Wednesday, December 31, 2014

"कल जो भी हुआ"

कुछ परिंदे शाख से उड़ने को हैं
कुछ नए रंग उतरने वाले हैं
वक़्त की तस्वीर में ...
 
अब देखना है चेहरा क्या होगा
आने वाले दौर का आइना क्या होगा
रंगत कैसी होगी..निखार कितना होगा
 
कल जो भी हुआ एक तजुर्बा बना ...
अब जो भी होगा एक इम्तिहान होगा !!
 ________________
©परी एम.'श्लोक'

Monday, December 29, 2014

चलो! सुलह कर लेते हैं !!


जला कर प्यार की माचिस
झोंक देते हैं
अहम का तिनका-तिनका इसकी लौ में
सर्द मौसम में अलाव जला लेते हैं
चलो रिश्ते की ठण्ड मिटा देते हैं

कुछ जो तुझे मुझसे है कुछ मुझे तुझसे है
चलो मन के आसमान से
शिकायत की सारी धुंध हटा देते हैं
आ पहन लेते हैं लिबास यकीन का
जेहन से शक की कंपकंपी उतार देते हैं 

लौटता नहीं वक़्त जाने के बाद कभी
जो अपने पास है वो लम्हा संवार लेते हैं
कसमे-वादो की गर्म हवा से
सपनो की वादियों में फिर से फूल खिला देते हैं  

चलो! सुलह कर लेते हैं !!

© परी ऍम. 'श्लोक'

Sunday, December 21, 2014

हम मुफ़लिस लोग हैं...



कोहरे के शामियाने में रहते हैं
ओस का अलाव जलाते हैं
ठण्ड में ठिठुरते नहीं
तसल्ली की घूँट पी जाते हैं
गर्मियों की चिलचिलाती धूप ओढ़ते हैं
लू की सर्द हवा में लहराते हैं
सावन की बारिश में नहाते हैं
पतझड़ के तोलिये से जिस्म सुखाते हैं
 
जिंदगी क्या है ज़रा हमसे पूछो
जो हर शय में मुस्कुराते हैं
जो किसी से होता नहीं
हम काम वो कर जाते हैं
पेट भूख से भरते हैं
तन नंगाईयो से ढापते हैं
रात की चादर तानते हैं
सितारों पर सो जाते हैं
सियासत जब घूँघट खोलती हैं
तो दावों की नज़र से शरमाते हैं
 
हम मुफ़लिस लोग हैं 'श्लोक'
गिला करते नहीं ..अश्क भरते नहीं..
बड़ी तहज़ीब से जिंदगी के
हर मौसम का लुफ्त उठातें हैं !!


©परी ऍम. 'श्लोक'


Wednesday, December 17, 2014

उखाड़ दो इनकी जड़ें..नहीं तो डाल दो हथियार


मुट्ठी भर लोग
हमपर इसलिए हावी हैं
क्योंकि
हमारा हुजूम
बेहद खोखला है
अंदर ही अंदर
ईर्ष्या का दीमक
इसे चाटता जा रहा है 
 

वरना उनमें
कूट-कूट कर
जिहाद के नाम पर
जितनी नफरत भरी गयी है
यदि हममें एकता के लिए
आधी भी मोहोब्बत होती
गर उनकी दहशत की..
क्रूरता की
आधी भी हममें
नेकी और ईमानदारी होती
भाईचारे का नाटक ख़त्म कर
यदि हम वाकई भातृभाव रखते

तो उनकी औकात क्या
की वो नज़र उठा
किसी देश की तरफ
ताक भी लें....
उनके हाथ में इतनी ताकत कहाँ
की उठायें हथियार दाग दें..
उंगलियो में इतनी जान कहाँ की
किसी की देश की
एक मक्खी तक मसल दें ...
चंद लोग जो हमारे फूंक से उड़ जायें
हमारी चुप्पी ने उन्हें अधिकार दिया है
कि वो हमें ही तबाह करते रहें
आतंकवाद किसी एक देश की समस्या नहीं
वे विश्व भर का संक्रमण है .. 

