खेल
रहे हो
जब
से आँख-मिचौली
दिन
भी दिन जैसा कहाँ?
रात
सा हर पहर नज़र आता है
दुबका
हुआ सिमटा हुआ
पूरा
शहर नज़र आता है
आदत
तुम्हारी आज की नहीं
बड़ी
पुरानी है ...
पेड़ो
की छाँव में छिप-छिप कर
बचके
तुमसे निकलती हूँ जब
तो
सरेआम छेड़ते हो मुझे
चले
आते हो जलाने को मन
भिगाने
को तन
मगर
जब
यादो
की सर्द हवाओ में
तुम्हारी
जरूरत परवान पे होती है
इंतज़ार
में तुम्हारे
ठिठुरने
लगती है उम्मीद
कंपकपाने
लगती है रूह
तब
तुम नहीं आते
ज़रा
सी गर्माहट देने मेरे
वज़ूद को
गिरा
लेते हो दरमियान
सफेद
मोटा पर्दा कोई
मैं
देखती रह जाती हूँ
सर
उठाये आसमान
जहाँ
दूर तक नहीं मिलते
तुम्हारे
निशान...
सब
कहते हैं की तुम आफताब हो
जो
भी हो मगर बड़े ही बेवफा हो !!
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© परी ऍम. 'श्लोक'
बहुत सुन्दर मौसमी कविता ! भास्कर महोदय भी अपनी अदाएं दिखाने से बाज नहीं आते इन दिनों ! जितना पीछे-पीछे भागो उतना ही आँख मिचौली खेलते हुए छिप जाते हैं !
ReplyDeleteसब कहते हैं की तुम आफताब हो
ReplyDeleteजो भी हो मगर बड़े ही बेवफा हो !!
waah.....!
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (11-01-2015) को "बहार की उम्मीद...." (चर्चा-1855) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर प्रस्तुति साभार! परी जी!
ReplyDeleteधरती की गोद
परी जी बहुत सुन्दर रचना .....मगर बेवफ़ाई तो सफ़ेद पर्दों की है वर्ना आफताब बिचारे तो रोज़ कोशिश करते हैं मिलने की
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteनई पोस्ट : तेरी आँखें
नई पोस्ट : सच ! जो सामने आया ही नहीं
सब कहते हैं की तुम आफताब हो
ReplyDeleteजो भी हो मगर बड़े ही बेवफा हो !!
...वाह...बहुत ख़ूबसूरत अहसास...
सुन्दर विचार आप के कबके भा गये|
ReplyDeleteलेखनी है आपकी ताकत जो लागए ||
किरणें सूर्य सदियों तपकर त्याग किये |
मंगल समझ ना सका की बरसात किए|
सच है की आजकल तो बेवफा ही हो गया है आफताब ...
ReplyDeleteखूबसूरत रचना ...
सूर्य के उत्तरायण होने का समय दूर नहीं. शिकायत जल्दी दूर होगी. सुन्दर कविता.
ReplyDeleteतारीफ भी और करारा प्रहार भी। प्रभावशील रचना।
ReplyDeleteवाह...बहुत ख़ूबसूरत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteप्रभावशील रचना।
ReplyDeleteयादो की सर्द हवाओ में
ReplyDeleteतुम्हारी जरूरत परवान पे होती है
इंतज़ार में तुम्हारे
ठिठुरने लगती है उम्मीद
कंपकपाने लगती है रूह
तब तुम नहीं आते
ज़रा सी गर्माहट देने मेरे वज़ूद को
वाह...बहुत ख़ूबसूरत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति ! क्या बात है !! बहुत खूबसूरत परवीन जी