Wednesday, July 2, 2014

"मैं तुम्हे नहीं जानती"

अनाहक ही मैं
इस अहम् में फिरती हूँ...
या फिर यूँ कहो कि
एक पागल यकीन है...
जो तुमपर है मुझे
तुम्हे मैं कितना जानती हूँ
उतना तो तुम भी खुद को
नहीं जानते होगे

और
फिर ....
अचानक ही तुम्हारा
इक नया रूप
मेरे सामने आ जाता है

मैं जितना तुम्हे पढ़ती हूँ
उतने ही प्रश्न
खड़े होते चले जाते हैं

मैं फिर सोचने लगती हूँ
शायद ! सही है 
इंसान के बारे में जान पाना
बहुत मुश्किल होता है
अन्धविश्वास था तुमपे मेरा..

तुम्हारे बारे में जो मुझे पता है
उससे कहीं ज्यादा हो तुम
मैं तुम्हे समझती तो हूँ
लेकिन तुम्हे मैं
बिलकुल नहीं जानती !!!


_______परी ऍम 'श्लोक'
 

2 comments:

  1. मैं जितना तुम्हे पढ़ती हूँ
    उतने ही प्रश्न
    खड़े होते चले जाते हैं

    मैं फिर सोचने लगती हूँ
    शायद ! सही है
    इंसान के बारे में जान पाना
    बहुत मुश्किल होता है
    अन्धविश्वास था तुमपे मेरा..
    बहुत सुन्दर

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