आओ! उठो ! एकजुट हो
उखाड़ दो इनकी जड़ें
जो इस्लाम के नाम पर
जिहाद के नाम पर
मौत का तांडव करते हैं

अगर नहीं तो डाल दो हथियार
करो आर या पार ...
मत करो कोई कारवाही
स्वीकार करलो आतंक की गुलामी  

कम से कम तब
बदले के नाम पर नहीं छीने जाएंगे
किसी माँ से उनके बच्चे ...!!
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© परी ऍम 'श्लोक'

बड़े दिन से जिसे दूध पिला रहा था


Tuesday, December 16, 2014

अल्ला तुम्हारा नहीं है आतंकवादियों....

कैसे व्यक्त करूँ
वो पीड़ा जो कल
तमाम माओं ने महसूस की
और जो कभी न मिटने वाला
हमेशा चुभने वाला जख्म है...
नहीं शब्द नहीं
दर्द है बेहद दर्द
मासूम बच्चो की चीखें
मुझे सुनाई देती हैं
मैं विवश उन्हें बचा नहीं पाती
फट जाती है छाती
अपनों को खोकर
बिलखते हुए लोगो को देख
खून की होली
खेलतें है
बच्चो का शिकार करते हैं
अपनी कायरता का
सबसे बड़ा प्रमाण देकर
अपने आपको बहादुर
समझते है
मस्जिद...मंदिर..
शिक्षा के मंदिर पर
घावा बोलतें है
नहीं हैं ये किसी मज़हब के
किसी देश के हितैषी
खून पीना शौक है इनका
लाश देखकर सकून
महसूस करते हैं


हथियारों के दम पे
कूदने वालो..
खुदा के बन्दों को
मौत के घाट उतारने वालो
बेहद जल्दी तुम्हे तुम्हारा
मुआवज़ा मिलेगा
बेहद जल्द तुम्हारे लिए
घृणा का सैलाब उठेगा
और तुम्हे तबाह कर देगा
नहीं बचोगे तुम..
इससे भयानक मौत मरोगे तुम


तब नहीं मनाएगा कोई मातम
होगा जश्न सकून का अमन का


हैवानो के साथ दरिंदो के साथ
अल्ला कभी नहीं होता..
जिस अल्ला का तुम
तुम्हारे साथ होने का दम भरते हो
उसी अल्ला के बन्दों की
निर्मम हत्या करते हो
अल्ला तुम्हारे साथ नहीं है आतंकवादियों....
अल्ला तुम्हारा नहीं है !!


© परी ऍम. 'श्लोक'


(पेशावर पर बच्चो पर हुए हमले से आहत हूँ ..हमले में हुए शहीदो को श्रद्धांजलि...!!)

Monday, December 15, 2014

मैं माफ़ी चाहती हूँ निर्भया....

पुरुष बल के दम पे श्रेष्ठ बनता है
और
नीचता की सारी हद पार कर जाता है
जिसे वो पुरुषार्थ कहता है
और स्वार्थ में अन्धा हो जाता है
असल में वो उसकी कायरता का
सबसे बड़ा नमूना है
जिसे सिर्फ छीनना झपटना ही आता है
 
मुझे घृणा है ढोंगी समाज की सोच से
जो मर्यादा में सिर्फ औरत को बांधता है
दोष मढ़ता हैं हर बार
सिर्फ और सिर्फ औरत पर
कभी जीन्स को वजह बनाकर
कभी रात को घर से निकलने को अपराध घोषित करके
इनके कटघरे में सिर्फ औरत को खड़ा किया जाता है
 
मेरे देश में कानून को शोपीस की तरह
बना कर रख दिया गया हैं
हर अपराध के बाद
इसे पॉलिश ज़रूर कर दिया जाता है
लेकिन इसके पुतले से काली पट्टी नहीं उतारी जाती
नहीं जागता कानून सबूतो का पानी उड़ेलने पर भी
प्रत्यक्ष को प्रमाणित करना पड़ता है
उसके बावजूद भी कोर्ट में अटके पड़े रहतें है फैसले
न्याय की उम्मीद में इंसान दम तोड़ देता है
इंतज़ार की अवधि कम नहीं होती
उसकी कई पुश्ते बीत जाती हैं
फाइलें धूल चाटती हैं
इन्साफ अपने अस्तित्व को रोता है

