सोचती
हूँ कि
कितना
मनभावन लगता होगा
खतो
का वो इक अरसे से चलता सिलसिला
उन
बंद लिफाफो में गुलाब से महकते जज़्बात
जो
आज के आलम में धुआँ-धुआँ है
जिसे
अब कोई छू भी नहीं पाता
जिसे
महसूस करने कि कोशिश में
लोग
उतार देते हैं तन का लिबास
वो
रूहो का रिश्ता
शायद !अब
नहीं कायम होता
शुरू
होती है मोहोब्बत इंटरनेट से
और
मिलने के कयास तक पहुँचते-पहुँचते
सब
कुछ मिटटी में मिल जाता है
कहाँ
है ?
अब वो सब्र लोगो में
फ़ोन
कि हर घंटी के साथ
बयां
होने लगी है दास्तान दिल की
कितने
संजीदा होते थे पहले ये मुआमले
प्यार
में कितना सब्र होता था
पाकीज़गी
होती थी..ह्या होती थी
किन्तु
आज
आधुनिकता कि भागम-भाग में
वो
दौर अपनी सभ्यताओ के साथ
कहीं
बहुत पीछे छूट गया...
सब
कुछ बदल गया बदन पर पड़े
इक
मीटर कपड़े कि तरह ही
हर
एहसास कम हो गया...
लहरो
के आने के साथ
ये
इश्क़ पनपता
जाने
के साथ ही समाप्त हो जाता
चंद
पल में किसी को पा लेना
कुछ
लम्हों में किसी को खो देना
कुछ
घंटो में किसी को भुला देना
ज़रा
सी कड़क बात से
अहम
कि ज़मीन तिलमिला जाती हैं
भाव-भंगिमाओं
के घने कोहरे छट जाते
कसमे
वादे पान कि तरह खाए जाते हैं
और
फिर थूक दिए जाते हैं ...
इक
लंबा फासला हो गया है
कल
और आज के प्रेम के मध्य
जो
अब
मिटाने
से भी मिटता नहीं !!
________________
परी ऍम. 'श्लोक'
achha likha.
ReplyDeleteबहुत खूब Ma'am :)
ReplyDeleteLovely ! You are gifted with words Pari :)
ReplyDeleteइक लंबा फासला हो गया है
ReplyDeleteकल और आज के प्रेम के मध्य
जो अब
मिटाने से भी मिटता नहीं !!
...बिलकुल सच...बहुत सटीक और भावमयी प्रस्तुति...
नाजुक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteचंद पल में किसी को पा लेना
ReplyDeleteकुछ लम्हों में किसी को खो देना
कुछ घंटो में किसी को भुला देना
..
..
..
बेहद सटीक बेहद प्रभावशाली
सत्य को बयान करती रचना |
ReplyDeleteकहाँ है ?
ReplyDeleteअब वो सब्र लोगो में
फ़ोन कि हर घंटी के साथ
बयां होने लगी है दास्तान दिल की
कितने संजीदा होते थे पहले ये मुआमले
प्यार में कितना सब्र होता था
पाकीज़गी होती थी..ह्या होती थी
ये आज के नए दौर का प्रेम है परी जी ! पल में आसमान की ऊंचाइयां पा लेता है और पल में फर्श पर होता है ! शानदार और सार्थक पंक्तियाँ
ये तो बहुत सुन्दर सिलसिला परोसा आपने जी :)
ReplyDeleteसमय चाहे बदल गया घो माध्यम बदल गया हो पर प्रेम तो फिर भी जिन्दा रहता है .... उसको दिल से दिल तक जाना होता है ... हाँ अब शायद सब्र ख़त्म हो गया है ...
ReplyDeleteप्रेम व्यक्त करने के तरीके में बदलाव आ गया है.. अब वो चिट्ठियों का सब्र, गुलाब की खुशबु सब खो गयी.. अब तो नए नए आयाम है.. यथार्थ व्यक्त करती रचना...
ReplyDeleteपरी जी आप की कलम में जादू है ...बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteउस समय के प्यार और आज के प्यार में जमीं आसमान का अंतर है! पहले शायर अपनी माशूका से बिना देखे भी सच्ची मोहब्बत करते थे, किसी शायर ने अपनी पर्दानशीं माशूका पर लिखा भी है-
ReplyDeleteख़्वाब में भी आये तो मूॅह को छुपा लिया,
देखो, जहाँ में पर्दानशीं और भी तो हैं
सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई आदरणीया परी जी!
धरती की गोद
pyar me to pakizagi hi hoti or jha nhi wo pyar nhi.....kafi sundar rachana
ReplyDeleteSpeechless. . .another amazing creation by you.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया परी जी।
ReplyDeleteसादर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (23-11-2014) को "काठी का दर्द" (चर्चा मंच 1806) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
sundar prastuti
ReplyDeleteसही कहा कस्मे वादे पान की तरह खाया और थूका. आज के सन्दर्भ का सटीक चित्रण, बधाई.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव भर दिए है आपने इस पोस्ट में...सटीक चित्रण
ReplyDeleteबिलकुल सच है ! जहाँ व्यक्तित्व में गहराई नहीं होती वहाँ प्रेम भी उथला और सतही ही होता है ! ऐसे प्रेम को पाने का सुख और खोने का दर्द भी उतना ही क्षणिक होता है ! बढ़िया अभिव्यक्ति !
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