Tuesday, February 25, 2014

दिल नहीं मेरे पास

 
दिल नहीं मेरे पास मोहोब्बत कहाँ होगी
लगता है कोई जिंदगी फिर से तबाह होगी

 
मेरी सूरत पे दमकते होंगे बेशक के आफताब
तकदीर कि गलियो में केवल आंधियां होगी
 
मेरे पास दर्द का घर है, मगर एहसास कि दीवारे नहीं
ऐसी भी क्या इस शहर में किसी कि दुनिया होगी

 
रो पड़ोगे बेवजह सुनके दास्तान मेरी
तुम्हारे पास भी कहाँ मेरे तकलीफो कि दवा होगी

 
टूटे हुए ख्वाबो कि चुरखणो को बीन कर
कैसे किसी कि आरज़ू 'श्लोक' फिर  जिन्दा होगी


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! वो मेरा था ही नहीं !!


किस बात पर मैं अपनी आँखे नम करूँ
वो मेरा था ही नहीं उसके जाने का क्या गम करूँ

 यूँ बेवजह उसके सितम को तवज्जु दे
अपने जख्मो के दर्द पर और कितने जुलम करूँ

कर दिया उसके नाम तमाम जिंदगी अपनी
और उसके खातिर तबाह मैं कितने जनम करूँ

यादो ठहर जाओ कोई आशियाना गर मिले तुम्हे
मुझे सोचने दो ज़रा मोहोब्बत कैसे कम करूँ

 हकीकत जो अब तक छिपाती आयी हूँ खुदसे 'श्लोक'
सोचती हूँ उसे जताने से अब शरम करूँ


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

कैसे उसे मैं दास्तान बया करता.........

कैसे उसे मैं दास्तान बया करता
वो मेरा था यकीनन दुआ करता

मुझे थी आरज़ू जिंदगी के मज़िल कि
वो राह में साथ चल सफ़र लम्बा करता

कैसे कहते कि काबिल नही हैं हम उसके
बड़ा जिद्दी है दामन पकड़ के रो पड़ता

उसको बिना बताये घर से निकल आये हैं
वो गर जाग जाता तो हंगामा खड़ा करता

इक उफ़ तो उठी है मेरे भी सीने में 'श्लोक'
ऐसे हालात में लिखता भी न तो क्या करता 


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

"मैं जब धूप में आती हूँ"


मैं जब धूप में आती हूँ
सांवली पड़ जाती हूँ
और तब ये कांच के मगरूर आईने
कमियां जताने पर अमादा हो जाते हैं
फिर अचानक तुम्हारी याद आ जाती है मुझे
जाने कैसे तुम बिना गुरेज
मेरे खूबसूरत होने का दम भरते हो ?
कौन से आँखों से
ताकते हो मुझे आखिर ?
क्या तुम्हारे मन का आइना इतना साफ़ है ?
कि मुझे मेरी खामिया
मालूम होने के बावजूद भी
उसका एहसास ही नही होने देती मुझे
जानते हो ?
तुम्हारा साथ मुझे सबसे जुदा होने के
गुमान में डाल देता है
रति, अप्सरा इनसे बढ़कर हो जाती है फिर 'श्लोक'
पता नहीं तुम ज्यादा अच्छे हो
या फिर तुम्हारे ख्यालात
मैं दोनों ही शक्ल में
अंतर नही भाप पायी आज तक
सच तो ये हैं कि
कुछ भी हो मगर
तुम दोनों ही सूरत में
मेरे लिए तो बस मेरे खुदा हो !!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक
रचनाकाल : 2006 , 14 जुलाई

(Note : कुछ फेर बदल करके, कुछ पंक्तियाँ अब जोड़ी हैं उसके बाद ये कविता प्रस्तुत कि है यहाँ मैंने )