मेरे देश में स्वछता अभियान के लिए
मंत्री...महामंत्री सड़क पर झाड़ू लेकर
ज़रूर उतर जातें है
लेकिन काली गन्दी मानसिकता को
साबुन और ब्रश मार कर नहीं साफ़ किया जाता
इंसानियत की वाशिंग मशीन में
कोई नहीं धोता अपना गन्दापन

मेरे देश में
लोग झंडे लेकर बाद में प्रदर्शन तो करते है
लेकिन खून से लथपथ सड़क के किनारे पड़ी
बेटी की मदद के लिए कोई आगे नहीं आता
लोग आतें है देखते हैं और गुज़र जातें है
चीख सुनकर कन्नी काट जातें है
उसे पागल बता कर पल्ला झाड़ लेते है
लेकिन नहीं झकझोरता इनको इनका ज़मीर
यहाँ नीलाम होती हैं बेटियां..
घरेलु हिंसा की शिकार होती हैं बेटियां
बचपन लूट लिया जाता है यहाँ
जबरन किसी की हवस में गिरफ्तार होती है बेटियां
नहीं उठते रक्षा के लिए इन दुरुस्त विकलांगो के हाथ तब

सच ये है कि
दोषी हैं सब के सब तुम्हारी निर्मम हत्या के
उन लोगो ने मारा है तुम्हे
जो चुप रहते हैं अपराध के बाद
यदि विरोध पहले से ही हुआ होता तो
आज तुम हमारे बीच होती निर्भया
उन लोगो ने मारा है तुम्हे जो तुम्हे देखकर
आराम से अपनी मंज़िल को रुक्सत हो गए
एक बार भी नहीं जागी उनकी मानवता..उनका ज़मीर
नहीं मालूम की उन्हें
महसूस होता भी होगा की नहीं अपना गुनाह

लेकिन
मैं शर्मसार हूँ इस पापी समाज का अंश बनकर
जिन कोढ़ियों की बलि चढ़ती है
आय दिन तुम्हारी जैसी बेटियां..
मेरे देश की कमज़ोर व्यवस्था के लिए
तुम्हारी इस दुर्दशा के लिए
मैं माफ़ी चाहती हूँ निर्भया.......मैं माफ़ी चाहती हूँ !!

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© परी ऍम. 'श्लोक'

Saturday, December 13, 2014

आखिर क्यों नहीं पढ़ाया मुझे ?


नहीं पढ़ाया गया उसे
घर के चूल्हे-चौके में
झोंक दिया गया
उसपर जवानी आई
किन्तु उसका मानसिक विकास
रोक दिया गया
आरम्भ से पढ़ाया गया
सिर्फ और सिर्फ
उसके दायित्व का अध्याय
ब्याहा गया छोटी उम्र में
कन्यादान के पूण्य के लालच में
सबने भूखे-प्यासे रह कन्यादान कर
खूब पूण्य कमाया
छोटी उम्र में गुड्डी को
शादी के अग्नि-कुण्ड में जलाया
महावारी का पता चलते ही
दे दिया गया गौना
हो गयी गुड्डी की विदाई
कम उम्र में तीन बच्चो की माँ बन गयी
जवानी में पति चल बसा
लाडली पर नौबत आई
कैसे बच्चे पाले ?
कैसे घर चलाये ?
रिश्ते-नाते सबने पल्ला झाड़ा
समाज भूल गया अपना दायित्व
किन्तु सबने समय-समय पर
अपनी-अपनी बारी निभायी
उँगली दर उँगली ज़रूर उठायी
गाँव का कोई पुरुष जो पूछ बैठे हाल
तानो से कर देते गुड्डी को बेहाल
औरत होना बड़ा कसूर बन गया
दिल में जख्म नासूर बन गया
दिन भर जलकर मज़दूरी में जो कुछ पाती
पेट न बच्चो का फिर भी भर पाती
खुद के भूख को मुक्का मार बेचारी सो जाती
कुछ दिन तो ऐसे गुज़र गया
फिर उसका एक बच्चा बीमारी-गरीबी से मर गया
एक बच्चा मनोरोग से ग्रस्त हो गया
चिन्ताओ ने ऐसा जाल बुना
दुनिया उसके लिए शमशान बन गयी
काली टी.बी. ने उसे जकड़ लिया
और अमोनिया ने पकड़ लिया
जीवन उसका दुःखो की भेट चढ़ गया
एक शिकायत अंतस में घर कर गया
अब वो कहती है ले-ले कर सिसकियाँ
क्यों इतना सिखाया मुझे
की मैं भोग हूँ पति का ...
उसके उपरान्त रोग अपने अस्तित्व का
कभी न बन सकी आधार अपना
मैं लड़ सकती थी इस पीड़ा से
बचा लेती अपना कोमल बच्चा
मगर तुमने लड़ने से पहले हराया मुझे
बाबुल क्यों नहीं पढ़ाया मुझे ?


