Thursday, January 9, 2014

!!इक चेहरा कई आइना हो गया है!!

सांस लेना भी यहाँ अब गुनाह हो गया है
खेल रिश्तो का इकदम जुआ हो गया है

चढ़ गया है पहाड़ पे नफरत का दानव
चैन सूखा हुआ एक कुआँ हो गया हैं

सच की सादगी उतार के फेका गया
झूठ हर सकशियत का गहना हो गया है

जान देने लगे हैं लोग कागज़ के टुकड़ो पे तबसे
इक चेहरा कई आइना हो गया है

कभी संभालते हैं तो कभी उछाल देते हैं
ज़स्बात जैसे कोई खिलौना हो गया है

अपनी ज़रुरतो को पूरा करते करते
शरीर हर इंसान का नंगा हो गया है

तन-मन धोते धोते दोधारी इंसानो का
जल गंगा का इकदम मैला हो गया हैं

ऐसी सोच में सबके मिलावट मिली की
ज़मीर सबका गूंगा बहरा और अँधा हो गया है


ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 30.09.2013

 

"आत्महत्या "

इक पत्र मिला सखी 'उर्मिला' का
उस से मालूम चला कि
'स्वाति' ने आत्महत्या कर ली
कारण अविश्वसनीय था
प्रेम में धोखा मिला उसे
गर्भवती हो गयी थी
यही लिखा था उस पत्र में
जो दिमाक को ठनका गया
ठग़मारी भई बैठ गयी चित सी मैं 
सनका मन बोला वो ऐसी कभी नहीं थी
इतनी कमज़ोर आखिर कैसे हुई वो  
मैंने कार्यालय से छुट्टी लिया
सोनबरसा के लिए निकल पड़ी
वहाँ पहुंचते ही पाया
जितने मुँह उतनी बाते करते हुए लोगो को
अफवाह हकीकत से कई कदम आगे निकल चुकी थी 
तरह-तरह के सवाल उठाये जाते रहे
स्वाति के चरित्र पर घड़ी-घड़ी
हर व्यक्ति के लिए बात-चीत का
मसालेदार मसला बन गया था
सुनते सुनते मैं भी बेहाल हो चुकी थी
ऐसी गन्दी बात बोल देते थे
नुकड़ पर खड़े होते आवारा लड़के तक
जिनका चरित्र है भी या नही?
इक सवाल ही था...
कई भद्दी गालियां देती रहती
उसकी चाची तो कभी उसकी भाभी
कोई 'छिनार' बोलता तो कोई 'वैश्या'
इक रात
स्वाति मेरे सपने में आयी
और कहने लगी 'श्लोक'
मैं जीना चाहती थी
किन्तु मैं शून्य हो गयी थी
मुझे कुछ भी नहीं बूझ रहा था
सिवाय वो हादसे के जो मेरे साथ हुआ
बाद में बुरा लगा पर हाथ से निकल चुका था सब.. 
सुबह सोच आया ये लोग भी ना?
किसी ने एहसास भी नही किया होगा
उस शून्य स्थिति का मतलब तक
वाज़िब कारण तो चलो कौन ढूँढता है?
जब मसालादार बात बनानी हो..
मैं किसको बताती कौन सुनता
मेरी सपने कि बात को
दो बात मुझे भी सुनाने बैठ जाते
काश!
उसके मरने के उपरान्त
उसकी आत्मा को छल्ली करते लोगो को
ये बताने कि चरित्रहीन नहीं थी वो
और वास्तविक कारण क्या था?
बताने आ जाती स्वाति...
परन्तु कैसे आती स्वाति ये बताने को??

ये स्वीकार करने को कि वो अपराधी तो है
किन्तु स्वयं कि निर्मम हत्या का षड्यंत्र रचाने कि!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

Wednesday, January 8, 2014

मोहोब्बत अपने बस कि बात नहीं रही....

मैंने सीखा नहीं सलीखा नफरत करने का

मोहोब्बत भी अब अपने बस कि बात नहीं रही


दर्द बन गयी है महबूबा मेरे धधकते दिन कि 'श्लोक' 

हरजाई नींद गले लगाए ऐसी कोई रात नहीं रही


किस वास्ते बक्शे हम उसे शिकायतो का तोहफ़ा

कुछ पा सके हमसे अब उसकी औक़ात नहीं रही


भिगाया बेवफ़ाई ने हमें रूह तक इस कदर

सेहरा कि जलती रेत को ज़रा भी प्यास नहीं रही


(c) परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 09/01/2014

"जब लिखी मैंने पहली कविता"

