बजी
न घंटियाँ सेलफोन की ज़वाल तक
रात
भी न कोई राब्ता रहा तुमसे
कल
इतवार भी सन्नाटें दायें-बायें चिपके रहे
आँखों
के परदे से दिल की झील टपकती रही
पैदल
सवाल ज़ेहन के गुर्फे में मचलते रहे
तुमपर
फ़ना होने की आरजुओं ने जबसे करवट ली
अज़ब
सी अज़ाब की हिरासत में आ गए हैं
सुकून
के पहलुओं से बेचैनियों की गर्दिश में आ गए हैं
मेरे
आईने मेरी पहचान में नाकाम रहते हैं
और
हम तेरी तलाश में सुब्ह-ओ-शाम रहते हैं
महज़
वीरानियाँ भटकती हैं पूरी बस्ती में
कही
नहीं नज़र आता है साया तक तेरा
मेरा
हमसाया होने का दम भरने वाले ज़रा बता
गमज़दा-गमज़दा
ये रानाई क्यों हैं ?
अगर
तुम साथ हो तो फिर ये तन्हाई क्यों हैं ?
__________
©
परी ऍम. 'श्लोक'
मायने :-
ज़वाल = दोपहर बाद
राब्ता = संपर्क
गुर्फे = अपार्टमेंट
राब्ता = संपर्क
गुर्फे = अपार्टमेंट
मेरे आईने मेरी पहचान में नाकाम रहते हैं
ReplyDeleteऔर हम तेरी तलाश में सुब्ह-ओ-शाम रहते हैं
महज़ वीरानियाँ भटकती है पूरी बस्ती में
कही नहीं नज़र आता है साया तक तेरा
मेरा हमसाया होने का दम भरने वाले ज़रा बता
गमज़दा-गमज़दा ये रानाई क्यों हैं ?
अगर तुम साथ हो तो फिर ये तन्हाई क्यों हैं ?
वाह ! आज बहुत सारे उर्दू अल्फ़ाज़ों का प्रयोग किया है आपने , लेकिन ये अलफ़ाज़ एकदम सही और सटीक लगे हैं !
बहुत सुंदर ......
ReplyDeleteबढ़िया ।
ReplyDeleteवाह...लाज़वाब अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteभावपूर्ण उम्दा रचना ....
ReplyDeleteबहुत खूब परी जी
ReplyDeleteसादर
सुन्दर प्रस्तुति!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर .
ReplyDeleteनई पोस्ट : शंका के जीवाणु
अति भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteकल 15/फरवरी /2015 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
खूबसूरत अंदाज़।
ReplyDelete