आखिर क्यों नहीं पढ़ाया मुझे ?
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© परी ऍम. 'श्लोक'

 

Thursday, December 11, 2014

ओ! धर्म के रक्षको...मानवता के रक्षक बनो


मज़हब बदलवाना
सियासत का गरमाना
आरोप-प्रत्यारोप लगाना
जनता की समस्या बढ़ाना
संसद में हंगामा
कोई नयी बात नहीं...
लेकिन
ओ!धर्म के रक्षको
किया ही था
तो कुछ अच्छा करते
और फिर
चर्चा का विषय बनते
क्यों नहीं करवा दिया
बिना बताये
बिना चेताये
धोखा-धड़ी से
लालच देकर
उपहार देकर
मानसिकता का परिवर्तन
निसंदेह पीठ थपथपाते हम
अकबर के ज़माने का
तरीका अपनाकर
धर्म-परिवर्तन का
गुनाह-ए-अज़ीम किया
आखिर मिला क्या ?
नाहक में
विरोधो के गढ़ बन गए
काम किया ऐंठा हुआ
किन्तु क्या फायदा
पंडित बोले
हिन्दू बने नहीं
मौलवी बोले
मुसलमान रहे नहीं
हाय रे! इंसान
तू और तेरी सोच
करती है हैरान
भाई
हिन्दू हो या मुसलमान
मिलना तो मिटटी में ही है
करना ही है
कुछ यादगार
तो मानवता के रक्षक बनो
नेक कर्म करो
और सदा अमर रहो
बनना ही है तो
न हिन्दू बनो
न मुसलमान बनो
त्यागो सारे मजहबी पैंतरे
एक सच्चे इंसान बनो...
लेकिन
वो तो तुमसे होना नही है !!
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© परी ऍम. 'श्लोक'

Wednesday, December 10, 2014

अगला हादसा कब होगा ??


खुले आम फिरने लगें हैं
राक्षस...
उनके सिर पे सींग नहीं होती
उनकी आवाज़ रावणी नहीं होती
महिषासुर की तरह
उनका घमंड नहीं झलकता
होते हैं ये चलते-फिरते
इंसानी भेष धरे आज़ाद हैवान
जो अपनी असलियत छिपाए फिरते हैं
मीठी-मीठी बातो के चिलमन में
वो दिखते और चमकते हैं
सोने की तरह...
किन्तु
कोयले की खान होते हैं
अंदर ही अंदर इनमें
उबलता हैं दरिंदगी का दरिया
छाया होता हैं दिमाग में
कुख्यात सोच का घना कोहरा
फलता-फूलता रहता है
हैवानियत का जंगल
क्योंकि देते हैं हम उन्हें
अपनी सहनशीलता की ज़मीन
लापरवाही की धूप
अपनी बेबसी की बारिश
गैरजिम्मेदारी का मौसम
डर की जलवायु
और तैयार हो जाती है
दरिंदगी की
ऐसी कंटीली..जहरीली फसल
जो दे जाती हैं
हमारी बहन-बेटियो को नासूर जख्म
कानून काली पट्टी बांधे
फिर इन्साफ करने चलता है
कहता है नहीं है रस्सी में बल
जेल में जल्लाद नहीं हैं
जो इसने किया फाँसी दे सकें
ये ऐसा अपराध नहीं हैं
और फिर सर उठा लेता है साहस
अपराधी के राहत की साँसों के भ्रूण से
अपराधियो की कतार तैयार हो जाती हैं
और हम रह जाते हैं
मोमबत्ती चौराहे पर जलाते हुए
टेलीविजन-अखबार-संसद में
बहस करते...और चीखते..चिल्लाते हुए
इंतज़ार करते हुए
कि अगला हादसा कब होगा ??

