Tuesday, November 11, 2014

मेरी जिंदगी के डायरी से ...आखिर चोर कौन था ?


उस वक़्त मैं बहुत छोटी थी यही कुछ तेरह बरस की उम्र रही होगी ! स्वभाव से तेज..तर्रार..और लड़ाकू प्रवृति का होना आरम्भ हो गया था ! गुस्सा नाजायज़ बात पर आता भी था और जमकर उसका विरोध भी करने लगी थी! पता नहीं पर मुझे शुरू से ही अच्छा लगता था अपने विचारो को पन्नो पर अंकित करना ! तुड़ी-मुड़ी शब्दों में उसे ढाल देना ! उस समय का वो शुरूआती दौर था ! जब मैंने डायरी लिखने कि आदत पाल ली थी ! बस फिर क्या ? जब भी कोई ख्याल आये मैं उसे लिख कर सहेज लेती थी और फिर उस डायरी को छिपा कर अपनी अटैची में ताला लगा कर रख देती थी ! उस समय हम लोग जिस मकान में रहते थे ! वहाँ मेरे मामा जी भी किराए पर रहा करते थे क्यूंकि मामा जी अकेले थे तो कुछ वक़्त बाद उनके साथ रहने के लिए उनके दोस्त भी आ गए जिनका नाम राधेश्याम था जो की गोरखपुर के थे !

मुझे अंग्रेजी बोलना अच्छा लगता था और मैं बोलचाल की हर लाइन में एक अंग्रेजी का शब्द ज़रूर प्रयोग करती थी आदतन ! मेरे मामा जी को ये सब बहुत अच्छा लगता था लेकिन उनके दोस्त अक्सर बोलते थे क्या? गिटपिट-गिटपिट अंग्रेजी बोलती रहती है फ़ालतू में ! बड़बड़ लगा के रखती है ! मेरा हँसना बोलना उन्हें कुछ अच्छा ही नहीं लगता था ....मानो मैं उनकी कोई जानी दुश्मन हूँ ! मुझे गुस्सा आता था उनके इस रवैये पर और मैं उनको खूब खरा-खोटा सुना देती कुछ बाकी नहीं रखती थी.... मैं भी लड़ाकू थी बहुत और वो मेरे जन्मो के बहुत बड़े विरोधी थे !  मेरे हर काम में गलती निकालना ..मम्मी-पापा को भड़काना जाने उन्हें ये सब करना क्यों अच्छा लगता था ? मैं सोचती थी उस वक़्त.... सब कहते हैं बड़े-बड़े होते हैं लेकिन इन्हे बड़ा कहना तौहीन होगी ये तो बच्चो से भी बेहज हैं हुंह !
खैर... एक दिन मैं कुछ लिख रही थी कि मामा के दोस्त अचानक कमरे में आये और मम्मी से आग्रह किया दीदी चाय बना दो तबीयत थोड़ी ठीक नहीं लग रही ! मम्मी उठी और बोली भाई आप को दवाई रखी है वो दे देती हूँ आप खा लो तब तक मैं चाय बना देती हूँ ! राधेश्याम मामा को देख कर तो मेरा खून खौल जाया करता था ! लेहाज़ा उनको देखते ही मैंने चुपके से अपनी डायरी बैड के गद्दे के नीचे रख दी !  फिर उनको देखकर मुँह टेड़ा किया... जीभ निकाली और उन्हें चिढ़ा कर ऊपर छत पर चली गई और पड़ोस के बच्चो के साथ खेलने लगी ! कुछ देर बाद वापस नीचे आई तब तक मामा के दोस्त जा चुके थे ! मैं दोबारा बैड पर बैठी और गद्दा उठाया डायरी लेने के लिए लेकिन उसके नीचे रखी हुई डायरी गायब थी.. मैंने मम्मी से कहा... मम्मी इसके नीचे एक कापी थी कहाँ गयी ? मम्मी बोलती जहाँ रखी होगी वहीँ होगी बेटा ! फाकी देर तक गद्दे पलटे..किताबे पलट डाली .. अपना बैग खोल कर देखा लेकिन मेरी डायरी मुझे कहीं नहीं मिली ! मुझे बहुत रोना आया मम्मी ने कहा दूसरा ला देंगी रोउ न.... लेकिन वो कैसे आता जो उन पन्नो में कैद मेरा हर दिन का सोच ख्याल मेरे दिन-दिन का हिसाब-किताब था!

