Sunday, August 31, 2014

क्या सच में तुम ??

तुम्हारे जुल्म-ओ-सितम ने
तुम्हारी फरेबियत ने
तुम्हारे हीन..क्रूर कृत्य ने
तुम्हारी वहशी नीयत ने
तुम्हारे भंगी सोच ने
तुम्हारे अहम के चलचित्र ने 

तुम्हारे पुरुषार्थ के अर्थ को
शून्य कर दिया है

ऐसे में
तुम जब बात-बात पर
बार-बार कहते हो
कि तुम पुरुष हो
मुझे लगता है
जैसे कोई
किसी मुर्दा इंसान के
जिन्दा होने का
दावा कर रहा है !!!

___________परी ऍम 'श्लोक'

Saturday, August 30, 2014

जाओ लगाती हूँ प्रताड़ना के अध्याय पर विराम!


आखिर कब तक
ताना मारोगे
धमकी दोगे
अपनी बेतुकी बात से
डराओगे मुझे
"ज्यादा बोलेगी तो छोड़ दूँगा..
ऊँची आवाज़ में बात किया तो
भगा दूँगा घर से
अगर कल नहीं आई
मायके में ही रहना
ता-उम्र छोड़ दूँगा..
खाना ढंग से बनाया कर
वरना भेज दूँगा तेरी माँ के पास
तुझे छोड़ दूँगा..
सड़क पर भीख मांगेगी
अगर मैं तुझे छोड़ दूँगा..
चाहे मैं मारू या पीटू
जो भी गति बनाऊँ
तुझे सहना ही है
वरना छोड़ दूँगा..
सुबह और शाम ...
बस यही कहते हो
छोड़ दूँगा..छोड़ दूँगा...छोड़ दूँगा
आह !
बस बहुत हुआ
अब तुम्हारे इस धमकी को
यहीं पर ख़त्म करती हूँ
तुम्हारी तकलीफ का यही अंत
मेरा भाग्य यही से बदल लेती हूँ
इस पिंजरे को तोड़ देती हूँ
अँधेरा मिटा देती हूँ भय का
बस अति हो गयी है

तुम क्या मुझे छोड़ोगे?
मैं ही तुम्हे आज़ाद करती
जाओ मुझे
मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना देने कि
अब नौबत नहीं आएगी
बस

तलाक ... तलाक ... तलाक !!!

_____________परी ऍम 'श्लोक'


(मैं उन औरतो से ज़रूर गुजारिश करती हूँ कि अपराध को सहने वाला भी बड़ा अपराधी होता है मैं बस इतना कहूँगी अगर दम है तो हवा का रुख मोड़ दो या फिर इस हवा के साथ बह जाओ..या फिर ठहर जाओ .. ख़त्म करो घरेलु हिंसा का प्रचलन .. अहसास करो तुम केवल दुसरो के सकून के लिए नहीं .. बल्कि खुद भी सकून भर जीने के लिए बनी हो)

Friday, August 29, 2014

काश !

काश !
प्यार के
इस हसीन सफर में
कहीं कोई साइन बोर्ड होता
जिसमे दर्शाया गया होता
कि बस अब...
इससे आगे नही
सीमा समाप्त ....
समय कि रेत पर
जैसे के तैसे बने रहते
पैरो से छूटे हुए छाप
कोई हवा इसे न मिटाती कभी

तो शायद !
बच पाने कि कोई संभावना
अभी शेष रहती
और मैं लौट पाती
तुम्हे
पूरी तरह से भूल कर 
उसी अल्हड़ जिंदगी में
छोड़ आती
वो चुभन...
वो जलन....
वो बेक़रारियां.....
मन के नक़्शे कदम पर
शुरू किया हुआ
अध्याय..
वही पर ख़त्म करके

और
फिर वहीं से शुरू करती मैं
जीना और मारना
दोनों ही मेरे अपने लिए !!!

_________________परी ऍम 'श्लोक'

"हर बार"

 
हर बार तुम्हारी यादें अपनी हद तोड़ती हैं
 हर बार इस तूफ़ान की रौ में मैं बह जाती हूँ
 
हर बार मैं दिल की कुण्डी पे ताला जड़ती हूँ
  हर बार बेचैन होकर इसे खुद ही खोल आती हूँ 
 
हर बार रोकती हूँ अपने जज्बात तेरे लिए
हर बार अपने ही तरकीबों से दर्द पाती हूँ
 
हर बार सुबह समझ के तेरी ओर बढ़ती हूँ
हर बार शाम को थकहार के लौट आती हूँ
 
जब तेरे प्यार में भीग जाने की आरज़ू होती हैं
मैं तपती ज़मीन सी इक बूँद को तरस जाती हूँ
 
  हर बार जब अपने आईने से नज़रे मिलाती हूँ
इन आँखों के दरख्तो पर तुझे ही पाती हूँ
 
जैसे ये सारे नज़ारे तेरे हमशक्ल हैं 'श्लोक'
जिधर भी देखूं बस तेरा मेला लगा पाती हूँ
 
बस फिर मेरा कुछ कहाँ रहता हैं हकदारी को
तेरी इक झलक से मैं रूह तक लुट जाती हूँ
 
 
____________परी ऍम 'श्लोक'

"जो निशां मैं तेरे दिल-ओ-जहन पे छोड़ आई थी"


 
हर ज़र्रा रोया था हर शब मैं बोखलाई थी
मैंने गिन-गिन के तारे तनहा रात बितायी थी

बड़ी मुश्किल से तुझको भुलाया करती 'श्लोक'
मगर हर दफा तेरी याद दबे पाँव चली आई थी

मेरी जात से जुड़ने का तेरा इंकार भी रहा था
फिर भी तेरी रूह मेरे खातिर ही छटपटाई थी

शायद तू वो मिटाने में आज तक नाकाम रहा
जो निशां मैं तेरे दिल-ओ-जहन पे छोड़ आई थी

__________परी ऍम 'श्लोक'

Thursday, August 28, 2014

इन रिश्तो में...