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© परी ऍम. 'श्लोक'

Sunday, December 7, 2014

"कुदरत का इन्साफ"


आई एक खबर
दूर-दराज़ से
उस वहशी की
जिसने कई औरतों को
निवस्त्र किया
मज़दूरों की मज़दूरी मार ली
गरीबो की ज़मीन हड़प ली
किसी ने आवाज़ बुलंद भी की
तो सबूत न जुटा सका
नहीं हुई कोई कारवाही उसपर
फिर चलन चलता रहा
उसी अत्याचार का ..सहन का
सब सहते गए सितम
और एक अदद आदमी के
बाहुबल के आगे
झुक गया गाँव का गाँव पूरा
किन्तु एक दिन
दिवाली का पटाखा
बारूद की तरह गिरा
और धूं-धूं कर जलने लगा
लोगो की हाय पर तैयार
उस बाहुबली का महल
जल गयी उसकी एक लोती बेटी
पागल हो गयी उसकी पत्नी
उजाड़ हो गया उसका
बसा बसाया आशियाना

क्योंकि जब
कुदरत इन्साफ करता है
तो सिर्फ और सिर्फ फैसला सुनाता है
वो नहीं मांगता....

कोई गवाह....कोई सबूत !!

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© परी ऍम. 'श्लोक'

Friday, December 5, 2014

महज़..........मोहब्बत है !!

वक़्त ठहरा है
या इंतज़ार नहीं होता हमसे
या फिर शायद
मोहब्बत में इंतज़ार की घड़ियाँ
कुछ इस कदर और लम्बी हो जाती है

तो फिर क्या ये मोहब्बत है
जिसमें डूबी-डूबी रहती हूँ मैं
और
मेरे होश-ओ-हवास कि
कश्तियों पर हर वक़्त
सवार रहते हो तुम

तुम्हारे ख्याल जेहन के
घर..आँगन में ..
लुक-छुपी खेलते रहते हैं
तुम्हारी याद का सन्दूख
खुलते ही महक उठता है
गुज़रा हुआ वो दौर

मैं तुम्हे महसूस करके ओर...
मखमली हो जाती हूँ
तुम्हारी याद में
भूल जातें हैं हम वज़ूद तक अपना

मुझे तो मालूम नहीं
मगर
है क्या कोई सूत्र?
मैं...तुम...और इश्क़ को
जोड़ गाठ के कुछ आये
और
मसला साफ़ हो जाए

बताओ कोई तरकीब
कैसे पुख्ता करूँ यकीन
कि ये बेहिसाब जो हुआ है
मुझे तुमसे...

वो ओर कुछ नहीं ......
महज़..........मोहब्बत है!!

 
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© परी ऍम. 'श्लोक'

अपनी थी कमज़ोरियां


Tuesday, December 2, 2014

जो किया... तुमने किया...


