो कि बाण से पीड़ा उठा देता है
इस युद्ध ने जीवित छोड़ दिया है मुझे
किन्तु लंगड़ा बनाकर
और मैं
इस अपाहिज जिंदगी को
कोई न कोई वजह कि बैसाखी देकर
चलने के लिए प्रेरित करती हूँ
आज भी !!


---------------परी ऍम 'श्लोक'

"चुगलखोर"

चुगलखोर व्यक्ति
अक्सर
कायर प्रवृति का होता है
सामने आकर
स्पष्ट रूप से
बात रखने का
साहस नहीं होता उसमे
ऐसे व्यक्ति युद्ध क्षेत्र के
उन लोगो में से होते हैं
जो पीठ पीछे वार करते हैं
ऐसे लोग अपने ही घर में
दीमक से होते हैं
जो सारा सकून चाट जाते हैं
और बाहरवालों के लिए
चटपटी मसालेदार बात पेश
करने का साधन
उनके मुख पे हमेशा
मुस्कराहट होगी
और बातो में
ज़रूरत से ज्यादा मीठापन
किन्तु भीतर कड़वाहट और ईर्ष्या
इनके मीठे स्वभाव की वजह से
कीड़े-मकोड़े जैसे लोग
इनसे चिपकते जाते हैं
अपने आप को अत्यधिक
चतुर समझते हैं
किन्तु मूर्खता का एक
उत्तम उदहारण यही हैं
संकीर्ण मानसिकता के
ऐसे व्यक्ति
अपनी भड़ास
चुगली से निकालते हैं
उनका नितदिन बेकार की
फुसफुसाहट में निकल जाता है
इन लोगो से कान के कच्चे लोग
अत्यधिक नुक्सान पाते हैं
इनके जीवन का लक्ष्य
केवल अपने आपको
कैसे भी संतुष्ट रखना होता है
निरंतर इसी कोशिश में जुटे ये लोग
अपने कीमती समय को
बिना किसी अफ़सोस
धुंए सा उड़ा देते हैं
जो बुद्धि अच्छे कार्यो में
खर्च किया जाना चाहिए
उसे ऐसे ही कुर्बान कर देते हैं
व्यर्थ की वार्तालाप और फुसफुसाहट में !!!



-------------------परी ऍम 'श्लोक'

 

Saturday, July 12, 2014

"संबंध"

वादा
नहीं करुँगी
सुना है
वादे हो
या फिर
कसमे
सब अक्सर
टूट जाया करते हैं
मगर
हाँ !
करुँगी ज़रूर
कोशिश
अपने बूते से भी ज्यादा
संस्कारो पे
अडिग रह
हमारे सम्बन्धो को
सांस लेने के लिए
खुशियो का
वातावरण दे सकूँ
तुम्हारे
विश्वास कि
पहाड़ी पर
स्वयं को
सर्वपरी रख सकूँ
भेद न सके
कोई
शक का
धनुष जिसे...

बस इतना
कहूँगी तुम्हे

हमारे बीच के
अनबन कि
सिलवटों को
प्यार के
इस्त्री से
हटाती रहूंगी
मैं तुमसे
जनम-जनम का
ये संबंध
निभाती रहूंगी!! 
.....................परी ऍम श्लोक 

Thursday, July 10, 2014

"अचानक"

मन को 
गुदगुदाती शरारते
पता नहीं चला
कब?
अचानक
धुँआ हो गयी
जिंदगी के गुलशन में
जवानी के फूल
खिल गए
जिम्मेदारियों के
पुल पे कदम रखते ही
समझ कि 
ऊंचाइयों को छूते हुए
गहराइयो में डालती गयी
कई मासूम चाहते
काबिलियत का इम्तिहान
हर कदम चलता रहा
शाम मेहनत में
रात चिंता में बिसर गयी
ऐसा लग रहा है मानो
वो अरमानो कि कस्ती मैंने
बचपन में बारिश के पानी में छोड़ी थी
वो मुझसे बहुत दूर
चली गयी है
खुद ही सजाती हूँ सपने
और चढ़ाती हूँ
खुद ही उनकी बलि
सबके होने का
तो भलीभांति
आभास है मुझे
शहद ख़ुशी का
सबको बांटती चली गयी 
किन्तु इस तमाम
हलचल में
खुद को ही कहीं भूल गयी हूँ !!!

