जिंदगी
उन ढाई फुट चौड़ी
सीढ़ियों
पर बलखाने लगी
उसने
पास बैठ कर
मेरा
हाथ थामा
और
मैंने
उसे उम्र भर का
वादा
समझ लिया
कहाँ
फ़िक्र थी फिर
लोग
देखेंगे तो क्या कहेंगे ?
वक़्त
सीखने वालो को
तालीम
दे रहा था
और
हम
वक़्त
को मुट्ठियों में भर
किसी
के साये की
नरम
छाँव में बैठ
आने
वाले लम्हों में
जीने
के लिए
कुछ
यादे समेट रहे थे
कश्तियाँ
छोड़ दी थी हमने
कहीं
साहिलों पर
उसकी
आँखों के सागर में
डूबकर
फ़ना होना चाहते थे
जाने
कितनी मेट्रो आई
और
चली गयी
मगर
मेरा सफर तो बस
ख़त्म
हो गया था उनपर
उस
रोज़ मंज़िल बगल में बैठ
अपनी
साँसों से
गर्म
हवा दे रही थी
और
अनगिनत हसरतो के
फूल
खिला रही थी
दिल
की पटरियों पर
बेलगाम
दौड़ रहा था
इक
मीठा-मीठा सा अहसास…
उन
चंद लम्हों में
मेरी
संवेदनाओ की मेट्रो पर
उसका
कब्ज़ा हो चला था
सिलसिला
कुछ आगे बढ़ता
मैं
उनका नाम पूछती
मगर
वही
हुआ जो न होना था
एक
बार फिर..
अचानक
असलियत कि कुँडी में
अटक
कर टूट जाते हैं
वहम
के धागे में पिरोये
बेबाक़
आरज़ू के मोती
और
मन
मार के रह जाती हूँ मैं .......
एक
बार फिर !!!
________________________
© परी ऍम. 'श्लोक'
सुंदर !
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत..।।
ReplyDeleteआज के संचार युग में ऐसी बेबसी ??? कमाल की कल्पना की परी जी.... एक बार फिर :)
ReplyDeleteलाजवाब .......!
ReplyDeleteकितनी बार मन का मारना होता है इस तरह पता नहीं चलता...मंजिल आने पर पता चलता है मंजिल वो नहीं जिसकी चाहत थी....अहसासों को सीधे सरल शब्दों में आवाज दे दी आपने
ReplyDeleteवक्त को मुठ्ठियो मे भर किसी साये की नरम छाँव मै बैठ...
ReplyDeleteकितनी खुबसूरत है ये पंक्तियाँ ।
लाजवाब परी जी।
कल 09/नवंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
यथार्थ के कठोर धरातल पर जब आरजूओं के नाज़ुक मोटी टूट कर बिखरते हैं तो कुछ ऐसा ही मंज़र होता है ! सुन्दर अहसासों को पिरोये मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत प्रस्तुति
ReplyDeleteमन मार के रह जाती हूँ मैं .......
ReplyDeleteएक बार फिर !!!
....जाने कितनी बार छली जाती है प्रेम में ...
...बहुत सही...
कश्तियाँ छोड़ दी थी हमने
ReplyDeleteकहीं साहिलों पर
उसकी आँखों के सागर में
डूबकर फ़ना होना चाहते थे
बहुत ही खूबसूरत अल्फ़ाज़ों से सजी रचना
बहुत बढ़िया
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