कोहरे के शामियाने में रहते हैं
ओस
का अलाव जलाते हैं
ठण्ड
में ठिठुरते नहीं
तसल्ली
की घूँट पी जाते हैं
गर्मियों
की चिलचिलाती धूप ओढ़ते हैं
लू
की सर्द हवा में लहराते हैं
सावन
की बारिश में नहाते हैं
पतझड़
के तोलिये से जिस्म सुखाते हैं
जिंदगी
क्या है ज़रा हमसे पूछो
जो
हर शय में मुस्कुराते हैं
जो
किसी से होता नहीं
हम
काम वो कर जाते हैं
पेट
भूख से भरते हैं
तन
नंगाईयो से ढापते हैं
रात
की चादर तानते हैं
सितारों पर सो जाते हैं
सियासत
जब घूँघट खोलती हैं
तो
दावों की नज़र से शरमाते हैं
गिला
करते नहीं ..अश्क भरते नहीं..
बड़ी
तहज़ीब से जिंदगी के
हर
मौसम का लुफ्त उठातें हैं !!
©परी ऍम.
'श्लोक'
Kya baat hai . Samvadensheelta ki had hai ye .
ReplyDeleteBahut acchi lagi
परी जी ...आज की सदी में भी इन्सान की इतनी ख़राब दशा है ये सोच कर शर्म आती है लेकिन किसे पड़ी है सरकारें आती है जाती हैं और अमीर और अमीर हो जाते हैं और गरीब और गरीब ....आप की रचना प्रभावी और दिल को छूने वाली है ...सुभकामनाएँ
ReplyDeletebahut hi achcha likha hai aapne pari ji...behatreen
ReplyDeleteSansaar ke ek mahatvapoorn ansh ki ek samvedansheel prastuti. . Anoyher of your brilliant work... god bless
ReplyDeleteबहुत ही संवेदनशील अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteवास्तव में सच्चे अर्थों में इंसान कहलाने के लिये सही दावेदार को बड़ी खूबसूरती और संवेदनशीलता के साथ आपने अपनी रचना में परिभाषित किया है ! परी जी आपकी इस रचना की प्रशंसा के लिये मेरे पास आज शब्द कम पड़ रहे हैं ! बधाई एवं शुभकामनायें !
ReplyDeleteबहुत ही संवेदना जगाती रचना.सियासतदानों के कोरे आश्वासनों पर जीते हैं लोग.
ReplyDeleteनई पोस्ट : कौन सी दस्तक
आपने मन की बात यहाँ इस तरीके से लिख दिया जो शायद वो भी हमें शब्दों से इस प्रकार से अहसास नहीं करा पाते जो घर के छत के बजाय आसमान तले सोते हैं! हाँ वो आप जैसे कवयित्री को अपने ह्रदयस्पर्शी भावों से जरुर अहसास करा पाते है...परी जी सुन्दर रचना के लिए आभार!
ReplyDeleteBahut Khoob.....!!!
ReplyDeleteमुफलिसी के कष्ट को आपने जिस अंदाज में बयां किया है वह काबिलेतारीफ है !एहसास और अभिव्यक्ति में सामंजस्य है !
ReplyDelete: पेशावर का काण्ड
ये हालात सदियों से नहीं बदले परी जी..आदमी कहाँ से कहाँ पहुँच गया लेकिन इन्सानियत आज भी दरवाजों के पीछे ही खडी है। एक इन्सान, एक कोशिश, एक बढ़ा हुआ, हाथ चन्द लम्हों में दुनिया बदल सकती है। अगर हर कोई ईमानदार कोशिश करे तो..आपकी लेखनी प्रभावशाली है..आपकी सोच सराहनीय है ।
ReplyDeleteजिंदगी क्या है ज़रा हमसे पूछो
ReplyDeleteजो हर शय में मुस्कुराते हैं
जो किसी से होता नहीं
हम काम वो कर जाते हैं
पेट भूख से भरते हैं
तन नंगाईयो से ढापते हैं
रात की चादर तानते हैं
सितारों पर सो जाते हैं
सियासत जब घूँघट खोलती हैं
तो दावों की नज़र से शरमाते हैं
सही कहा आपने परी जी ! जिंदगी का असल मायने क्या है , कोई इनसे सीखे ! भावनाएं जगाती सुन्दर रचना
जिंदगी का असल लुत्फ़ भी कुछ ऐसे ही लोग उठा पाते हैं ... पर फिर भी बदलते समय के साथ इनकी स्थति का भी बदलाव होना जरूरी है ...
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति आदरणीया परी जी! किसी ने लिखा है-
ReplyDelete"पत्थर उबालती रही माँ रात भर,
बच्चे फरेब खा के जमीं पर सो गये"
साभार!
धरती की गोद
Behtareen rachna....pata nahi kab..inke jeevan mey badlav ayega
ReplyDeleteदिल को छूती बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...लाज़वाब
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरती से सड़क के किनारे को शब्दों में उतारा है , ज़िन्दगी उनकी शब्द जहन से उतारा है !
ReplyDeletekitni sachaai or khubsoorati se jee lete h apke shabd hr kahani ko...
ReplyDeleteहकीकत से रूबरू कराती कविता।
ReplyDeleteसुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति...इस कड़ाके की ठंड में तो बेघर और गरीब तबके के लोगों की मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं. ऐसे दृश्य आम हैं, जहां खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर लोगों में बहुतों के पास ओढ़ने या खुद को ढकने को कंबल-रजाई तो दूर, तापने को सूखी लकड़ियां भी मयस्सर नहीं होतीं. ठंड की मार झेल रहे गरीबों के लिए किसी का दिल नहीं पसीजता. न सरकार का, न ही स्वयंसेवी संस्थाओं का...
ReplyDeleteवाकई बहुत सुन्दर और संवेदनशील रचना !!!
ReplyDeleteबहुत ही संवेदनशील अभिव्यक्ति...मर्मस्पर्शी प्रस्तुति
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