----------------परी ऍम 'श्लोक'

कैसा नियम है ये ??

शिकारियों के
शिकार से
आज फिर
हरियल जोड़ा
अचेत हो
आ गिरा ज़मीन पर।
जिनकी उड़ान के
हिस्से में
जाने कब
वो जमीन की
सतह लिख दी गयी
जिनका जीवन भर
उनकी कल्पना से
सरोकार नहीं था।
सारे परिंदे
अपने घोसलों में
खामोश होकर बैठ गए
नियम का हुंकार भर।
व्यर्थ में कौन बोलेगा ?
आखिर कौन
बेकार में शिकार होना चाहेगा ?
जान तो सबको प्यारी है ?
शिकारियों को
इस अपराध पर
ग्लानि तक नहीं।
वो फिर से
पैनी निगाहो से
ताड़ रहे हैं
और फिर से तैयार हो गए हैं
दूसरे नए जोड़े कि
नृशंशय हत्या करने को।
चल रहा है
यही सिलसिला निरंतर
नियम और
परम्परा के दम पर।
आते रहते हैं
इसी कहानी के अन्तर्गत
हर दिन नए-नए किरदार !!


....................परी ऍम 'श्लोक'

(ऑनर किलिंग पर लिखी रचना )

(नियम.. कानून...ये इंसान द्वारा ही बनाएं गए है जिसे इंसान ने अपने बेहतरी के लिए बनाएं हैं किन्तु यदि इन्ही के नाम पे इंसान किसी दूसरे इंसान के प्रति हिंसक हो जाए तो असल में वो नियम या तो संशोधन के योग्य बन जाते हैं या फिर समाप्ति के... माफ़ करियेगा यहाँ मेरा उद्देश किसी को ठेस पहुँचना नहीं है परन्तु जो नियम अपराध को जनम देते हैं उनको उनको लगाम लगवाने का है क्यूंकि हाँ ! मैं विरोधी हूँ !!)

Wednesday, July 9, 2014

'माँ' तुम्हारा स्नेह आत्मस्पर्शी है..

"माँ"
तुम्हारे आँचल के
साये से बहुत दूर
आ बसी हूँ मैं   
कंक्रीट रेत से
बने इस घर में।
किन्तु फिर भी
ताज़ा फूलो से लदे हुए
महकते लॉन में
समंदर की ठंडक देती
इन खिड़कियों में
यहाँ के सुन्दर नज़ारो में
अब वो मिठास कहाँ
जो मायके के मिट्टी के आँगन
और
अशोका के पेड़ की छाया में थी। 
सब सुख-साधन के बाद भी
कमी सी है.…बहुत खारापन है।
खलता है तुम्हारा न होना 'माँ'
याद आती हैं
तुम्हारी लोरी..तुम्हारा दुलार
मेरी किलकारियों से
तुम्हारा अंदर तक भीग जाना
कितनी भी बड़ी चोट को
अपने स्पर्श से उड़न-छू कर देना 
मेरी जली रोटियों को
बड़े प्रेम से खाना
और जाकर सबसे बखान करना
मेरी गलतियों पे भी
बड़े प्यार से समझाना।
'माँ' तुम्हारा स्नेह तो आत्मस्पर्शी है
पर अब क्या ?
हर गलती को अपने काँधे ही ढोना  है
हर पीड़ा को अपने देह पे सहना है
हर उदासी को
मन पे झेलना है अकेले ही।
आंसुओ को आँखों में दबाना है
और हर हाल में मुस्कुराना है।

लापता हो गयी है कहीं
नन्ही 'परी' आपकी 
क्या करूँ ?
बेटी से बहु जो बन गयी हूँ। !!


.............................परी ऍम श्लोक

जवानी ने तौफे में सौ बीमारियां दे दी..

जवानी ने तौफे में सौ बीमारियां दे दी ..
इस दिल को नजाने कितनी लाचारियां दे दी..
 
मालूम था कि रास्ता बेहतर है कौन सा..
मगर फैसलों ने ता-उम्र की दुश्वारियां देदी..
 
सपने बहुत खूबसूरत नज़र किये गए हमें..
हकीकत ने दर-दर कि मारा-मारियां दे दी..
 
रातो को बेचैनियाँ दिन को भी नहीं आराम..
हर मौसम में हमें कितनी ही बेक़रारियां दे दी..
 