इन रिश्तो में खींचातानी है
इन रिश्तो में बेईमानी है
इन्ही रिश्तो की मण्डी में
हर आँख में भरा सुनामी है
इन रिश्तो से मैं क्या माँगू?
हर इच्छा पर बदनामी है
रिश्तो का दम भर भर के
करते हरदम मनमानी हैं
रिश्तो की इस रासलीला में
कहीं राधा कही मीरा दीवानी है
रिश्तो के इस कुरुक्षेत्र क्षेत्र में
अपनों ने अपनों से ठानी है
दिल में खंज़र जितना तेज़
उतनी ही मीठी इनकी बानी है  
खून का रिश्ता यूँ खून पिए हैं
जैसे दरिया का बहता पानी है
हिस्से में आएगी दो गज ज़मीन
फिर भी चाहत आसमानी है
इक दूजे के सीने पर चढ़ कर
सबको बिल्डिंग बनवानी है
पैसे पैसे का नाम जपे हैं
प्रेम की तिजोरी खाली है
करके बेटी का सौदा कहीं पर
फिर बाप ने दारु पी जानी है
साथ जन्मो का वादा करके
साथ दिन में आफत आ जानी है
मुझसे वफ़ा की बात न कर
ये बाते तो सदियों पुरानी है
रिश्तो की ये दशा देख कर
मुझमे पल पल बढ़ती हैरानी है 
इन रिश्तो में भी चैन नहीं
इनके बिना भी दुनिया वीरानी है


_____________परी ऍम 'श्लोक'

ज़रा सा और .......


सुनो ना...
मुझसे सुला करलो

बहुत दिन हुए
इस लड़ाई को

तुम कहो तो मैं
मांग लेती हूँ माफ़ी
उस तरह
जिस तरह से
तुम्हे संतुष्टि हो जाए

तुमसे दूर रहकर
भला क्या मिल जाएगा मुझे
बस जान निकलती है
लम्हा-लम्हा....

तुम भी न हट छोड़ दो
जिंदगी का क्या पता
कल रहूँ या न रहूँ मैं
जाने कब
बुलावा आ जाए मौत का
तुम्हारा सारा हट ..
धरा का धरा रह जाए
फिर लौटूंगी न मैं
चाहे लाख आवाज़ देना
न ही ये मौसम आएंगे

आओ इस बारिश
मिलके खूब भीगते हैं
ठण्ड से उठती
कपकपी में हिलते होंठो से
मिटा देते हैं सारे शिकवे
करते हैं नज़रो से संवाद

आओ न ..........

जी लेती हूँ तुझमे मैं
ज़रा सा और_______

तू भी जी ले मुझमे
ज़रा सा और _______

मेरे पास है जिंदगी की हद
बस....
 ज़रा सा और........!!
 

_______परी ऍम 'श्लोक'

Wednesday, August 27, 2014

"मेरी जीस्त का गहना"



**** जब से मोहोब्बत में तेरा हाथ थामा है मैंने ***
**** दर्द मेरी जीस्त का गहना बन गया है 'श्लोक' ***
 
 
_______परी ऍम 'श्लोक'
 
 
 

"रेत की तरह"

 
****तुम्हे पाकर मुट्ठियाँ बंद कर ली थी हमने 'श्लोक' ****
******मगर नसीब से रेत की तरह तुम फिसलते चले गए
!!*****

__________परी ऍम 'श्लोक'

"अतीत कभी मरता नहीं"

अतीत को मारने की
लाख कोशिश की जाए
मगर..
सच तो यही है कि
अतीत कभी मरता नहीं..
आजीवन पीछा करता है..

चौंकाता रहता है
अपनी काली परछाई से..
भय में घोले रहता है
हर सुन्दर सपने कि नीव को..
वक़्त वक़्त पर अपना
जहरीला डंक मारता रहता है
सान देता है
पीड़ाओं के अंगारो में
पड़ जाते हैं फफोले
वर्तमान के जिस्म पर
फिर इसके दाग
भविष्य में
कभी नहीं छूटा करते
चाहे कितनो ही
विलाप के साबुन से धोया जाए
या
झूठ के सुनहरे चादर से
ढक लिया जाए

अपने पंजो में
दबोच ले जाता है ये जिन्नाद
हर ख़ुशी...हर मुस्कान
और फिर से सामने लाकर
खड़ा कर देता है
वही मंज़र....वही दशा..
एक लम्बे संघर्ष के बाद
जिससे निकल कर हम
वर्तमान के गुलशन में प्रवेश करते हैं

बना देता है
मन का हर हिस्सा उजाड़
जीवन को सूखे पत्ते सा झाड़ देती है
बेजार जमीन पर
जहाँ सुख कि हरियाली कि
कोई संभावना नहीं बचती 
और फिर
केवल भटकना और ठोकर ही 
नियति बन जाती है !!

_______________परी ऍम 'श्लोक'

Monday, August 25, 2014

"इस तरह चाहो"


कहें तो कहें कैसे ?


राज़ दफ़न है सीने में
जो कहना भी जरुरी है
मुझे पूरी भी करनी है
वो जो दास्तान अधूरी है

मगर कहें तो कहें कैसे ?

तू मशगूल है अपने मसले में
मैं अपने दिल से आहत हूँ
सोचती हूँ की तू ही कहदे
की मैं तेरी आखिरी चाहत हूँ

बस इसी ताका-ताकी में 'श्लोक'
रह जाते है वाजिब एहसास
तुमसे साँझा करने को
और फिर अपने जज्बात
तसल्ली से कहने को
ढूंढती हूँ तुम्हारे साथ
बेफिक्री के चंद लम्हे

मगर कहें तो कहें कैसे ?

कभी वक़्त तेरे पास नहीं
तो कभी वक़्त मेरे पास नहीं !!

____________________परी ऍम 'श्लोक'

"तेरा बिछड़ना बड़ा दुःखदायी था"

जैसे कोई लूट गया हो जहान मेरा
तेरा बिछड़ना बड़ा दुःखदायी था

तेरा ही नाम था लबो पर मेरे
और अश्को से मचा तबाही था

रात तड़पी और बहुत मैं चीखी
मगर दर्द का कहाँ सुनवाई था?