ख़त्म ही नहीं हो रहा था
जैसे सागर सा विशाल स्वरुप ले लिया हो
सूझ ने मस्तिष्क के निम्न पटल पर
बादल सा छटता
तो कभी फिर घेर लेता
इक थक्का सा जमता जा रहा था
अनमानी पीड़ा गुमच के गोलियाती जा रही थी
जो ज़रा सी आंच से कभी भी फट जाती
वो छटपटाती हुई रात
न रुक रही थी, न ही बढ़ रही थी
कुछ विषय तो इतने पैने होते जा रहे थे
कि खोदने लगते नींदो में भी...
निसंदेह असहनीय होता जा रही थी
स्थिति धीरे-धीरे
किसको शामिल करती मैं
इस उठक-पटक में
सब व्यस्तता कि चरम सीमा पर थे
कोई सुन भी लेता तो भी अनसुना कर
हास्य के रंगमंच पर
समूहो के लिए प्रकरण
प्रस्तुत नहीं करना था मुझे
मेरे सामने इस विवशता का
और कोई तोड़ नहीं बचा था
सिवाय उन्हें पृष्ठों पर बो देने के
शांति कि खाद डाल थपथपा देने के
मैंने बिलकुल यही किया 
और लिख डाली अपनी पहली कविता
जिसका शीर्षक आज भी खोज रहा है
श्रृंगार किये वर्णो के पास अपना नाम
मेरी उस पल कि व्याकुलता से अनजान हो !!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 08/01/2014

बांस


जुड़ना चाहती हूँ,
मैं तुमसे..
किन्तु खुद खोखली हूँ,
इक बांस हूँ!
 
उखाड़ दिया है जमीन से,
अंधविश्वासिओ ने,
 
क्या तुम अपने आँगन में स्थान दोगे?

यदि संभव है,
तो मैं बहुत काम दूंगी,
छप्पर में लगूंगी,
फिर पानी पाथर से बचाऊंगी,
तूफ़ान में भी स्थिर रहूंगी,

मेरी जड़े यदि तुमने जमीन में लगा दी,
तो मैं फ़ैल कर तुम्हे ढाप लुंगी,
छाया दूंगी,
चूल्हे में ईंधन बन जलूँगी,

तुमसे कुछ मांगूंगी,
हरी-भरी रहूंगी,
 
यहाँ रही तो जिन्दा काट देंगे,
सूखने से पहले ही,
पीड़ा होगी मुझे,

यदि संभव है तो
तुम ले चलो.....
 

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

सांस-सांस रहो तुम.......


ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'

"बड़ा मुश्किल है"

 
 
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'


 

" मैं भारत की बेटी हूँ "


मैं भारत की बेटी हूँ ,,
उस भारत की
जिसके पास दीवारे तो हैं
पर छत नहीं.....
मेरे लिए आज़ादियाँ तो हैं
पर माहौल नहीं....

इसने कानून को पैदा किया पर  अन्धा ,,,
हाँ ! पर सुनता है लेकिन सबूत की भाषा ,,,
 
मेरे पिता भारत बहुत बेबस हैं
भारत माता  बहुत बेचैन
वो मुझे गोद में लिए रो रही है..
और बार -बार सिर्फ ये कहती है
की इस आवाम तुझे क्यूँ जन्मा मैंने !!

मेरे माता पिता देख रहे हैं 
अपने घर के हर  कमरे में 
हो रहे औरतो पे जुल्म को ,,

पर इनके हथियारों में जंग लग चुका है
और बाहर भ्रष्टाचार की 
जोरदार काली बूंदों की बारिश ,,,

मेरे पिता भारत बीमार हैं 
और फटे चुए चिथड़ो में बाहर जाते
की माँ ने उन्हें रोक लिया,,,

मेरे नासमझ माँ-बाप इंतज़ार कर रहे हैं 
ये बारिश थमने की ,,,
जो थामेगी  या नहीं  
सिर्फ एक सवाल है !!  

अगर हाँ तो कैसे ?
और अगर ना तो क्यूँ?
 
 
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Year : 2013

मुझपे ही क्यूँ है आजमाइश सारी...

यूँ तो जिंदगी में कुछ नहीं मेरे निभाने को
गुज़ारिश तुझसे खुदा ये है बंद कर इस तराने को

खोया बहुत कुछ मैंने तेरे इस शहर में आकर
बाकी कुछ न रहा हसरतो में अब मेरे पाने को

दो गुल खिले थे बाग़ में वो पतझड़ ले झपटा
उसने भी खूब तलाशा बहाना मुझे छोड़ जाने को

अच्छा नहीं लगता मिज़ाज़ किसी भी आलम का
सन्नाटा खेद लेती हैं मुझे नोचकर कर खाने को

बनाने वाले बता मुझको मोम क्यूँ नहीं बनाया तूने
तब इक आग ही फाकी होती जिस्म मेरा पिघलाने को

मुझपे ही क्यूँ है लगातार ये तेरी आजमाइश सारी
ज़माना कम पड़ा क्या तुझको सबक हर दिन सिखाने को


ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'
Dated :08/01/2014

Tuesday, January 7, 2014

समय लूट गया सूती धोती...

कहाँ भाग्य में मोरे मोती
काग खा गया हीरे कि गोटी
दोष तोहरा है और न ही सखी मोरा  
समय लूट गया सूती धोती !

आज माता कुमाता बन गईन
बाप बेच दिहिन लालच मा बेटी
हमरे घर का चूल्हा बुझान
लोग जालाए लिहिन ख़ुशी मा जोति !