दर्द के नगमे..........चाहतो के गीत-ग़ज़ल..
इस दौर में मरने मिटने कि तैयारियां दे दी..
 
अब माँ नहीं महबूब का आँचल अच्छा लगता है..
नए ज़स्बातो के ज़ंज़ीरो में गिरफ्तारियां दे दी..
 
सब कुछ लूटा देने के एवज़ में हमें 'श्लोक'..
कुछ पल कि ख़ुशी और चंद खुमारियां दे दीं..
 
हाथो में जिंदगी कि अहली किताब देकर..
नाज़ुक कांधो पे हज़ारो जिम्मेदारियां दे दी..
 

---------------परी ऍम श्लोक

मन....

असहाय हो जाती हूँ
जब रहता नहीं
मन पर
मेरे स्वयं का
नियंत्रण..
खींची नहीं जाती
इसकी लगाम
गिरगिट की तरह
बदलता रहता है
अपना रंग
और
ये हदो को पार करके
पैदा कर देता है
अजीब सी परिस्थिति
भागती रहती हूँ मैं
इसके पीछे-पीछे
व्यर्थ ही
समझ नहीं पाती
इसकी मंशा
और
जब समझ पाती हूँ
तो दोष खुद को
देने के अलावा
कोई दूसरा
विकल्प नहीं रहता !!!

____________परी ऍम श्लोक

Tuesday, July 8, 2014

ख़ुशी का गिरोह हूँ गम को चुराता हूँ...

ख़ुशी का गिरोह हूँ गम को चुराता हूँ...
काँटों की राह पर चल के भी मुस्कुराता हूँ ..

जब होता हूँ अकेला....शब्दों की महफ़िल बुलाता हूँ..
मेरे-तेरे अहसास घोल के इक नई ग़ज़ल बनाता हूँ..

टूटे-बिखरे अरमानो को चुन-चुन के उठाता हूँ..
अस्थि-पिंजर जोड़ के नया ख्वाब फिर से सजाता हूँ ..

पीछे जो हुआ हो गया यादाश्त कम है भूल जाता हूँ..
कल से सीख कर नयी दिशा कि ओर बढ़ जाता हूँ ..

जिंदगी अनमोल है हर दिन को जिए जाता हूँ...
दुश्मनी किसी से नहीं हाथ दोस्ती का ही बढ़ाता हूँ..

आवारा भंवरा हूँ गुलशन-गुलशन प्यार बाँटता हूँ..
फूलो कि पंखुड़ियों में रंगत और मिठास छोड़ आता हूँ..


______परी ऍम 'श्लोक'

"बेउम्मीदी को कहीं गुमराह कर देते हो तुम"

 
बेउम्मीदी को कहीं गुमराह कर देते हो तुम..
दुःख मेरे हिस्से का अधमरा कर देते हो तुम..
 
कभी कभी जला के ख़ाक कर देते हो मुझे..
तो कभी कभी नया-नया सा कर देते हो तुम..
 
नजाने क्या है मगर कोई मीठा सा अहसास है..
मुझे छूकर मुझमें जिसे रवा कर देते हो तुम..
 
जहाँ भी देखूं तेरी ही झलक मिलती है मुझे..
हर ज़र्रे को अपना आइना कर देते हो तुम..
 
मुझे ठेस लगने से पहले ही मेरे जख्मो की..
हर दफा आकर मेरी दवा कर देते हो तुम..
 
मेरी ओर आने वाली तमाम मुश्किलो को..
मेरी चौखट से ही रफा-दफा कर देते हो तुम..
 
मतलब परस्त दुनिया में जब कहते हो कि तुम मेरे हो..
मेरी खुशियाँ कई गुना कर देते हो तुम ..
 
कदम-कदम पे अपनी बेपनाह वफाओ से..
रिश्तो के असर को और गहरा कर देते हो तुम..
 
अपनी नज़र से मुझको नूर बक्शते हो...
मेरे रंग रूप को जैसे कि अप्सरा कर देते हो तुम..
 
मेरे हर वक़्त को अपना हिस्सा देकर..
जिंदगी का हर लम्हा बेहद महंगा कर देते हो तुम !!
 
-----------------------परी ऍम श्लोक

Monday, July 7, 2014

"खुदको हमदर्द कहने वाले यूँ रूठ गए"

खुदको हमदर्द कहने वाले यूँ रूठ गए...
नजाने हम कहाँ रिश्तो में चूक गए....