तुम थे तुम्हारी याद थी



कुछ नहीं था वहाँ
सन्नाटे कि दीवारे थी
छत थी बेक़रारियो कि बेताबियों कि
ज़मीन कि खाकी परत थी
आसमान का नीला आँचल
झूल रही थी हवाओ के बीच कहीं
तुम थे तुम्हारी याद थी
तेज़ दौड़ती हुई मेरी धड़कने थी
मरे काबू से इकदम बाहर
सिलवटे थी अँधेरी रात कि
मैं एकदम तनहा
हालातो के कैद में फसी हुई
तन्हाईओं कि जुबान पर नाम मेरा था
और मेरी जुबान पर तुम्हारा
तकरार थी अज़ब सी
और
टूटती बिखरती हुई मैं
तारो कि टिमटिमाहट
कभी जलाता कभी बुझा देता
हैरान थी उलझने… बेबस थी संवेदनाये
लेकिन इन तमाम कशमकशमें
तुम्हे अपने करीब मौजूद पाया मैंने
कई मीलो कि अनगिनत दूरियों के बावज़ूद भी !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक
रचनाकाल : साल 2004 , 28 सितम्बर

Saturday, February 22, 2014

आज कि रात कि ये ख़ामोशी (my fev one)

आज कि रात कि ये ख़ामोशी
कुछ अलग ही है..
हवाओ कि सरगोशियाँ, ख्वाबो कि बेचैनियाँ
खुले जुल्फो में खुश्बुओ का उलझना मेरे
धड़कनो को सहलाना, नींदो का जागना
चाँद कि हलकी रोशनी से जलन
ये बेताबियाँ हैं कि रुकने का नाम नही ले रही
आज ये रात कुछ तो कह रही है
मगर क्या ?
तुम हो या फिर तुम्हारी यादो से
टूटने लगी है मेरी तन्हाई
तुम आये हो या
फिर ये वहम कि अनजानी परछाइयाँ
कोई साज़िश करने पर उतारू है
कहीं ऐसा तो नही कि
मुझे भी मोहोब्बत हो गयी है तुमसे
ये जानते हुए भी कि
ये पागलपन के सिवा कुछ भी नही
तुम हो ही नही आस-पास और शायद बहुत दूर तलक भी नहीं !!
 
रचनाकार : परी ऍम श्लोक
19/12/2004
 
(Note : जावेद अख्तर जी से मुवाफ़ी चाहते हुए..............
 मैंने ये  पंक्तियाँ 19 दिसंबर 2004  को लिखी थी अगर गलती से कुछ शब्द मिले तो माफ़ करियेगा )

" ख्यालात "




तुम मेरी लव्ज़ हो मैं तुम्हे खो कैसे सकती हूँ
तुम सवेरे मिलोगे इस खबर के बाद मैं सो कैसे सकती हूँ
लोग कहते हैं पत्थर दिल हूँ मैं इन्हे कैसे बताऊ कि दीद में हो तुम
दर्द कितना भी टीस दे मगर मैं रो कैसे सकती हूँ

 
फिर क्या हुआ कि तुम मेरे रुबरु नहीं रहे
ऐसा नही कि तुम अब मेरी जिंदगी नहीं रहे
हो सकता है कि लकीरे न हो तेरे नाम कि हाथो में
ये मत सोचना कि तुम आज मेरी आरज़ू नही रहे

 
गीतो में ग़ज़ल में मैं तुम्हे गुनगुनाती रही
ये बात और है जहान वालो से तुम्हे छिपाती रही
मालूम है साँसों कि लड़ी टूट जायेगी और तुम न आओगे कभी
मगर फिर भी तेरे इंतज़ार में मैं उम्र बिताती रही
 
मेरे नसीब में शायद था जिन्दा होकर भी खो जाना
मैं अक्सर तलाशती हूँ मुझमे अपना वज़ूद रोजाना
मगर जाने क्या मंज़ूर है बेचैन दिल को मेरे यारो
बड़ा अज़ीब लगा आईने में खुद को देखूं और उसका मिल जाना
 
ऐसा नहीं कि तबियत मेरी जां नहीं बदली
रूह बदला, दिल बदला, कुछ दास्तान नहीं बदली
हम निकल आये तेरे शहर से आज बहुत दूर
घर बदला, वक्त बदला मगर तेरी जगह नहीं बदली