उस डायरी के खोने का गम मुझे बेहद था मैं इतना आहात थी कि मैंने कुछ दिन डायरी ही नहीं लिखी कि कहीं फिर से मेरी डायरी खो गयी तो ! उन दिनों मेरे दिमाग के एक कोने में मेरी खोयी हुई डायरी का ख्याल बैठा रहता था .. और राधेश्याम मामा का रवैया दिन प्रतिदिन बुरा होता जा रहा था ..अब वो मुझे ऐसे देखते थे मानो मैंने कोई बड़ा  अपराध किया हो ..एक बहुत बड़ी अपराधी हूँ .. कई बार बहस के दौरान कह देते थे ....ज्यादा गिटर-पिटर मत कर बोलने लायक नहीं है तू .. मैं कहाँ इतनी बड़ी-बड़ी बाते समझ पाती थी ? मैं भी उल्टा बोल देती थी तुम बड़े बोलने लायक हो !
मेरा परिवार बहुत रूढ़िवादी परिवार था हालाँकि आज ऐसा नहीं है वक़्त के साथ बेहद बदलाव आया हैं उनके सोचने-विचारने के तरीके में ! उस समय मेरी डायरी लिखने कि भनक उन्हें भी नहीं थी क्यूंकि मैं जानती थी अगर घर में मम्मी-पापा को पता लगा तो भी बड़ा डांटेंगे ऐसे में मैं ये बात किसी को नहीं बताना चाहती थी लेहाज़ा ये राज़ राज ही रखा ! लेकिन तलाश जारी रखी!
मेरी एक बुरी आदत थी मामा के कमरे में उनके जाने के बाद अक्सर चोरी-छिपे जाने कि वो भी इसलिए क्यूंकि उनके यहाँ पर टेप -रेकॉर्डर था मैं उसमें कैसेट बदल-बदल कर खूब गाने सुनती व डांस किया करती थी ! एक दिन मैं मामा के कमरे में गयी और कैसेट बदलने के लिए कोई कैसेट ढूंढ रही थी कि अचानक मेरी नज़र कैसेट्स के बगल कुछ किताबो पर जाती है.... मेरे दिमाग में दोबारा मेरी खोयी हुई डायरी घूम जाती है.... मैं उन्हें पलटना शुरू करती हूँ और उनके बीच रखी हुई मिलती है... मुझे मेरी डायरी !  मैं एकदम खुश हो जाती हूँ और तुरंत सब कुछ बंद करके अपने कमरे की तरफ भागती हूँ ! जाकर उसके सभी पन्ने पढ़ती हूँ... कुछ पन्ने फाड़े गए थे इसलिए आहत ज़रूर थी लेकिन अपनी डायरी को दोबारा पाकर मेरी ख़ुशी भी कुछ कम नहीं थी ! मैंने एक ठंडी आह! भरी......और फिर नहीं सोचा कि वो डायरी मामा जी के कमरे में कैसे गयी ? उसका पन्ना किसने फाड़ा ? आखिर चोर कौन था ??


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© परी ऍम 'श्लोक' 

16 comments:

  1. ऐसा लड़के भी झेलते है परी जी।
    कारण हो सकता है अलग हो।मैंने इसलिए झेला, घरवाले सोचते थे कही पढ़ाई से दूर न हो जाऊँ ।
    तब अच्छा नहीं लगता था पर अब उनकी हर झीडक पर प्यार आता है।
    काफी खुबसूरती से उतारा है आपने घटना को।

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  2. राज को राज रहने दो !

