Friday, January 30, 2015

बच के रहना....

 
 
ख़्वाबों के देवताओं की बलि चढ़ाते हैं
अरमानों की चिताओं को तेज़ाब से जलाते हैं
रूह की नब्ज़ पर आरियां चलाते हैं
साँसों में कतरा-कतरा ज़हर घोल जाते हैं
कुचलते हैं हाथी पैर तले नाज़ुक से ज़ज़्बात
ऐतबार के तबस्सुम का खून पी जाते हैं
मनमर्ज़ी की मीनार जबरन अक्स पर बनाते हैं
बना के ज़रा सी बात को बवाल कहर ढ़ाते हैं
मासूम सी शक्ल लिए फिरते हैं फ़ज़ाओं में
अक्सर सीना ठोंक के दावे ये बेहिसाब करते हैं
जिनके साये गहरे तीरगी को भी हैरान करते हैं

बच के रहना की शहर में आज-कल
ऐसे लोग अपने आपको मर्द ज़ात कहते हैं !!
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© परी ऍम. 'श्लोक'


Wednesday, January 21, 2015

तुम किसी के बाप की जागीर नहीं हो


बिलख रही है
दुबक के किसी कोने में
रिश्तों के नाम पर
खिलौना बनी जा रही है
जज़्बातों की सूली पर
सुबह-ओ-शाम चढ़ी जा रही है
ताकतवर वज़ूद बनाया जिसे खुदा ने
रहम की रह-रह कर भीख जुटा रही है
जो खुद चिंगारी है
तिनकों से डरी जा रही है
बस एक बार खोलो खुद को
और झांको अंदर अपने
कि आखिर अबला-अबला चीखते-चीखते
तुम्हारी सबलता किसकदर मरी जा रही है
परखो खुदको...समझो खुदको
कमज़ोरी को निकाल बाहर करो
एक नया आग़ाज़ करो
समझा दो दुनिया को ठोंक बजा के
जुल्म-ओ-सितम को आँख दिखा के
कि
रेत की बनायी कोई तामीर नहीं हो
तुम किसी के बाप की जागीर नहीं हो !!!

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© परी ऍम. 'श्लोक'

Tuesday, January 20, 2015

अफ़सोस


बर्तनों पर उलचते हैं पानी
मेजों की आबरू का ख्याल करते हैं
शीशे की दीवारों पर एक निशान नहीं चमकता
फर्श पर जड़े पत्थर आईना से नज़र आतें हैं
कालिख में नहाये हुए कारों को साफ़ करते
पुर्जा-पुर्जा खोलते बांधते..
कहीं हाथ फैलाये बाज़ारों में
खुलेआम भिनभिनाते हुए
उम्र और कद से कई फर्लांग आगे
पेशानी पर बेबसी की लकीरें गाड़े
सपनों पर बेउम्मीदी की मैल चिपकाए
हसरतों का कटा फटा जामा पहने
आँखों में तल्ख जाम छुपाये हुए

ज़िन्दगी की लम्बी रेस में दौड़ते हुए
ये नन्हे घोड़े ...
जिनके दूध के दांत नहीं टूटे

अफ़सोस... मेरे मुल्क के बच्चे हैं !!
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© परी ऍम. 'श्लोक'

Thursday, January 15, 2015

अंधी सड़को पर ...


अंधी सड़को पर जिंदगी गुमनाम हुई
सुबह निकले तलाश में तो बस शाम हुई
अपनी आरज़ूओं को मारकर
कई हिस्सों में दफ़न किया
इस बेवफाई की साज़िश भी सरेआम हुई
इसकदर झुलसे सपने पलकों के
देखकर आँखें भी हैरान हुई
कहूँ क्या ? छिपाऊ क्या ? 'श्लोक'
अपनी कुछ ऐसे भी पहचान हुई
भूख से रूह तक शैतान हुई
साँसे कातिलाना कोई औज़ार हुई
हमने जाना जब कि
समेटी हुई कमाई बचपन की
जवानी की दहलीज़ पर आकर बेरोज़गार हुई !!
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© परी ऍम. 'श्लोक'