मत पूछो कि कैसे गुजारे ये दिन
जिंदगी में न रंग न रानाई था

कोई मंज़िल न रही फिर बाकी
हर राह-ए-मोड़ पर तन्हाई थी  

यही सोचा था समझा लूँगी खुदको
कि मेरा सनम.. बड़ा हरजाई था

दिल से फेकने के तेरे जुर्म का
मेरा हर लम्हा दे रहा गवाही था

फकत .....
अफ़सोस रहा तो बस इस बात का मुझको

तुझे देने को मोहोब्बत के सिवा
मेरे दामन में सज़ा नही था
वरना दिल तोड़ने से भी बुरा
इस ज़माने में दूजा गुनाह नही था

__________परी ऍम 'श्लोक'

Saturday, August 23, 2014

"सबके भय से मेरे साहस को हवा मिलती है"

मैं आज़ाद हूँ
कोई बंदिश नहीं मुझपे
मुझसे कोई सवाल तलब नही करता
मेरी किसी को जवाबदेही नहीं
हूँ तो मर्द ही न
बेटा हूँ तो कभी किसी का पति
दाब रहता है मेरा
माँ सोचती है मैं बच्चा हूँ
बीवी समझती है मैं शरीफ
आ... हा..
यही तो विडम्बना है
बहुत बड़ी भूल है इनकी
मुझे अपने मनसूबे को अंजाम देने में
इनलोगो का यही अन्धविश्वास
बहुत काम आता है
किसी को पता ही नहीं
कभी बस में ..कही मेट्रो में ..
कभी खाली सड़क..कभी भरा बाजार
कहीं भी उतर आता हूँ मैं अपनी नीचता पर 
घर से बाहर मैं बिलकुल
खुले सांड कि तरह होता हूँ
लाल कपड़े सी
लड़कियों कि खुशबू सूंघते ही  
ढेरो संवेदनाओ का संचरण होता है मुझमे 
हार्मोन से खिंचता हूँ
लड़की दिख जाए तो
जो मुँह में आये बकता हूँ
मैं किसी से उम्र नही पूछता
क्यूंकि है तो स्त्री ही न
और मेरे लिए वो बस देह है
जिसे देख कर मैं बउरा जाता हूँ
बस सीधा छेड़छाड़ करता हूँ
मन में आये तो
इससे भी पार जाता हूँ
मुझे पाना होता है
और मैं पा लेता हूँ स्त्री को
कभी बल से तो कभी छल से
जब कोई मेरे आगे
न करे विरोध करे
तो झल्लाता हूँ
कभी जान से मार देता हूँ
कभी तेज़ाब डाल देता हूँ..
मुझे पसंद नहीं
कोई स्त्री मुझपे चीखे
या मेरी मंशा के आड़े आये
जो करुँ चुपचाप सह ले
अपना भाग्य बना ले इसे
जानते हो
मेरे साहस को कितनी हवा मिलती है
जब मैं कोई घिनौना काम करता हूँ
लोग केवल तमाशा देखते हैं
कोई बोलता नहीं
नपुंसक है कायर है सब
और मैं सबसे बलशाली
जिससे सब खौफ खाते है
लगता है इस बात से अनभिज्ञ है वो सब
ऐसे ही उनकी बेटियां भी आय दिन
हमारे द्वारा उत्पीड़न से गुजरती हैं
बेवकूफ लोग
जब तक ऐसे रहेंगे
हम जैसे हैं वैसे ही करते रहेंगे !!!


____________परी ऍम 'श्लोक'


 

Friday, August 22, 2014

"तुम और तुम्हारे मापदंड अपने पास रखो"

तुम और तुम्हारे मापदंड
अपने पास रखो
मैं कोई बाजार में बिकती चीज़ नही
जिसकी सौदेबाज़ी करने आये हो
और लेकर चिटठा खड़े हो गए हो
ये आता है वो आता है
मुझे ये पसंद है वो भाता है
तुम्हे ये सब करना होगा
नहीं तुम्हे ये सुधारना होगा
ऐसा बनना होगा
ऐसा ही करना होगा

उर्फ़
मेरे बस की बात नहीं
मैं तुम्हे जानती ही कितना हूँ
और क्यों तुम्हारे मापदंडो पे
एकदम सटीक बिठाऊँ खुद को
अभी तुम्हारे लिए
ऐसी अनुभूति भी तो नहीं
कि तुम्हारे हिसाब से ढाल लूँ खुद को
तुम्हारे साथ बंधना
मेरी कोई मज़बूरी नहीं
मैं कोई बोझ नहीं
अपना जीवन यापन
अकेले भी कर सकती हूँ
किसी पुरुष का जीवन में होना
इतना भी अनिवार्य नही
मैं तो बस इस परंपरा को
सम्मान देती हूँ
किन्तु ये मेरी निर्बलता नही

तुम मुझे
अपने बैडरूम का सामान समझ के
मेरी हसरतो को खिलवाड़ समझ के
अपनी इच्छाओ को लादने की गलती न करो
वरना यदि मैं अपनी इच्छाएं बताउंगी
तो तुम्हारे पास अपने लिए
उन खूबियों को खरीदने को
तुम्हारे पैसे कम पड़ जाएंगे

मुझपर ये तुम्हारा कोई एहसान नही है
कि तुमसे नज़रे झुका के बात करूँ
सिन्दूर और मंगलसूत्र डाल कर
तुम्हारे इशारो पर नाचने का
बन्दर नही ले कर जा रहे हो तुम
जिस रिश्ते में मुझे बांधने को तुम आये हो
वो समर्पण..विश्वास..प्यार और समझ का रिश्ता है
कोई सौदेबाज़ी नही
और न कोई एहसान
जितनी ज़रूरत मुझे तुम्हारे साथ और वफ़ा कि है
उतनी ही ज़रूरत तुम्हे मेरे साथ और वफ़ा कि है

बेहतर होगा
मापदंड लादने और अपेक्षाएं रखने से ज्यादा
इक दूसरे को समझा जाए
सूरत आंकने से पहने
सीरत कि खूबसूरती को जाना जाए
ताकि जीवन का ये मुश्किल सफर
यादगार..आसान और नायाब बनाया जा सके !!!


_________________परी ऍम 'श्लोक'





याद है तुम्हे ?


Thursday, August 21, 2014

पर कभी-कभी ....

