ख़्वाबों के
देवताओं की बलि चढ़ाते हैं
अरमानों की चिताओं को तेज़ाब से जलाते हैं
रूह की नब्ज़ पर आरियां चलाते हैं
साँसों में कतरा-कतरा ज़हर घोल जाते हैं
कुचलते हैं हाथी पैर तले नाज़ुक से ज़ज़्बात
ऐतबार के तबस्सुम का खून पी जाते हैं
मनमर्ज़ी की मीनार जबरन अक्स पर बनाते हैं
बना के ज़रा सी बात को बवाल कहर ढ़ाते हैं
मासूम सी शक्ल लिए फिरते हैं फ़ज़ाओं में
अक्सर सीना ठोंक के दावे ये बेहिसाब करते हैं
जिनके साये गहरे तीरगी को भी हैरान करते हैं
अरमानों की चिताओं को तेज़ाब से जलाते हैं
रूह की नब्ज़ पर आरियां चलाते हैं
साँसों में कतरा-कतरा ज़हर घोल जाते हैं
कुचलते हैं हाथी पैर तले नाज़ुक से ज़ज़्बात
ऐतबार के तबस्सुम का खून पी जाते हैं
मनमर्ज़ी की मीनार जबरन अक्स पर बनाते हैं
बना के ज़रा सी बात को बवाल कहर ढ़ाते हैं
मासूम सी शक्ल लिए फिरते हैं फ़ज़ाओं में
अक्सर सीना ठोंक के दावे ये बेहिसाब करते हैं
जिनके साये गहरे तीरगी को भी हैरान करते हैं
बच के रहना की शहर में आज-कल
ऐसे लोग अपने आपको मर्द ज़ात कहते हैं !!
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© परी ऍम.
'श्लोक'