Wednesday, January 14, 2015

"शहर का मौसम"


धूप है
न झड़ी ओस की

दिन के जिस्म से उठता हुआ
धुँआ भी नहीं

बर्फ की बौछार है
न रूखापन फ़ज़ाओं में

निगाहों के आस-पास
हरा-भरा है मंज़र

काले दुपट्टे से
कुछ बूँदें टपक रही है

गुलाबी जमीन
और भी गुलाबी हो गयी है

हवाओ का तन भीगा-भीगा सा है
 
आज मेरे शहर का मौसम गीला सा है
 
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© परी ऍम. 'श्लोक'

Saturday, January 10, 2015

खेल रहे हो जब से ....

खेल रहे हो
जब से आँख-मिचौली
दिन भी दिन जैसा कहाँ?
रात सा हर पहर नज़र आता है
दुबका हुआ सिमटा हुआ
पूरा शहर नज़र आता है  
आदत तुम्हारी आज की नहीं
बड़ी पुरानी है ...
पेड़ो की छाँव में छिप-छिप कर  
बचके तुमसे निकलती हूँ जब
तो सरेआम छेड़ते हो मुझे
चले आते हो जलाने को मन 
भिगाने को तन
मगर जब
यादो की सर्द हवाओ में
तुम्हारी जरूरत परवान पे होती है
इंतज़ार में तुम्हारे 
ठिठुरने लगती है उम्मीद
कंपकपाने लगती है रूह
तब तुम नहीं आते
ज़रा सी गर्माहट देने मेरे वज़ूद को
गिरा लेते हो दरमियान
सफेद मोटा पर्दा कोई
मैं देखती रह जाती हूँ
सर उठाये आसमान
जहाँ दूर तक नहीं मिलते
तुम्हारे निशान...

सब कहते हैं की तुम आफताब हो
जो भी हो मगर बड़े ही बेवफा हो !! 

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© परी ऍम. 'श्लोक'

Sunday, January 4, 2015

हम अपनी हस्ती को बदल लेते हैं


मत चढ़ाओ नकाबों का बोझ चहरे पर
इत्र डालो जिस्म पे कि महके तू
और तेरी खुशबु से आलम सारा

तसल्लियों की गोली खाकर
बिस्तर को नींद की हसीना न दो
सोने का वक़्त नहीं जल्दी उठो
हमारी खुदगर्जी को खबर होने से पहले
आओ अंधेरो में उजाला ढूँढना है
तेरे अंदर तुझे उतरना है मेरे अंदर मुझे
झांकना है रूह के आईने में चेहरा अपना
बचाना है उस किरदार को
जो वक़्त का जहर पी रहा है
इससे पहले की वो नेस्तनाबूद हो जाए
चलो महफूज़ कर लेते हैं कुछ नेकियां

कुछ ही मोहलत है
बदलाव की ताबीज़ पहन लेते हैं
किसी और को नहीं
हम अपनी-अपनी हस्ती को बदल लेते हैं

अभी है वक्त .....संभल लेते हैं !!
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© परी ऍम 'श्लोक'

Thursday, January 1, 2015

अजनबी राहें....


 


अजनबी राहों में चल दिए हैं
उम्मीदों का चराग़ लिए दिल में  
जो खोया उसके निशान मिटाते हुए
बस एक सोच है की आगे होना क्या है ?

ये पहला कदम है पहला पहर है
अभी साया साथ है मेरे
अभी तो जोश भी है नयी सुबह की...

चलना है दूर तक... अभी कई मोड़ बाकी है
अभी तो रूबरू होना है कई अनजानी हलचलों से
अभी पर्दा उठाना है आहिस्ता-आहिस्ता कल से

अजनबी देकर इशारा कहता है
यकीन मानो...
बहुत कुछ जान जाओगे...
बस इस सफर में साथ   चलकर तो देखो
एक बार मुझे   जीकर तो देखो !!
 
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© परी ऍम. 'श्लोक'