समझ नहीं आ रहा था
किसको ज्यादा तवज्जु दूँ
भाई के खिलौने के टूटने को
या किसी अद्भुत
सपने के पाश-पाश होने को
चुनाव बहुत मुश्किल हो जाता है
जब भावनाओ के कैनवास पर
कोई मनचाहा
चित्र उभर जाए तो फिर
लेकिन जब जिम्मेदारियां
कांधो पर चढ़ बैठती हैं
तो अपनी ख़ुशी कहीं दब जाती हैं
हम खो जाते हैं इस गुबार में
नज़र आता है तो बस
उन अपनों कि तमाम ख्वाइशें
जिन्हे पूरा करने में
अलग ही सकून का अनुभव होता है
और जिनके मुस्कान के झरनो में 
धुल जाते हैं हर अवसाद
परन्तु कभी-कभी
अफ़सोस पनप जाता है
जब किया हुआ समर्पण
अपेक्षाओं कि इस बड़ी मण्डी में
बेभाव... बेकार....रह जाता है
जिनको पूरा करते हुए
जाने कितनो ही
आरज़ूओं को
गिरवी रख दिया गया हो !!


_______________परी ऍम 'श्लोक'
 

Wednesday, August 20, 2014

'समाज के महाखलनायको बताओ मुझे'

आखिर क्यों पापा
मैं आपके लिए सिर्फ
इज्जत की पगड़ी बन के रह गयी
जो मेरी मर्जी की बात आते ही
अक्सर उछल जाया करती रही
क्यों माँ मैं आपके लिए
आपके संस्कारो और आदर्शो की
मात्र ओढ़नी सी रही
जैसे मेरी चाहते कोई कांटा हो
जिसमे में ये ओढ़नी फस के
बार-बार फट जाया करती रही
भाई तुम तो मेरे रक्षक थे न
जिसे मैंने कई वर्षो तक
भाई बहन के प्यार का साक्षी
पवित्र धागा बाँधा था
फिर कैसे रक्षाबंधन के धागे को
मेरे लिए
कभी फाँसी ..कभी गोली,,,कभी जहर,,
तो कभी चाक़ू छूरी बनाया तुमने
प्रेम करना बुरा तो नहीं
आपने ही तो सिखाया था
प्यार का महत्व जीवन में
तो फिर बस यही तो किया मैंने
सिर्फ प्रेम अपनी मर्जी का
जीवन साथी चुनने का साहस
नहीं आपकी नज़र में ये दुस्साहस है
बेशक बिलकुल नहीं जाना धर्म..जात....औकात
प्रेम करने से पहले ..
और आज मैं आपके लिए अपराधी बन गयी
सिर्फ एक अनुभूति का पनपना मेरे मन में
आपके नफरत का सबब बन गया
सब कुछ एक क्षण में परवर्तित हो गया
और आप सबने मिलके
रिश्ते को तार-तार कर दिया
मुझे मार कर लटका दिया
चौराहे पर
छीन लिया मेरे जीने का अधिकार
आखिर क्यों
और फिर कायरो कि तरह
अपनी काली करतूतो पे फेरते रहे
झूठे आंसुओ का रुमाल
लेकिन मुझे बताओ तुम
समाज के महाखलनायको
जलीलो ... असंवेदनाओ के जहरीले साँपो
कि आज तुम्हारी पगड़ियों में
कितने नगीने लग गए
इस क्रूर कृत्य से उपरान्त
आज तुम्हे कितने लोग सलामी दे रहे हैं
कौन झुकाये खड़ा है तुम्हारे सामने सर
आइना लाओ निहारो अपने आप को
झुकाये सर खड़े होंगे
दुनिया के सबसे हारे हुए ..गिरे हुए..हिंसक इंसान
जिसकी आत्मा
जिन्हे बार-बार लगातार दुत्कार रही होगी
मुझे जवाब दो 
कब तक चलेगा
इस घिनौने अपराध का सिलसिला
परम्पराओ आदर्शो ,
शान और सम्मान के नाम पर !!!


___________________परी ऍम 'श्लोक'

"खामोश सदा"

अभी अभी
बटोर के संभली हूँ
ख़्यालों के फर्श पे बिखरी हुई
तुम्हारे यादों की
झिलमिलाती मोतियाँ
और बाँध के रख ली है पोटली
फिर लिखने को
जज़्बातों से लदबद खूबसूरत इबारत
रात की तनहा सुनसान लहरों पर
दिलकश लव्ज़ तलाश रही हूँ
ताकि रात को अहमियत मिल जाए
और मुझे निजात उन तमाम
बेचैनियों से
जो तुम्हारे आने से पहले
और तुम्हारे जाने के बाद
मुझे अपने गिरफ्त में रखने की
गुस्ताखी पर उतर आती हैं
ऐसे बेहाल हाल से
चंद शब मैं करार पाने को
जो अफ़साना बुन रही हूँ
तुम भी पढ़ना वो खामोश सदा
मेरी जुबां  ..मेरे लव्ज़ ...
और मेरे सुलगते एहसास हैं ये
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए !!!

_____________परी ऍम 'श्लोक'

दर्द मेरे हिस्से का

अचानक ही मानो
किसी ने जबरन घोट दी हो साँसे
और एक बार भी न पूछा हो
मेरी आखिरी ख्वाइश क्या है ?
जैसे उसे भय था कि
कहीं मांग न लू तुम्हे

मानो हालातों की चक्कियों में
डाल कर तुम्हारे लिए
तमाम जज़्बात लिए दौड़ती
धड़कनों को पीस डाला गया हो
और फिर किसी ताबूत में रख
दफ़न कर दिया गया हो
ताकि उसके चुरखनो के लबों से निकले
तुम्हारे नाम को दबाया जा सके

जैसे काटा जा रहा हो
जज़्बातों की नसों को आहिस्ता-आहिस्ता
और कोई बद से बत्तर खूंखार आवाज़
मेरी कानों का पर्दा फाड़
आत्मा में कील ठोक रहा हो

फट गया हो जैसे बादल
बह गयी हो उसमे सारी खुशियां
रह गया बचा हुआ दर्द का कंकड़ पत्थर

तुम्हारा मेरे हाथों को छोड़ देना
जिंदगी को कहीं किसी गुमनाम खायी में फेंक आया
मेरे हिस्से में आई हैं तो बस बेहिसाब तबाही
उम्र भर जिसकी भरपाई
कोई दिन....कोई तारीक नहीं कर पाया
और मैं सिर्फ
चेहरे पर हँसी कि चकती लगा कर
रिश्तो के बाजार में झूठ बेचती रही !!