देखो!
हम उस लीक से निकल आयें हैं
जहाँ तुमने कांटें बोये थे
कांच बिखेरे थे
ज़हर हवाओ में घोल दिया था
आग दहका रखा था
पल-पल बारूद फटता रहा
चिथड़ा - चिथड़ा दिल होता रहा 
तुम चाहते थे की ना जी सके हम
मगर कुछ अपनों की दुवाओं ने
पूरी ताकत लगा दी  
और हम बच गए
लेकिन इस घटना में
सब तबाह हो गया
आशाएं जख्मी हो गयी थी
सारे सपने राख-राख 
हम अपंग हो गए थे
भावनाएं मर चुकी थी
जिन्हे नसीब तक न हुआ कफ़न
और न मैं दे सकी कांधा 
अब न हथियार उठा सकते थे  
न हक़ छीन सकते थे  
तुम्हारे लिए
दुनियाँ से लड़ पाने की क्षमता
अब हममें नहीं थी..
एक सवाल जो
नाखून गाड़े जा रहा था ज़हन में
सोचती रही कि 
कहानी हमने मोहोब्बत की शुरू की थी
नजाने नफरत का तेज़ाब कौन डाल गया ?
हम तो बस सिसकियां लेते रहे
तड़पते रहे छटपटाते रहे
और इस यकीन में रहे 
की गलत तुम नहीं हो सकते

खैर !
जो किया... तुमने किया...
हम तो बस
शतरंज कि बिसात के मोहरे बने रहे !!
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© परी ऍम. 'श्लोक'

मेरा दिल...ठहरा रहा


बदल गए हम कितने
बदला नहीं इक अहला एहसास
ताउम्र समंदर पास बैठा रहा
मगर बुझी न 'श्लोक' की प्यास 
रात सुकूं से सोने वालो के 
पलकों पर अब नींद नहीं बैठती
अरमानो की टोलियाँ
गलियो से मुँह टेड़ा करके जाती रही 
ख्वाब झटक देते रहे दामन मेरा 
जला के शहर भी मिटा नहीं अँधेरा  

दिन भर उड़ाते रहे हम
झूठी अफवाह जिंदगी नयी-नयी सी हैं
मगर पुरानी यादो के सलाखों में कैद रहे
खाली-खाली से हम  
तसल्लियाँ समेटे रहे मुकम्मल होने की
सुलगते रूह पर पानी के छीटे देते रहे 

वक़्त दरिया सा बहता रहा
कदमो ने मीलो का फासला तय कर लिया
आवारा हादसे मिलते-मिलाते रहे
मुकाम आते रहे......जाते रहे
जिंदगी का कारवाह आगे बढ़ता रहा
मगर  

मेरा दिल......
उनकी दहलीज़ पर ठहरा रहा !!

____________

© परी ऍम. 'श्लोक'
 

Monday, December 1, 2014

रुक जाओ !!!

तुमने कहा
चलता हूँ
लगा थम गया सब
फिर तनहा हुए हम
दिल ने तुम्हारी
उंगलियो को पकड़
बड़ी ज़ोर से कहा
सुनो !
कुछ और पल रुक जाते
तुमने मुड़ के पूछा
कुछ कहा ?
मैंने झट से इंकार कर दिया


कहो न ....
नहीं जानते थे तुम ?
मेरी न का मतलब
हाँ... है

बेशक
तुम जानते हो
ख़ामोशी मेरी ...
फिर भी सोचते रहे
जुबां से कहूँ
और तुम्हे यकीन हो जाए

क्या कहना ज़रूरी है ?
हर बार ...बार-बार
और क्या ?
मेरे कह भर देने से
तुम नहीं जाओगे
अगर हाँ तो फिर
हर ख़ामोशी को तोड़ती हूँ
और ये राज़ खोल देती हूँ
हाँ !
ये जो नन्हे नन्हे फूल
ज़ज़्बातो कि
वादियों में खिल उठें है
मैं जो भीग रही हूँ
अहसासों के झरने में हर शब
ये साँसे जो तुमने भर दी हैं मेरी साँसों में
और जीने कि तलब बढ़ा दी है
ये जो तमाम ख्वाब
पलकों को दे दियें हैं तुमने
इन सबका वास्ता है तुम्हे….. मत जाओ
सिर्फ कुछ पल के लिए और
सुनो न ! रुक जाओ !!!
 

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© परी ऍम. 'श्लोक'