नादान है दिल इसको समझाना बेकार है
इश्क़ किया तो दर्द का दरिया तैयार है
दोनों तरफ वफाये हो तो किस्मत तुम्हारा 'श्लोक'
वरना रुस्वाइयों का मज़ा भी बेहद बेमिसाल है


मैं हालातो से लड़ती हूँ झगड़ती हूँ जीत जाती हूँ
मैं इंसान हूँ इस गुरूर से अक्सर सर उठाती हूँ

मैं जिन्दा हूँ इसका एहसास भी मरने नहीं देती
मैं इंसानियत कि अलख रूह तक में जलाती हूँ
 
 
जाने क्या सोच कर समंदर में उतर गए थे हम
न कश्ती का सहारा था न लहर पर जोर हमारा था
हमने आंधियो को रोकने के लिये ताकत लगा दी
मगर न वो शहर था मेरा न ही वो घर हमारा था


रचनाकार : परी ऍम "श्लोक"

Friday, February 21, 2014

"गरीबी"


मशगूल होती है कितनी
गरीबी अपने आप में
पेट कि भूख के आगे
कुछ भी नहीं चलता
सोते जागते जब भी
केवल सोचता है
आज कि रोटी कैसे जुटाएगा ?
बिलखते बच्चो को
कैसे चुप कराएगा ?
सियासत, लोगो कि
बुराई-दुताई इनसब से
कोसो दूर होता है
क्यूंकि उसके पास चिंता का
अथाह भण्डार होता है
उसे केवल तन ढापने के लिए
लिबास चाहिए होता है
सुंदरता को बढ़ाने का
भूले से भी ख्याल नहीं आता
उसे मालूम होता है
उसके पास मात्र इक चादर है
और उसे सर्दी, गर्मी सब
उसी चादर को अपने परिवार के साथ
बांटकर बिताना है
उसे रोटी कि मिठास का अंदाज़ा
बर्गर, पीज़ा, डोसा,
इनसब से बढ़कर होता है
गरीब से बेहतर कौन जनता होगा ?
संघर्ष का मूल अर्थ
और
सांझेदारी का सच्चा तात्पर्य
जो इक रोटी से कई टुकड़े तैयार कर
पूरे परिवार को संतुष्ट कर देता है !!



रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"बस तुम्हे सोचती हूँ"

आज कल जब सोचती हु बस तुम्हे सोचती हूँ            ,,,
कुछ तेरी खूबियाँ हद से ज्यादा,,,कुछ खुद की हज़ारो कमी सोचती हूँ ,,,

तेरे इशारों पे रक्स करने लगा है मेरा ठहरा हुआ तसव्वुर,,,,
दिल हुआ है क्यूँ इतना,,, मतलबी सोचती हूँ ,,,

दरारी चूडियो की तरह जब धड़कने ज्यादा आवाज़ करती हैं,,,
मै बिखर जाने की नजदीकी सदी सोचती हूँ,,,

आज कल जब सोचती हु बस तुम्हे सोचती हूँ,,,

तुम्हारे प्यार से अपने घर में उजाला करके,,,
हालात-ए-हवाओं की मै बेरहमी सोचती हूँ,,,

रेत के सेहरा पे लिख के नाम तेरा,,
प्यास बुझा पाऊँगी कैसे सोचती हूँ,,

जस्बातो की जब भी नामुमकिन ज़स्तुजू का ख्याल आता हैं,,,
आँखों में आंसुओ का दरिया नहीं,,समंदर-ए-लहू सोचती हूँ,,,

आज कल जब सोचती हु बस तुम्हे सोचती हूँ,,,


ग़ज़लकार : परी ऍम श्लोक

Thursday, February 20, 2014

"अल्फ़ाज़"

1) मेरी कहानी कि पंक्तियाँ खुद से यूँ हैरान थी
कुछ शब्द आंसू से फीके हो गए कुछ लहू से लाल थी
कलम को तोड़ती रही दर्द कि आह ! लगातार
एहसास के पन्ने खुशियो से इस कदर बेज़ार थी
किरदार था कमज़ोर आग़ाज़ तो कर लिया लेकिन
अपनी कहानी के अंजाम से खुद ही शर्मसार थी