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  3. सोचता था कि आप कविता शायरी इत्यादि बहुत सुंदर लिखती हैं आज पता चला आप कहानी भी बहुत खूब बयां करती हैं ....बधाई

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  4. Mujhe iske age janne ki ichha hai ki wo aisa q karte the..waise aapne achha likha hai.

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  5. शुरुआत बहुत सुंदर, उत्सुकता जगाती हुई पर अंत अधूरा सा रहा ....... आखिर क्यों वे ले गए थे diary :)

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  6. कोई नहीं बहुत कुछ फट जाता है जिंदगी सिल देती है कुछ नहीं सिल पाती फटा रह जाता है लिखने वाले कहाँ रुकते हैं उनसे कौन सा रुका जाता है फटे पर ही लिखना शुरु :) वो डायरी पढ़ने के लिये ले गये थे वैसे तो परी जी उनको पढ़ने नहीं देती :)

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  7. बहुत सुंदर :) आखिरी अंश तक बान्धे रखा, आपके लेखन और डायरी दोनों ने :)

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  8. आदरणीय परी जी, कहानी का अंत समझ नहीं आया? वैसे कभी-कभी कथा में, कोई ऐसा सन्देश होता है, जिसे पाठक ठीक से समझ नहीं पाते! धन्यवाद!
    धरती की गोद

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  9. बहुत ही अच्छा और सराहनीय रहा अपनी आत्मकथा के एक अंश का बयान !!!

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  10. बचपन की बातो को डायरी में लिखना और कुछ सालो बाद उसको पलटकर पड़ना एक सुखद अहसास होता है

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  11. दिल पे सब लिखा होता है डायरी तो रिहर्सल है है कोई मामा या उसका भी फूफा जो दिल पे लिखा मेट दे। बेहतरीन संस्मरण परी कथा सा। एक से दूसरी परी की बात।

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  12. डायरी लिखने का शौक हर बच्चे को होता है अपनी किशोरावस्था में ! डायरी में लिखना और सबसे छिपा कर रखना, खो जाने पर बेचैन होना ये सारी बातें कॉमन सी लगती हैं ! सुन्दर संस्मरण !

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  13. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-11-2014) को "वक़्त की नफ़ासत" {चर्चामंच अंक-1800} पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  14. परी जी आदाब एक मुद्दत बाद किसी गध्य पर मेरा ध्यान आकर्षित हुआ है....अमूमन मैं घध्य को नज़र-अंदाज़ ही करता हूँ क्यूँ की मेरा ध्यान सिर्फ आवर सिर्फ पद्य पर ही जियादा होता है वक़्त ही नहीं मिलता इसके इलावा कुछ आवर भी अपने दुसरे पसंद देख सकूं |....आपकी ये मीठी सी दर्द लिए ये लघुकथा जो शायद आपकी अपनी कहानी थी ...इसके हेडिंग पर पड़ी....लफ्ज़ चोर.....ने आकर्षित किया और दूसरा कारण जिसकी वजह थी की आप मेरे रेगुलर पाठक भी हैं.....सो आपके इस खूबसूरत मगर दर्द भरे लेख पट नज़र टिक गयी और पढ़ कर मुझे अपना पुराना वक़्त याद आ गया...बहुत से लेख , कहानियाँ , नावल आवर धारावाहिक लिख कर किसी कारण वश सब कुछ त्याग दिया .......सोचता हूँ वो सब धरवाहिक आवर कहानिया एक ब्लाग बनाकर उसमे कलम बढ़ कर दूं...| खैर...वो तो बाद में देखेंगे......

    आपकी कहानी का मर्म पढ़कर सच में सोच रहा हूँ बहुत अच्छा किया यहाँ रुक कर .....आपके विचार और स्वभाव जान्ने का मौका मिला | बहुत अच्छा कह लेती हैं आप.....आपकी लेखनी सशक्त तरीके से चलने में हिच्कचाती नहीं.....बहुत ही ओरिजिनल मर्म दिया आपने......|

    कहानी का ध्येय आवर विचार पूर्णतया स्पष्ट कर दिया.....इस लेख पर मेरी जानिब से ढेरों बधाई |

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