______________परी ऍम 'श्लोक'

जान लो .....

जान लो
ये हकीकत
अक्सर
बेपर्दा रहे तो अच्छा है

तुम्हारी जिंदगी के
चूल्हे में  
मेरे वज़ूद का
ईंधन जलता है
और
उस पर सेंकती हूँ
मैं चाहतो की रोटी
आस का मक्खन लगा के
वक़्त को
चखाती रहती हूँ

ताकि वक़्त मेरी
चाहत की मांग करे
और
मेरी चाहत
तुम्हारे लिए
फिर कभी न ख़त्म न होने वाला
सिलसिला बन जाए !!



______________परी ऍम 'श्लोक'

तुम्हारे लम्स को छूकर ......


तुम्हारे लम्स को छूकर
उसकी खुश्बुओ में मैंने महसूस किया है
मोहोब्बत की गर्माहट.......
कभी इस आँच में सुलगता है तू
तो कभी इस तपन से जलती हूँ मैं ..

अनकही बातो के जंगल में
बेसब्री के तूफानों से शोर मचा
चुप्पियाँ तोड़ने से पहले
सो सवाल उठते-बैठते रहे
किसी भी करवट में
सकून का होना दुश्वार हो गया

खिलाफत धड़कनो ने भी कर दी है 
मेरी हुकूमत मेरी हकदारियां
मेरा ही दिल जब्त कर लिया तुमने

अब दिल तेरी सल्तनत है
और तू इसका सुल्तान  
तुम्हे महसूस करके
एहसास के फुव्हारो से
भीग जाती हूँ मैं रूह तक
बेरंग जिंदगी की शाखों में रोशनी
और कई रंग उतर जाते है

तेरा जिक्र कभी तन्हाईयो से करती हूँ
कभी बहती पुरवाइयो से
तुम मेरे सोच की अमीरी बन गए हो
एक ऐसा खजाना
जिसे न तो चुराया जा सकता है
और न मिटाया !!

_______________परी ऍम 'श्लोक'

Tuesday, August 19, 2014

"इक तलाश हैं मुझे भी"

मुड़ती गयी
चलती रही
बंद रास्ते अँधेरी गलियों के बीच
कभी किसी मोड़
तो कभी किसी चौक से गुज़रती रही

जिंदगी जैसे कोई तवायफ हो
खुशियाँ आई और बिखेर के जाती रही

रुकना फिर मेरी शान में नहीं
आदत रही अक्सर
तसल्लियों के टांको से
कटे-फटे आस को सिलने की
कांटे मेरी तकदीर का ओढ़ना-बिछौना रहे
रहा सवाल दर्द का
पत्थरो के सीने में उठी हलचल
मज़ाक का सबब हैं और कुछ नहीं...

मालूम नहीं मकसद
इस लव्ज़ से पहली बार रूबरू हूँ
मगर आखिर जीने कि वजह क्या हैं?
इन पहेलिओ की गर्माहट में
हल्का-हल्का सा महसूस होता हैं
कभी कभी

कि
शायद !
इक प्यास हैं मुझे भी
इक तलाश हैं मुझे भी !!


_______________परी ऍम 'श्लोक'

 

Saturday, August 16, 2014

प्रश्न ??????


जब सब लोग लिख रहे थे
स्वतंत्रता दिवस पर
लेख और रचना
मैंने भी लिखी थी चंद पंक्तियाँ

लेकिन
एका एक मेरी कलम रुक गयी
जैसे सुस्ताना चाहती हो
कुछ वारदात मेरे जेहन में उतर आये
और मेरी अंतरात्मा तक कर्राह उठी  

लेकिन उस वक़्त मैं चुप रही
अपनी कलम को थपथपा के सुला दिया
सुस्ताने का समय दिया 
क्यूंकि उस वक़्त अगर लिखती
तो शायद !
शब्द गुस्से में मर्यादा लाँघ जाते
जो मैं नहीं चाहती थी

उस वक़्त मैंने नहीं रोका
किसी भी ख्याल को आने-जाने से
खोल दिया दरवाज़ा और स्वागत किया
हर पीड़ादेह सिलसिले का

सोचती रही
कि क्या वाकई में आज़ादी
मेरे हिस्से में भी आई है
आज़ाद हुआ था जब देश
तो खुश हुई मैं भी कितनी
कितनो ही नारियो कि
भागेदारी रही इस आज़ादी कि लड़ाई में
आखिरकार आज़ादी मिली
पर मुझे समाज के नियमो ने
फिर बंदी बना लिया

मैं लड़ी
कभी दहेज़ प्रथा के लिए
तो कभी जली परंपरा कि इस आग में
मेरी आवाज़ को दबाने में जुटा रहा समाज
मैं न बोलूं तो गरिमा में हूँ
कुछ बोलूं तो घर कि इज्जत चली जाती रही
खुद को घूँघट में समेटे हुए
दुनियाँ को जी भर को देखने तक को तरसी
कितनी तड़पी,,,कितनी बरसी
और आँचल से पोंछ लिया अपना दर्द
कहती तो किससे
बात घूम फिर के आती रही
औरत का यही जीवन है

धीरे-धीरे तोड़ा मैंने
इन ज़ंज़ीरो का लौहा 
हौसलों से रेत कर कमज़ोर कर दिया
उठी और
कन्धा मिला के चलने लगी
दिखाया अपना दम्य
कि हम चूल्हा चौके से बाहर निकल
कंप्यूटर में उंगलियां फेरे...
चाँद पर जाए तो..एवरेस्ट पर चढ़े
तो इतिहास लिखा करते हैं

लेकिन खुशियो के इन करवाह के साथ चला
मन कि नसों को काट कर खून-खून करता दौर
जब मारे जाने लगी बेटियां कोख में
जब रेप होने लगा हर बाइस मिनट में
जब औरत घरेलु हिंसा के चुंगल में
नोची, घसोटी गयी, बेआबरू हुई,
मानसिक तौर पर प्रताड़ित कि गयी
जब ऑनर किलिंग ने कंपकंपाया
बेटियो कि तस्करी ने कलेजा छील दिया
जब तेज़ाब कि शिकार हुई
नजाने कितनी ही मासूम 
जब बाहुबलियों ने कुचला
निर्बल पक्ष कि स्त्रियों का 
बार-बार मान सम्मान

