पुरुष
बल के दम पे श्रेष्ठ बनता है
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© परी ऍम. 'श्लोक'
और
नीचता
की सारी हद पार कर जाता है
जिसे
वो पुरुषार्थ कहता है
और
स्वार्थ में अन्धा हो जाता है
असल
में वो उसकी कायरता का
सबसे
बड़ा नमूना है
जिसे
सिर्फ छीनना झपटना ही आता है
मुझे घृणा है ढोंगी समाज की सोच से
जो
मर्यादा में सिर्फ औरत को बांधता है
दोष
मढ़ता हैं हर बार
सिर्फ
और सिर्फ औरत पर
कभी
जीन्स को वजह बनाकर
कभी
रात को घर से निकलने को अपराध
घोषित करके
इनके
कटघरे में सिर्फ औरत को खड़ा
किया जाता है
मेरे
देश में कानून
को शोपीस की तरह
बना
कर रख दिया गया हैं
हर
अपराध के बाद
इसे
पॉलिश ज़रूर कर दिया जाता है
लेकिन
इसके पुतले से काली
पट्टी नहीं उतारी जाती
नहीं
जागता कानून सबूतो
का पानी उड़ेलने पर भी
प्रत्यक्ष
को प्रमाणित करना पड़ता है
उसके
बावजूद भी कोर्ट
में अटके पड़े रहतें है फैसले
न्याय
की उम्मीद में इंसान
दम तोड़ देता है
इंतज़ार
की अवधि कम
नहीं होती
उसकी
कई पुश्ते बीत जाती हैं
फाइलें
धूल चाटती हैं
इन्साफ अपने अस्तित्व को रोता है
इन्साफ अपने अस्तित्व को रोता है
मेरे
देश में स्वछता
अभियान के लिए
मंत्री...महामंत्री
सड़क पर झाड़ू लेकर
ज़रूर
उतर जातें है
लेकिन
काली गन्दी मानसिकता को
साबुन
और ब्रश मार कर नहीं साफ़ किया जाता
इंसानियत
की वाशिंग मशीन में
कोई नहीं धोता अपना गन्दापन
कोई नहीं धोता अपना गन्दापन
मेरे
देश में
लोग
झंडे लेकर बाद में प्रदर्शन तो करते है
लेकिन
खून से लथपथ सड़क के किनारे पड़ी
बेटी
की मदद के लिए कोई आगे नहीं आता
लोग
आतें है देखते हैं और गुज़र जातें है
चीख
सुनकर कन्नी काट जातें है
उसे
पागल बता कर पल्ला झाड़ लेते है
लेकिन
नहीं झकझोरता इनको इनका ज़मीर
यहाँ
नीलाम होती हैं बेटियां..
घरेलु
हिंसा की शिकार होती हैं बेटियां
बचपन
लूट लिया जाता है यहाँ
जबरन
किसी की हवस में गिरफ्तार होती है बेटियां
नहीं
उठते रक्षा के लिए इन दुरुस्त विकलांगो के हाथ तब
सच
ये है कि
दोषी
हैं सब के सब तुम्हारी निर्मम हत्या के
उन
लोगो ने मारा है तुम्हे
जो
चुप रहते हैं अपराध के बाद
यदि
विरोध पहले से ही हुआ होता तो
आज
तुम हमारे बीच होती निर्भया
उन
लोगो ने मारा है तुम्हे जो तुम्हे देखकर
आराम
से अपनी मंज़िल को रुक्सत हो गए
एक
बार भी नहीं जागी उनकी
मानवता..उनका ज़मीर
नहीं
मालूम की उन्हें
महसूस होता भी होगा की नहीं अपना गुनाह
महसूस होता भी होगा की नहीं अपना गुनाह
लेकिन
मैं शर्मसार हूँ इस पापी समाज का अंश बनकर
जिन
कोढ़ियों की बलि चढ़ती है
आय
दिन तुम्हारी जैसी बेटियां..
मेरे
देश की कमज़ोर व्यवस्था के लिए
तुम्हारी
इस दुर्दशा के लिए
मैं
माफ़ी चाहती हूँ निर्भया.......मैं माफ़ी चाहती हूँ !!
हकीकत तो यही है.सोच में बदलाव जरूरी है.
ReplyDeleteनई पोस्ट : यादें
बिलकुल यथार्थ, ज्वलंत एवं प्रेरक अभिव्यक्ति ...
