बिलख रही है
दुबक के किसी कोने में
रिश्तों के नाम पर
खिलौना बनी जा रही है
जज़्बातों की सूली पर
सुबह-ओ-शाम चढ़ी जा रही है
ताकतवर वज़ूद बनाया जिसे खुदा ने
रहम की रह-रह कर भीख जुटा रही है
जो खुद चिंगारी है
तिनकों से डरी जा रही है
बस एक बार खोलो खुद को
और झांको अंदर अपने
कि आखिर अबला-अबला चीखते-चीखते
तुम्हारी सबलता किसकदर मरी जा रही है
परखो खुदको...समझो खुदको
कमज़ोरी को निकाल बाहर करो
एक नया आग़ाज़ करो
समझा दो दुनिया को ठोंक बजा के
जुल्म-ओ-सितम को आँख दिखा के
कि
रेत की बनायी कोई तामीर नहीं हो
तुम किसी के बाप की जागीर नहीं हो !!!
___________________________
© परी ऍम. 'श्लोक'
जो खुद चिंगारी है, तिनकों से डरी जा रही है ....धारदार, सुपठनीय
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजोश और ओज का ताप है शब्दों में, रचना सच्चाई को कुरेदती।
ReplyDeleteबहुत उम्दा !!!
ReplyDeleteरेत की बनायी कोई तामीर नहीं हो
तुम किसी के बाप की जागीर नहीं हो !!!
वाह धुवांदार शब्द ....
ReplyDeleteKanpuriya bhasha me kahe to bahut Dhaanshu.
ReplyDeleteजागृती पैदा करनें वाली कविता।बेहद सुन्दर।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी प्रस्तुति
ReplyDeleteसही लिखा आपने ..............
ReplyDeleteमार्मिक रचना.
ReplyDeleteबहुत खूब परी जी
ReplyDeleteसादर
अच्छी रचना !
ReplyDeleteबधाई
"रेत की बनायी कोई तामीर नहीं हो ..."
ReplyDeleteBeautiful and well expressed Pari ! :)
अति सुन्दर
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आपकी कविता पढ़ पाया... आपकी हर कविता प्रशंशनीय है
ReplyDeleteबेहद भावपूर्ण भारी कविता लिखी है आपने.
ReplyDeletenew post http://iwillrocknow.blogspot.in/2015/01/dream-come-truebecome-ceo.html
बहुत संवेदनशील रचना ...
ReplyDeleteरेत की बनायी कोई तामीर नहीं हो
ReplyDeleteतुम किसी के बाप की जागीर नहीं हो !!!
बहुत संवेदनशील रचना ...
जो खुद चिंगारी है
ReplyDeleteतिनकों से डरी जा रही है
बस एक बार खोलो खुद को
और झांको अंदर अपने
की आखिर अबला-अबला चीखते-चीखते
तुम्हारी सबलता किसकदर मरी जा रही है
बहुत संवेदनशील रचना
बहुत बढ़िया ! झकझोर कर जगाती सशक्त अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteअनुपम......
ReplyDeleteमुकेश की याद में@चन्दन-सा बदन