ऐसे में मैं सोचूं तो सोचूं कैसे ?
कि आज़ाद हूँ मैं
मेरे लिए आज भी
ये शब्द प्रश्नचिन्ह के घेरे में हैं
हाँ !
आज़ाद है देश
आज़ादी हूँ मैं भी संविधान में लिखित तौर पे
तमाम कानून है मेरे हक़ में
किन्तु वास्तविकता से कैसे मुँह फेरु
कि गुलाम बन के रह गयी हूँ मैं डर कि
गंदे कुंठित समाज के कीड़े मकौड़ों से
जो इतने जहरीले हैं जिनका ज़हर
मेरे अस्तित्व को जीता जागता लाश बना देता है
लगता है डर वीरान..सुनसान जगहों से
मुझे हर जगह महसूस होती है असुरक्षा

तो क्या सच में कहूँ ?
आज़ाद हूँ मैं ?? या कहूँ कि गुलाम हूँ मैं ??
काश ! कि ये दुविधा ख़त्म हो !!

________________परी ऍम श्लोक

हो न हो...तुम आओगे ज़रूर


बार बार
अंधेरो में रोशनी
टटोलती हूँ
और ओंधे मुँह
गिर पड़ती हूँ

उम्मीद का 
परिणाम
हर बार मिलता है
किन्तु बेकार ,
टूटा,
बिखरा हुआ
पर मन के हाथो
इस चूक से मिली
पीड़ा को
पुचकार कर
उतर जाती हूँ
फिर से
उस इंतज़ार कि
गहरी लम्बी
नदी में
जिसका
न ओर मिलता है
न ही छोर
बस इक धुंधला मंज़र है
जो खींचता है मुझे
शायद!
ज़ोर से
झिड़कने के लिए

रह गयी हूँ मैं बस
मोम सी पिघलने के लिए
जिन्हे परिस्थितियों की गर्म हवा
जाने कब टघला के
काया पलट दे
कुछ कहा नहीं जा सकता

बस अब
कुछ ही क्षण
ओर
बर्फ सी कठोर हूँ
जब तक इस
यकीन की ठंडक
भीतर से नहीं जाती

कि हो न हो
तुम आओगे ज़रूर !!

_____________परी ऍम श्लोक 

कम शब्द..गहरे भाव

मेरे
शब्दकोष में
कम है
शब्द....
किन्तु
मन के
महासागर में
गहरे हैं
भाव....
और
फिर है ये
संदेह भी
कहीं
ये पन्ने
ईर्ष्या से
जल के
ख़ाक न हो जाएँ
तेरे लिए
मेरे दिल में
उफनते
बेहिसाब
ज़स्बातो की
भनक पड़ते ही !!

________________परी ऍम 'श्लोक'

तुम्हारा यूँ मेरा हो जाना

तुम्हारे
साँसो की गर्मियां
खिला देती है
अरमानो के
घने महकते फूल
दिल की बंजर
ज़मीन को
तब्दील कर देती हैं
रंग भरे गुलशन में !

तुम्हारे
स्पर्श की नरमियाँ
सारी कठोरता
हर ले जाती है
घोल देती है
धमनियों में
प्रणय का मीठा रस
आसान बना देती है
मुश्किलातो का दौर !

तुम्हारा
मेरे हो जाने
कि दावेदारी 
खुशियो की 
झड़ी लगा देती है
आत्मा को संतुष्ट
स्वच्छ और निर्मल बना देती है
मुस्कुराहटों की फुहार से
तन-मन भिगो जाती है
और दे जाती है

खाली खाली सी
बेवजह चल रही
जिंदगी को
जीने के खूबसूरत नए मायने !

  ______________परी ऍम 'श्लोक'

इससे पहले ....

पहले जब कभी
तुम नाराज़ होते थे
तो अक्सर लगा मुझे
सम्भवता
मेरी ही गलती होगी
और
तुमसे हर बात की
क्षमा मांग लेती थी

किन्तु
अब इतने वर्षो में
हर दिन वही प्रतिक्रिया
तुम्हारा स्वभाव बन गयी
जो तुम्हारे बातो की
अहमियत गिराती गयी
खुद को ढाल लिया है मैंने 
तुम्हारे इस
अजीब गरीब अदा में
और
अपना वचन निभाती गयी


तुम्हे श्रेष्ठ बनाते बनाते
कदाचित मेरे ही भीतर
धीरे-धीरे गुण बढ़ता गया है ...

मुस्कुराने की जिद्द
और अब
बेफिक्र रहने की
आदि हो गयी हूँ मैं !!



___________परी ऍम 'श्लोक'

Wednesday, August 13, 2014

"कितने गिले हैं"

इस जिंदगी से कितने गिले हैं
ठहरे जो दिल में वो बिछड़े हैं

जो ख़्वाब सजाया शिद्दत लगा के
टुकड़े उन्ही के अक्सर चुभे हैं

हँसते हुए जब लगते हैं अच्छे
फिर गम के साये क्यूँ लिपटे हुए हैं

क्या सीख कर पाया हैं हमने
अपने ही तर्ज़ुर्बो में खुद जले हैं

किसको सुनाते हम अपनी कहानी
हर इंसान अपनी धुन में चले हैं

अपनी भी ऐसी रही जिंदगानी
समंदर थे हम और प्यासे रहे हैं

कैसे पा लेते भला पूरी कायनात
जब खुद ही ताउम्र अधूरे रहे हैं

उसको याद होंगे हम सोचे भी कैसे
हिचकियों को आये हुए अरसे हुए हैं

जिनके लिए बेचे थे अरमान अपने
उनके ठोकर में हम अब खुद पड़े हैं

वक़्त की आंधी से टकरा के 'श्लोक'
हम तिनके से हर ओर बिखरे पड़े हैं


______________परी ऍम श्लोक

Tuesday, August 12, 2014

"मानवता का अलाव"

समाज में हो रही है
वही घटनाएं निरंतर
यदि बदला है तो सिर्फ
दिन.. तारीक...साल
और कानून कि धाराएं

अनगिनत हाथो से जलती है
शान्ति और इन्साफ की कामना
कि वो लौ
कहना मुश्किल है
इनमे कितने हाथ ऐसे होंगे
जो खुद ऐसे अपराधो को अंजाम देते हैं
क्यूंकि चहरे पर नहीं लिखा होता
किसी के सोच की भाषा
उस भीड़ में शामिल हो जाते हैं
कुछ प्रतिशत अच्छे लोगो के साथ
भेड़िये ... गिद्ध और कुकुर....

