उठी मंदिर से चिंगारी शरारे मस्जिदों से
गए टकरा वो आपस में पुराने दुश्मनों से
न कोई शख़्स था जिन्दा
बचा इस आग से फिर
लहू यूँ हो गयी इंसानियत थी मज़हबों से
सियासत खूब गरमायी किसी
की लाश पर थी
चिता ठंडी हुई गाँधी छपे फिर काग़ज़ों से
जला है आशियाँ जिनका कि
पूछो बुलबुलों से
जिन्हें काटा गया तलवार
से था उन गुलों से
कलाई जिस बहन के
राखियों की छिन गयी है
है उजड़ी कोख़ जिनकी पूछिये उन जननियों
दफ़न है दर्द
का ये जलजला जिनके दिलों में
कभी जाकर ज़रा पूछो सितम खाए घरों से
जहाँ हर धर्म इक जैसा वहाँ पर ये फ़सादत
हुई जाती है क्यूँ हर रोज़ पूछो जाहिलों से
© परी ऍम. 'श्लोक'