घर बना के मन कि झूलती शाख पे वो..
लगा के माचिस फिर उसी को फूंक गए...

सबके उम्मीदों को हरा करने में 'श्लोक'...
नजाने कब सपनो के बाग़ सूख गए...

सबको मनाने में और अहमियत देने में..
खुद के मायने ही बहुत पीछे छूट गए...

दर्द में भी मुस्कुराने कि आदत में..
आंसू सब्र कि समंदर में कहीं डूब गए..

जिंदगी क्या सौपी हमने उनके हाथो में ...
वो सम्मान मेरे हक़ के सीमांतो से लूट गए..

वक्त को मुट्ठियों में लेकर हम थे चलने वाले ...
झूठे नियमो कि आंधियो से पात सा टूट गए..


 --------------परी ऍम 'श्लोक'

इंसानियत भिखारी हो गयी है.....!!

इंसानियत भिखारी हो गयी है.....
गुनाहो की मदारी हो गयी है.....

नहीं दिखता चेहरा किसी का साफ़...
निगाहो की लाचारी हो गयी हैं.....

बिकने लगे हैं लोग यहाँ बात-बात पे
पैसो से वफादारी हो गयी है....

झूठ की नौकरी करने वाले सब हैं...
सच की तो बेगारी हो गयी हैं....

अपने स्वार्थ में अंधे हुए लोगो कि... 
अपने ही फ़र्ज़ से गद्दारी हो गयी है...

सोशल नेटवोर्किंग साइट्स पर सब व्यस्त हैं..
कि अब रिश्तो से मगझमारी हो गयी हैं...

उजालो कि ओर जाते ख्वाइशों के खातिर...
हर गली खुशियो कि अंधियारी हो गयी हैं... 

नफरतो का साथ उम्र भर निभाया गया..
मोहोब्बत से जिनाकारी हो गयी है...

ईर्ष्या कि बलि चढ़ रही है जिंदगी...
हर हाथ में कटारी हो गयी है....


 ---------------परी ऍम 'श्लोक'

Friday, July 4, 2014

"औरत अस्तित्व का सम्मान करती हूँ"

अपनी इस काया पे गुमान करती हूँ..
मैं औरत हूँ..
अपने अस्तित्व का सम्मान करती हूँ..

जिन पुरुषो ने हमको रौंदा ...
हमने उनको चाहा और पाला पोसा.. 
जिसने सपनो को बरसो गोदा..
दिया हमने उन्हें परमेश्वर का ओंदा..
स्तन का दूध पी जो बड़े हुए
आज वही सीने पे नज़र गाड़े हैं खड़े हुए
जो हमको मलिन बनांते रहे
हम उनकी खैर मनाते रहे
मैं अपनी सहनशक्ति को सलाम करती हूँ..

मैं औरत हूँ..
अपने अस्तित्व का सम्मान करती हूँ
इस देह से नए जीवन का निर्माण करती हूँ
मैं औरत हूँ !!!


----------परी ऍम श्लोक

पत्थर ही प्यारा है....!!

बहुत दूर तक आँखों के लिए दिलकश नज़ारा है.....
मगर मन कि मौजो को वो पत्थर ही प्यारा है....!!

------परी ऍम 'श्लोक'

तुम्हारी हाँ ! और न ....

नजाने तुम सच बोलते हो...
या फिर
तुम्हारी आँखे...
इक ओर इंकार है कि
खत्म नहीं होता..
एक के बाद एक 
बनावटी बातो का
सिलसिला...
निरंतर चलता ही रहता है 
तो दूसरी तरफ इज़हार
जो ना चाहते हुए भी
झलती हैं
तुम्हारी आँखों के दर्पण में..
ओर कह जाती हैं..
चुप रहकर भी
तुम्हारी मनोदशा...   
समझ नही आता
किस बात को ज्यादा तवज्जु दूँ
वो
जो तुम छिपा रहे हो
या फिर
वो
जो मैं देख पा रही हूँ
तुम्हारी हाँ !
और न
इन दोनों कि स्थिति
खोना बस मुझे ही है !!!


_______परी ऍम "श्लोक"

सावन के झूलो में अब बात कहाँ सुहानी है....

सावन के झूलो में अब बात कहाँ सुहानी है....
तेरे बिना तो हर मौसम जीना ही बेमानी है ...