लेकिन फिर
चौराहे पर जलायी हुई
मोमबत्तियाँ बुझते ही
ख़त्म हो जाता है
एक पीड़ादेह अध्याय
अगला पन्ना पलटते ही मिलती है
फिर से निर्भया
वही सब कुछ सहती हुई
होता है फिर वही घिनौना कृत्य
किसी दूसरे स्थान पर
दूसरे ही पल

तुम ही बताओ ...
क्या ये मानवता है ?
ये नैतिकता है ?
और क्या ये सुधार है ? छी...

अपराध का
अँधेरा तो आज भी कायम है

सुनो !
जागो इक बार... करो विरोध
जब भी देखो ऐसा दुस्साहस

धृतराष्ट्र मत बनो..
मत शय दो
कलयुग के दुर्योधनो को
मत बनो गंधारी हे नारी

चौराहो ने नहीं मांगी है
जली हुई मोमबत्तियाँ तुमसे
अगर जलाना है तो जलाओ
अपने भीतर अच्छी मानसिकता
और मानवता का अलाव
नारी के प्रति सम्मान का  दीपक  !

_______________________परी ऍम श्लोक

"खूबसूरत अहसासों का समावेश है"

बोलती खामोशियाँ है
हवाओ की सरगोशियाँ हैं
टपकते अहसास हैं
उफनते जज्बात हैं
बजती सारंगी है
महकता लम्हा है
बहकता तसवुर है
यादो की जुगनू है
ओस की बूँद हैं
सीप है मोती हैं
बेकाबू लहरे हैं
बेपरवाह हौसले हैं
बेशुमार खुमार हैं
महफ़िल हैं वीरानियाँ हैं
बेताबियाँ है बेक़रारियां हैं
धूप है कभी छांव
बिखरते रंग हैं
कभी मिलन है
तो कभी जुदाई भी हैं
ऐसे ही
अनगिनत खूबसूरत
अहसासों का समावेश है
ज़र्रे-ज़र्रे में समाया है
केवल शब्द नहीं 'प्रेम'
एक गूढ भाव हैं
और इसे
पूर्णतया महसूस करने के लिए
अहसासों का पनपना
दोनों तरफ ज़रूरी है


 ______________परी ऍम श्लोक

Monday, August 11, 2014

"नारी सबला है"

मुझे फलक
तक जाने की आरज़ू थी
मैंने बेड़ियां तोड़ी
किन्तु मर्यादा बनाये रखी
पर घर से बाहर
कदम निकालते ही
घृणित पुरुषो ने पीछा किया
लेकिन मैं भी रुकी नहीं
उनसे फब्तियां कसी
मेरा मनोबल तोड़ने को
लेकिन मैं 
डरी और सहमी नहीं
मैंने धुएं में उड़ा दिया
उसे अहंकार था
अपने पुरुष होने पर
अपनी ताकत पर
इसलिए ही शायद
वो उसे आजमाने की
कोशिश कर रहा था
मुझे असहाय समझ के 
बात हद तक रहती
तो मैं भी चुप रहती
क्यूंकि माँ अक्सर कहती है
कुत्ते यदि भोंके तो
हाथी की तरह
मस्त होकर गुजर जाना
पर
वो अपनी भेड़िये की
औकात पे आया
उसने दुपट्टा खींचा
मैं जिद्द में आई
गुस्से में आग बबूली हो गयी
उठाया तमाचा
और
जड़ दिया गाल पे
छाप दिए उसका इनाम
उसके मुँह पर 
थूक दिया उसके चहरे पर
थूकदान से ज्यादा
मेरी नज़र में
नहीं है उसकी हैसियत
साथ ही बता दिया की
नारी कमज़ोर नहीं है
यदि नारी में हद से ज्यादा
सहन की क्षमता है
जो तुम्हारी नीचता को सह सके 

तो सुनो !
उसमे आक्रोश की
ज्वालामुखी भी सीमाहीन है !!


______________________परी ऍम 'श्लोक'

कैसा नियम ??

मैंने कहा
मुझे माफ़ करदो
उसने कहा ऐसे कैसे
गलती की है तुमने
सज़ा मिलेगी
मैंने पूछा कब तक
उसने कहा आजीवन
मेरा प्रश्न फिर
लेकिन क्यों
उसने कहा
स्त्री हो तुम !

फिर खता उसने की
मैंने नज़र झुका के पूछा
तुमने ऐसा क्यों किया
उसने कहा
प्रश्न सिर्फ मैं कर सकता हूँ
और मैं तो ऐसा ही हूँ
तुम्हे सहना पड़ेगा
बिना कुछ बोले
क्यूंकि
मैं पुरुष हूँ
बलशाली हूँ
मैं तुम्हे जुए में हार भी सकता हूँ
जीत भी सकता हूँ
लेकिन तुम्हे
ये अधिकार नहीं
मैं तुम्हारा पति परमेश्वर हूँ !!

__________________परी ऍम 'श्लोक'

Saturday, August 9, 2014

समझौता सदैव स्त्री ही करती है !

पुरुष हमेशा
देह चाहता है....

स्त्री प्रेम

और फिर

समर्पण
हो या
समझौता

सदैव
स्त्री ही करती है !



____________परी ऍम श्लोक

Thursday, August 7, 2014

कल और आज

जायज़ था
वो हर मायने में
जो कल होकर गुजरा
अच्छा बुरा जैसा भी 

कल जो
हाल-ए-हालात थे
बहुत तर्ज़ुर्बा दे गए
जीवन की कला क्षेत्र का
कलाकार बना गए 
जीने की कला सिखा गए मुझे
बता गए समर्पण भाव
संतुष्ट बना दिया मुझे
बढ़ा गए सहनशक्ति
सौंप गए मुझे विवेक
कुछ खोने का भय
तक मार गया वो कल

कल मैं नादान थी
आज गंभीरता है मुझमे

अतीत एक ऐसा पाठ्यक्रम बना 
जिसके प्रश्नो का उत्तर
आज मैं पाती जा रही हूँ

जो कुछ भी हो रहा है
मैं जीतनी भी सक्षम
बना पायी हूँ खुदको

इस बात से नकार नहीं सकती
कि ये कल से मिली
सीख की ही बदौलत है !!


