Saturday, January 10, 2015

खेल रहे हो जब से ....

खेल रहे हो
जब से आँख-मिचौली
दिन भी दिन जैसा कहाँ?
रात सा हर पहर नज़र आता है
दुबका हुआ सिमटा हुआ
पूरा शहर नज़र आता है  
आदत तुम्हारी आज की नहीं
बड़ी पुरानी है ...
पेड़ो की छाँव में छिप-छिप कर  
बचके तुमसे निकलती हूँ जब
तो सरेआम छेड़ते हो मुझे
चले आते हो जलाने को मन 
भिगाने को तन
मगर जब
यादो की सर्द हवाओ में
तुम्हारी जरूरत परवान पे होती है
इंतज़ार में तुम्हारे 
ठिठुरने लगती है उम्मीद
कंपकपाने लगती है रूह
तब तुम नहीं आते
ज़रा सी गर्माहट देने मेरे वज़ूद को
गिरा लेते हो दरमियान
सफेद मोटा पर्दा कोई
मैं देखती रह जाती हूँ
सर उठाये आसमान
जहाँ दूर तक नहीं मिलते
तुम्हारे निशान...

सब कहते हैं की तुम आफताब हो
जो भी हो मगर बड़े ही बेवफा हो !! 

_______________________
© परी ऍम. 'श्लोक'

14 comments:

  1. बहुत सुन्दर मौसमी कविता ! भास्कर महोदय भी अपनी अदाएं दिखाने से बाज नहीं आते इन दिनों ! जितना पीछे-पीछे भागो उतना ही आँख मिचौली खेलते हुए छिप जाते हैं !

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  2. सब कहते हैं की तुम आफताब हो
    जो भी हो मगर बड़े ही बेवफा हो !!

    waah.....!

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  3. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (11-01-2015) को "बहार की उम्मीद...." (चर्चा-1855) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. सुन्दर प्रस्तुति साभार! परी जी!
    धरती की गोद

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  5. परी जी बहुत सुन्दर रचना .....मगर बेवफ़ाई तो सफ़ेद पर्दों की है वर्ना आफताब बिचारे तो रोज़ कोशिश करते हैं मिलने की

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  6. सब कहते हैं की तुम आफताब हो
    जो भी हो मगर बड़े ही बेवफा हो !!
    ...वाह...बहुत ख़ूबसूरत अहसास...

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  7. सुन्दर विचार आप के कबके भा गये|
    लेखनी है आपकी ताकत जो लागए ||
    किरणें सूर्य सदियों तपकर त्याग किये |
    मंगल समझ ना सका की बरसात किए|

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  8. सच है की आजकल तो बेवफा ही हो गया है आफताब ...
    खूबसूरत रचना ...

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  9. सूर्य के उत्तरायण होने का समय दूर नहीं. शिकायत जल्दी दूर होगी. सुन्दर कविता.

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  10. तारीफ भी और करारा प्रहार भी। प्रभावशील रचना।

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  11. वाह...बहुत ख़ूबसूरत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति

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  12. यादो की सर्द हवाओ में
    तुम्हारी जरूरत परवान पे होती है
    इंतज़ार में तुम्हारे
    ठिठुरने लगती है उम्मीद
    कंपकपाने लगती है रूह
    तब तुम नहीं आते
    ज़रा सी गर्माहट देने मेरे वज़ूद को
    वाह...बहुत ख़ूबसूरत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति ! क्या बात है !! बहुत खूबसूरत परवीन जी

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