तू क्या जाने बात जिया की के कितनी तूफानी है...
कभी-कभी इन आँखों में आ जाता सुनामी है.... 

तेरे प्रीत ने बिखेरा रंग हर ओर हरिया धानी है....
रगड़ा बहुत मगर न छूटा ऐसी अमिट निशानी हैं....

खेल-खेल में कश्ती डाला था बारिश के पानी में
न डूबी न पार लगी मझधार में इक कहानी है

इन बूंदो के साथ हुई जैसे पीड़ा की आगमानी है
तन के साथ मन जले ये सब तेरी ही मेहरबानी है

कोयल कूके...नाचे मोर हर ओर नयी रवानी है
बस इस हाल में खुशिया भी हुई हमसे बेगानी हैं

वक़्त रुका न हम आगे बढे राहे वही अंजानी है
नए दौर में भी अपनी....चाहत बड़ी पुरानी है

_________परी ऍम 'श्लोक'

Thursday, July 3, 2014

तेरे-मेरे दरमियां...........!!!


तेरे मेरे दरमियां बाते थम सी गयी हैं
तेरा मेरे दरमियां खामोशियाँ जम सी गयी है

तेरे मेरे दरमियां हलचलें रुक सी गयी है
तेरे मेरे दरमियां चाहते बुझ सी गयी हैं

तेरे मेरे दरमियां ये कौन सी दीवार है
तू मेरे सामने हैं और हम लाचार हैं

तेरे मेरे दरमियां वो सिलसिले नहीं रहे
अहसासों के रवां वो काफिले नहीं रहे

तेरे मेरे दरमियां यकीन कि रोशनी नहीं
तेरे मेरे दरमियां हम खो गए हैं कहीं

तेरे मेरे दरमियां लापता हैं आशियाँ
जुदा रास्तो पे चल दिए हैं हम बारहा

तेरे मेरे दरमियां वो सादगी नहीं रही
वो मौसम..बारिश और फ़ज़ा रूमानी नहीं रही

तेरे मेरे दरमियां वो तिश्नगी नहीं रही
दिलो में जस्बात और वो दीवानगी नहीं रही

तेरे मेरे दरमियां अब यादो कि पहेली है
तू हैं वहां तनहा और हम यहाँ अकेली हैं 

तेरे मेरे दरमियां बची इक कहानी है
न तू सुनता है न मैं कहती हूँ इतनी बेमानी है





________परी ऍम 'श्लोक'

"मौसम हो या वक्त हो बदलते रहना चाहिए"

मौसम हो या वक्त हो बदलते रहना चाहिए...
हालात के हिसाब से ढलते रहना चाहिए..

ए दोस्त क्या रखा है नफरतो के कांच ढोने में..
प्यार का हथियार लेकर चलते रहना चाहिए..

चार दिन कि जिंदगी में किसी से मुँह फेरना कैसा..
हर किसी से मुस्कुरा के मिलते रहना चाहिए..

क्या मिलेगा जला के इन गुलिस्ताओ के गुल..
कांटो के सीने पे फूल खिलते रहना चाहिए..

सच्चाई को रोशनी से रोशन सबका ईमान हो..
हर किसी के दिल में ये मशाल जलते रहना चाहिए..

तुम घबराना नहीं सफर में ढल गयी जो शाम..  
बात ये है कि सुबह का सूरज निकलते रहना चाहिए..

________परी ऍम 'श्लोक'
 

"नारी होने का है अभिशाप"

नारी कि ये दुर्गत
उसके मार्मिक हृदय का तौफा है
या फिर उसकी कमज़ोरी कि निशानी
उसके देह के वैभव कि लूट है
या उसकी मूर्खता का काला चित्रण
उसकी सहनशीलता है...उसका प्रेम है....
उसका समर्पण है.....मासूमियत है 
उसकी चूक है या फिर उसका मूक होना
बार-बार होती हैं तार-तार
कभी उसके सपने...
कभी खवाइश...तो कभी अस्मत..
परोस जाती है वो देह व्यापार में
कभी रिश्तो में बंध....तो कभी प्यार में.....
त्रिस्कृत होती हैं
कभी अपनी कुरूपता के कारण
कभी विधवा होने पर....
तो कभी वैश्य होने पर
उन्हें सामाजिक तौर पर नाकारा जाता है
मगर फिर भी नहीं घटता
उसको भोगने कि लालसा में
पुरुषो का जमघट उसके दर से
आखिर ये कैसी 
नारी कि अग्नि परीक्षा का अध्याय है 
सदियों से लिखा जा रहा है
बस इसके किरदार बदलते रहते हैं
कभी इसमें सीता जलती है
अपनी पाकीज़गी को सिद्ध करने के लिए ..
कभी अहल्या छली जाती है
और फिर पत्थर होने का अभिशाप पाती है
कभी हार दिया जाता है खेल में
सम्मान द्रोपदी का........
कभी दामिनी.........कभी यामिनी..
कभी मैं.............कभी तू......
कानो में पड़ता है शब्दों का जलता कोयला
तो कभी तन पे डाला जाता है तेज़ाब
कौन से कमाएं है मेरे अस्तित्व ने पाप
या फिर ये केवल नारी होने का है अभिशाप