कौन अपराध का भोगे खातिर
जनम धरती पर दिहिव रूप नारी
ऐतने जुगत से बटोरेन लज्जा
सास मिटाय दिहिन दय-दय गारी !

सोच-विचार कर मन घबरावे
इ कइसन जुग दउरा चला आवे
पाहिले अहिंसा धर्म का मूल रहा
आज इंसान इंसान नोच खावे !

हर कोई शराब - अफीम मा डूबा
घुमावे के खातिर मांगे महबूबा
नंगा होई गए प्रेम भाव सब
अश्लीशता बन गया नया अजूबा !

सेठ कय कुकुर नीक-नेउर खाय
नन्कू कये बिटिया भूखी सोया जाए
कोई महल बनाय रहत दस कमरा में
कई चिथरा पहिने फूटपाथ पर जीवन बिताय !

हमरे कलम कए धार है नोकी
पन्ना पर सब सच ही सच झोकी
गाड़ दियो ज़मीन मा सोचे कि क्षमता
या दई दियो नेकी का बादर कए चोटी !


Written By : Pari M 'Shlok'
Dated : 08/01/2014

वक़्त के कब्र में दफ़न हर सच्ची कहानी है.....

ये दुनिया इतनी झूठी है दिखावे कि दीवानी है
आँखो से लहू निकला वो बोल बैठे कि पानी है

जरकन कि चमक देखा खरीद लिया समझ हीरा 
तजुर्बे कि कमी है ये या फिर उम्र कि नादानी है

नज़रिये का फेर है यारो बात और कुछ भी नहीं है
किसी कि सीरत से यारी है किसी को सूरत प्यारी है

नुमाइश ही तो करती है ये कोठियाँ अमीरो कि
अंदर झाँख कर देखो फकीरो से भी भिखारी हैं

किसके बीच साबित करूँ अपनी हुनर कि शोखियाँ
जिसकी जेब खनकती हैं आज वही तो ज्ञानी है

लदा है बारूद सीने में जुबां पर प्रेम कि बानी है
बेमान वक़्त के कब्र में दफ़न हर सच्ची कहानी है

मिलता नहीं ग़ज़लो को भी अखबारों में पहला पेज,
बंद किसी डायरी कि 'श्लोक ' से ये शिकायत पुरानी है



ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 07th Jan, 2014

"तुम वास्तव में हो कौन"??


होंठो कि गुलाबी
नरम पंखुड़ियों पर
पानी का छीट भी मोती
सा बन बैठता है तुम्हारा नाम
झंकार सा बजने लगता है
अंतर्मन में किसी भी बेला में...
भूले से जिह्वा छोड़ देती है
जब तब किसी परचित पर
तुम्हारी पुकार का बाण...
जब वो अचम्भित होकर
संदेहिता से ताकता है
तो खिसिया मूड़ नीचे झुका लेती हूँ..
अजब-गज़ब कहानी बन जाती है
सखियो के जत्थों के बीच
ठिठोली बना लेती हैं मेरा
हर चित्तवृत्ति पर घेराव
करने लगते हैं सभी..
कई बार अभिप्राय को जोड़ने घटाने में
मैं स्वयं भी निरा-आधार हो जाती हूँ..
घटाओ को देख मोर बन नाचती हुई 
अचानक भापने लगती हूँ
अपने भाग्य के पाँव को तब
गठिया जाती हूँ शून्य हो जाती हूँ...
परन्तु तुम्हारा सन्देश
उमंग और लालसा का रस भर देता है
इन सब गुद-गुदाहट कि अकपट...
और मैं पलक झुका शर्म से लाली भई
कह ही देती हूँ सामने रखे दर्पण में देख
"तुम वास्तव में हो कौन"??



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

Monday, January 6, 2014

"ख़ाक हो जाने दो"

तुम मुझे ख़ाक हो जाने दो
बहुत जली हूँ अब राख हो जाने दो
कैसे समझाऊं उदासियाँ
कितनी सर चढ़ी हैं?
घटायें तेरी याद कि 
जबसे बरस पड़ी हैं
तैर कर उबलती लहरो से
किनारो से बात हो जाने दो..
बहुत जली हूँ अब राख हो जाने दो!

करवटो से टूटती है
मंज़िलो कि आस
सलीबों पर टांगा हुआ है
मेरा गूढ़ विश्वास
धागो से रिश्ते को चरखी पर
कातती गयी टूटता गया
कतरा था या रेत था
जितना सम्भाला उतना छूटता गया
पर्वतो को पार कर आकाश हो जाने दो
बहुत जली हूँ अब राख हो जाने दो!

हरियाई घास बाग़ कि पिली भात हो गयी
संवेदना के पेड़ कि टूटी शाख खो गयी
नवीन सृजन की संभावनाएँ
अस्त-व्यस्त रह गयी
पुतला जैसे माटी का मैं
रह-रह टूटी और डह गयीं
बची-खुची मंशा का अंतिम उपहास हो जाने दो
बहुत जली हूँ अब राख हो जाने दो!!
 
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'