-------------------परी ऍम 'श्लोक'

Wednesday, August 6, 2014

सम्बन्धो का सेतु

झूठा सा भान हुआ था
कि रेत का
सहरा हो गया है
दिल !
 
बंज़र...बदहवास..
सूख के चटक चुके है
जज्बात !
 
मिट चुका है
जीवन के अध्याय से
तुम्हारे होने
और न होने का अर्थ !
 
पर तुम्हारी याद के बाद
आँखों में उतरी
जो सुनामी मैंने देखी
वो गलतफहमियों को
अपने साथ बहा ले गयी !
 
यकीन मानो
मैंने पुरे शिद्दत के साथ
फैसलों का पहाड़ उठाया था
संतोष का खुराक लेकर
काट रही थी समय !
 
लेकिन फिर
स्नेह कि चासनी से
लबालब भरे उन यादो ने
मुझे लालच में डाल दिया
अपने ही फैसले पर
कमज़ोर पड़ने लगी हूँ मैं !
 
सोचती हूँ
कह दूँ तुम्हे
एक बार फिर
कि लौट आओ!

जिन अहसासों के जंगल में
गुस्से कि आग मैंने लगायी थी
वो सावन कि
रिमझिम बूंदो ने बुझा दी है !
पर अब कहाँ रहा उचित
ये कहने को.....

अब जब टूट गया है
सम्बन्धो का सेतु
तो कैसे मिल सकते हैं भला
प्रेम लिए दो किनारे !!

Tuesday, August 5, 2014

नशा............


सुना था मैंने
नशा प्यार में होता है
जो डूब गया
फिर उभर कर
पार नहीं पाता .....

तुम्हारे बारे में
सच कहूँ

तो नशा तुम्हे भी है
इस नशे में तुम
रूहानी बाते करते हो ......

जैसे पढ़ा हो तुमने
बड़े कायदे से
प्यार का कोई शास्त्र..

लिखा हो अहसास भरे
अजन्मे शब्दों के
संयोग से अफ़साना...

मगर
टूट के रह जाता है
मेरा भरम उस पल
जब इस नशे का नकाब
उतरते ही
तुम मेरी पहचान
साकी
और खुद को
शराबी
करार देते हो !!!


-----------------परी ऍम 'श्लोक'

"यही मेरी मोहोब्बत का परिचय है"

चढ़ बैठते हो
पलकों की मुढ़ेर पर
और
गिरा कर
तोड़ देते हो
मेरे सपनो का गमला
फहरा देते हो
अपने अरमानो का झंडा
मैं सलामी देती हूँ
बिना किसी उफ़ के
तहे दिल से झुक के

देते हो कई घाव मुझे
मैं मुस्कुरा के
फैला देती हूँ हाथ
तुम्हे अपने आग़ोश में भरने के लिए 
पागल कहो
या फिर जाहिल मुझे
पर असल में
यही मेरी मोहोब्बत का परिचय है

जो मांगता कुछ नहीं
पर देना बहुत कुछ जानता है !!


-------------परी ऍम श्लोक

Monday, August 4, 2014

छुप जाए जब पीड़ा गालो की लाली में

छुप जाए जब पीड़ा गालो की लाली में
आँखों से बहता झरना फिर कौन देखता है
 
खुद का पेट भरा हो फिर किसी से क्या मतलब
भूखे गरीब को दाना पानी कौन पूछता हैं
 
जब तक मिले न कुर्सी तब तक रोज़ भटकता है
नेता बनकर जनता कि फिर कौन सोचता है
 
बड़े-बड़े नेताओ की पार्टी में जाम लगाए जाते हैं
मुजफ्फरनगर की हिंसा का हाल कौन पूछता हैं
 
निर्भया के लाश की भी अस्मत उतारी जाती है
नारी को नारायणी बना कर अब कौन पूजता है

बेरोज़गारी..बेकारी..घूस दो तो मिले नौकरी सरकारी
सरकारी दफ्तरों में लोकपाल बिल कौन पूछता हैं
 
लौट आया खाली बाजार से भाव छूते देख आसमान
जेब गरम है या ठंडी महंगाई हररोज़ पूछती है
 
बहुत सुना था मैंने भी अच्छे दिन आने वाले हैं
बुरे दिनों में ऐसे वहमो से इंसान रोज़ जूझता हैं
 
 
 
-------------------------परी ऍम 'श्लोक'
 

Sunday, August 3, 2014

अस्तित्व

इस
चार दिन की
जिंदगी के

अनजाने अनचाहे
रास्तो में

कई बार
खोया है
खुद को मैंने

इतनी मज़बूती से
अपने अस्तित्व को

पाने के लिए !!


--------------परी ऍम श्लोक

कवि की कसक

तू भी कवि है
मैं भी कवि हूँ
कलम तेरी तलवार
श्याही मेरी भी लहू है
शब्द तेरे भी भीगे
अल्फ़ाज़ मेरे भी कोमल
भाव तेरे भी तीखे
अभिव्यक्ति में मेरे भी तेवर
जहन तेरा भी जिन्दा
सोच में मेरे भी जुनूँ है
तू भी है विरोधी
और मैं भी बागी हूँ

फर्क नहीं
तेरे और मेरे ओंदे में
लेकिन
बस फर्क इतना है.....
तेरी कविताएं
किताबो और अखबारों में छप गयी
और
मेरी डायरी में पड़े पड़े फट गयी
तुम्हारी बड़े मंचो पर सराही गयी
मेरी तन्हाईओं में उड़ाई गयी
तुम्हारी अभिव्यक्ति को
सबने पढ़ा और जाना
मेरी अभिव्यक्ति को मैंने पढ़ा
और बस मैंने जाना
तेरी आवाज़ गूंजी
और मेरी आवाज़ को
डायरी के पन्नो में
दफ़न कर दिया गया !!!


------------------- परी ऍम श्लोक