 ________परी ऍम 'श्लोक'

Wednesday, July 2, 2014

"मैं तुम्हे नहीं जानती"

अनाहक ही मैं
इस अहम् में फिरती हूँ...
या फिर यूँ कहो कि
एक पागल यकीन है...
जो तुमपर है मुझे
तुम्हे मैं कितना जानती हूँ
उतना तो तुम भी खुद को
नहीं जानते होगे

और
फिर ....
अचानक ही तुम्हारा
इक नया रूप
मेरे सामने आ जाता है

मैं जितना तुम्हे पढ़ती हूँ
उतने ही प्रश्न
खड़े होते चले जाते हैं

मैं फिर सोचने लगती हूँ
शायद ! सही है 
इंसान के बारे में जान पाना
बहुत मुश्किल होता है
अन्धविश्वास था तुमपे मेरा..

तुम्हारे बारे में जो मुझे पता है
उससे कहीं ज्यादा हो तुम
मैं तुम्हे समझती तो हूँ
लेकिन तुम्हे मैं
बिलकुल नहीं जानती !!!


_______परी ऍम 'श्लोक'
 

"सफलता की दौड़ में इंसान तनहा"

चुनी है मैंने वो राह
जिसमे हैं कांटे..कंकड़..पत्थर
और उठी हैं लोहे की दीवार..... 
छूट जाएगा इस सफर में
खास लोगो का झुण्ड मालूम हैं..
किन्तु 
मेरे इरादे हैं तलवार की धार..
मैं चलूंगी बिन माने हार
पाउंगी मंज़िल निश्चय ही
निसंदेह
ये दुनिया एकदम गोल  है 
इक दिन वो झुण्ड होगा मेरे सामने
मेरे लिए तालिया ठोंकता हुआ
जल-भुन के राख होता हुआ
किन्तु मैं उनसे
कोसो फासले पर खड़ी होऊंगी
जहाँ पहुँचने के लिए
करना पड़ेगा उन्हें
वही से शुरुआत जो मैंने की थी
खोना होगा वो जो मैंने खोया था
होना पड़ेगा उन्हें अकेला
जब कोई साथ नहीं देता
कितना छेदता है ये शब्द
जब सुनना पड़ता है
"बाप की औकात नहीं
बेटी के सपने देखो आसमानी हैं
चली है चाँद पे घर बनाने"
सहना पड़ेगा पीड़ा का हर दौर
लगाना पड़ेगा स्वयं को
दिलासे का मलहम
तब समझ पाएंगे कहीं 
मेरी सफलता की ये ईमारत
टिकी हुई है
अनगिनत समझौतों के मज़ार पर !!!


_________परी ऍम 'श्लोक'

Tuesday, July 1, 2014

दायरों के पार .......


गहराईयाँ

खारे पानी से भरे
दूर से आकर्षित करते
गहरे नील सागर में
उतरी हूँ मैं
गहराई का अनुमान लगाने
डूब गयी तो समझना
तैरने में सक्षम नहीं
लहरे ज्यादा ठोस थी
जिन्हे पत्थरो कि भिड़त ने
मजबूत बना दिया है
और मैं कमज़ोर रही
हाँ ! पार लगी तो
आकर बतलाऊँगी
इसकी विशालता कि गाथा
मैंने सुना है
इसमें उतरने वाला
माया में ऐसा रम जाता है
कि फिर डूब जाना ही
उसकी पहली और आखिरी
हसरत हो जाती है !!!


______परी ऍम 'श्लोक'