Tuesday, December 2, 2014

जो किया... तुमने किया...


देखो!
हम उस लीक से निकल आयें हैं
जहाँ तुमने कांटें बोये थे
कांच बिखेरे थे
ज़हर हवाओ में घोल दिया था
आग दहका रखा था
पल-पल बारूद फटता रहा
चिथड़ा - चिथड़ा दिल होता रहा 
तुम चाहते थे की ना जी सके हम
मगर कुछ अपनों की दुवाओं ने
पूरी ताकत लगा दी  
और हम बच गए
लेकिन इस घटना में
सब तबाह हो गया
आशाएं जख्मी हो गयी थी
सारे सपने राख-राख 
हम अपंग हो गए थे
भावनाएं मर चुकी थी
जिन्हे नसीब तक न हुआ कफ़न
और न मैं दे सकी कांधा 
अब न हथियार उठा सकते थे  
न हक़ छीन सकते थे  
तुम्हारे लिए
दुनियाँ से लड़ पाने की क्षमता
अब हममें नहीं थी..
एक सवाल जो
नाखून गाड़े जा रहा था ज़हन में
सोचती रही कि 
कहानी हमने मोहोब्बत की शुरू की थी
नजाने नफरत का तेज़ाब कौन डाल गया ?
हम तो बस सिसकियां लेते रहे
तड़पते रहे छटपटाते रहे
और इस यकीन में रहे 
की गलत तुम नहीं हो सकते

खैर !
जो किया... तुमने किया...
हम तो बस
शतरंज कि बिसात के मोहरे बने रहे !!
____________________
© परी ऍम. 'श्लोक'

7 comments:

  1. अच्छा है परी जी
    गहरा बहुत गहरा सा दर्द उभर के आता प्रतीत होता है

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  2. उफ़ ! कितनी तड़प है इन शब्दों में ! अत्यंत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति !

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  3. भावनाओं की बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...

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  4. बहुत ही मार्मिक.... किसी के लिये भी मुहब्बत का अंजाम इतना भयानक न हो... ईश्वर से यही दुआ है !!!

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  5. सारे सपने राख-राख
    हम अपंग हो गए थे
    भावनाएं मर चुकी थी
    जिन्हे नसीब तक न हुआ कफ़न
    और न मैं दे सकी कांधा
    अब न हथियार उठा सकते थे
    न हक़ छीन सकते थे
    तुम्हारे लिए
    दुनियाँ से लड़ पाने की क्षमता
    अब हममें नहीं थी..
    भावनाओं का बहुत सुन्दर प्रस्तुतीकरण !

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