ReplyDeletebahoot hi sundar prastutee, hardik badhayee...........
ReplyDeletehttp://kahaniyadilse.blogspot.in/
इस व्यथा और व्यस्था को बदलाव की जरूरत है..।। दमदार अभिव्यक्ति..।।
ReplyDelete
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा और गहरे विचार।गुस्ताखी के लिये माफी चाहुँगा किन्तु "प्रतक्ष्य" को "प्रत्यक्ष" होना चाहिये
सच ये है कि
ReplyDeleteदोषी हैं सब के सब तुम्हारी निर्मम हत्या के
उन लोगो ने मारा है तुम्हे
जो चुप रहते हैं अपराध के बाद
यदि विरोध पहले से ही हुआ होता तो
आज तुम हमारे बीच होती निर्भया
उन लोगो ने मारा है तुम्हे जो तुम्हे देखकर
आराम से अपनी मंज़िल को रुक्सत हो गए
एक बार भी नहीं जागी उनकी मानवता..उनका ज़मीर
नहीं मालूम की उन्हें
महसूस होता भी होगा की नहीं अपना गुनाह
सच कहने की हिम्मत बहुत कम लोगों में होती है और उन कम लोगों में से एक आप भी हैं ! शब्दों से फिर से उस "काले दिन " को याद दिलाया है आपने , लेकिन सुकून तब मिलेगा जब इस तरह की घटनाएं बिलुल ही खत्म होंगी !
हर शब्द झूठी मर्यादाओं के खोखलेपन को प्रकट करता हुआ , सार्थक अभिव्यक्ति Anil Dayama 'Ekla': निर्भया: सभ्य समाज का सच
ReplyDeleteयथार्थ की प्रस्तुति के लिए आभार! व "निर्भया" को हार्दिक श्रंद्धांजलि!
ReplyDeleteधरती की गोद
आप की रचना सराहनीय है......और दर्द भरी भी ....
ReplyDeleteएक ऐसा विषय जो बार बार उभरता है ! जब देश में कानून व्यवस्था और प्रसाशन दोनों रिशवत में दबे हों तो क्या करेंगे ! अधिकतर लोग वोट ही नहीं डालते और गुंडे और भ्रष्ट नेता कुशासन चलाते रहते हैं ! नये इमानदार लोगों को मौका दे के देखिये जैसे AAP और महिलायें के ५०% वोट और असली पुरुषों के वोट से सब कुछ बदल सकता हैं.....ये बदलाव की पहल भी महिलाओं को लेनी पडेगी ये पुरुष तो उनको हमेशा से दबा के ही रखना चाहते हैं
यथार्थ प्रस्तुति ..
ReplyDeleteअब स्वयं ही अपनी रक्षा के लिए उठ खड़ा होना होगा ..तभी जुल्मियों का अत्याचार ख़त्म होगा ..
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-12-2014) को तालिबान चच्चा करे, क्योंकि उन्हें हलाल ; चर्चा मंच 1829 पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आम जनता के सोच के साथ क़ानून बनानेवालों और उसके रखवालों की सोच में परिवर्तन जरुरी है......सही कहा आपने कानून को शोपीस बना दिया है !
ReplyDeleteनारी !
जब तक इंसान की सोच नहीं बदलेगी और क़ानून कुछ लोगों के हाथ की कठपुतली बना रहेगा, बदलाव की आशा करना व्यर्थ है...सच का आईना दिखाती बहुत सटीक और सार्थक अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteसही है....मानसिकता बदलने के लिए हल्ला तो खूब हो रहा, पर होता कुछ नहीं।
ReplyDeleteसमयानुकूल, सटीक और सार्थक
ReplyDeleteइस मानसिकता को बदलना जरूरी है ... संवेदना मरने से पहले बदलाव जरूरी है ...
ReplyDeleteअत्यंत संवेदनशील रचना ! कभी -कभी मैं भी सोचती हूँ जो लोग सड़क किनारे जख्मी मरणासन्न निर्भया को अनदेखा कर आगे बढ़ गये थे क्या उनकी अंतरात्मा उनको कभी कचोटती होगी ! निर्भया की मौत के लिये वे भी उत्तरदायी हैं कभी यह ख़याल उनके मन में भी आता होगा ! काश किसीने उसे समय से अस्पताल पहुंचा दिया होता तो शायद वह बच जाती ! मार्मिक प्रस्तुति !
ReplyDeleteउफ़.
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