ख़त्म ये गिला शिकवा हो जाए
नया सा शुरू सिलसिला हो जाए
लबों पर सलामत रहे सदियों
तक
उठे हाथ जब भी दुआ हो जाए
रहेगी कमी फिर ज़माने में क्या
जो महबूब अपना
ख़ुदा हो जाए
इसे खुश नसीबी समझ
लेंगे हम
जो हर साँस
उन पर फ़ना हो जाए
मज़ा फिर बिखरने में भी
आएगा
बने फूल हम वो हवा हो जाए
मुझे काश जुर्म – ए - मुहब्बत में जाँ
तेरे साथ की ही सज़ा हो जाए
निभाना न आये वफ़ा
जिनको भी
मेरी जिंदगी से दफा हो जाए
वही आदमी से किनारा कर लो
बड़ी जब किसी
की अना हो जाए
अजी जिंदगी का भरोसा
ही क्या
मना लो जो कोई खफ़ा
हो जाए
बड़ी तल्ख़ मालूम पड़ती है गर
सनम पास आकर जुदा हो जाए
तेरे इश्क़ में शायरी कह - कहके
कहीं जाँ न हम शायरा हो जाए
© परी ऍम. 'श्लोक'