3) कर गया था बदहवासी में इक फैसला वो शक्स
आज हर फैसले से वो चोट खाये जा रहा है
वो फूल जो अँधेरे से थक के उजालो कि चाह कर बैठा था
उसको तो चाँद के ठंडा उजाला भी जलाये जा रहा है


4) चिरागो तले जब भी अँधेरा मिले तो
समझ लेना मुझ बिन अधूरे रहे तुम



5) मेरे नगमे तुम्हारी याद में कुछ यूँ सजाये हैं
 अतिशो के गाँव से जाकर जुगनुओ को लाये हैं
इंद्रधनुष के रंगो से लिखा हैं  तुम्हारा नाम
मोहोब्बत -ए-जस्बात से गीतो के घुन बनाये है


6) ए गम तेरे इरादे बहुत खूंखार है ना देख मुझसे न उलझ
वरना यूँ मसलूँगी कि तू ख़ाक में मिल जाएगा !


7) कोई तो नज़र उतारो मेरी जिंदगी की,,,
बेहद खुबसूरत है और यहाँ निगाहें फ़कीर है सबकि !!



8) ये जिंदगी का मसला खुद-बा-खुद सुलझा लूँगी ,,,





बदलियाँ हो गम की फिर भी मुस्कुरा लूँगी ,,,
मेरा वजूद तुझमे सिमटा हुआ है इस कदर,,
तू मिल गया मुझे,,,, तो मुकम्मल जहान पा लूँगी !!
 
 
9) इससे पहले तो बारिश ने हमें यूँ भिगोया था,,,
जरा देखो ना!
ये बूंदे कैसे गुस्ताखियों पे उतर आई हैं,,,,


10) हालात वैसे ही हैं मगर किरदार बदल गए हैं
आस्मां अपनी जगह से हिला भी नहीं


जाने कब ? ये दर-ओ-दीवार बदल गए हैं


11)  मेरी अपनी मेरी हमदर्द मेरी हमराज़ भी है,
ये शायरी, ग़ज़ल, कहानी, कविता मेरी आवाज़ भी हैं
मुझे नहीं चाहिए वफ़ा कायनात के बाशिंदो का
जिंदगी का अंजाम भी लव्ज़ हैं और यही आग़ाज़ भी हैं




12) कहीं बसेरा न मिले गर तो मलाल न रखना मेरे दोस्त 
जहाँ तेरा आशियाना होगा वहाँ इक शाम तुझे पहुंचा देगी !!



13) मैं सूरज से मिलाने निकली हूँ आँख
    मगर उम्र थोड़ी हैं और फ़ासला लम्बा !!


14) मुझपे क्या गुजारी क्या जानोगे मेरे मोहसिन
बस इतना जान लो मर रहे है हम जिंदगी के हाथो!!

15) मैं उस मगरूर से शिकवा भी क्या करती 'श्लोक'
हर इल्जाम मेरे सर था मोहोब्बत से बेवफाई तक

16) बचा न कुछ भी कहने को फिर ख़ामोशी के अलावा
उसने नज़र मिला के बोला कि तुम मेरी जिंदगी हो श्लोक

17) "सब कुछ अजनबी-अजनबी सा लग रहा है 'श्लोक' .....
यूँ तो तिलासा सबने दिया कि वो इस शहर में मेरे अपने है

18) बड़ा अजीब रहा तकदीर का सितम मुझपे 'श्लोक'
सही का नकाब ओढ़ा हुआ था हर नामाकूल फैसलो ने

19) वहीँ उसी सफ़र में जहाँ तुम मुझे मिलोगे
किसी मोड़ पे ठहर कर तेरा इंतज़ार करके देखते हैं
मोहोब्बत फूल गुलाब से हर कोई करता है
आज चलो हम भी कांटो से प्यार करके देखते हैं
20) हम सिर्फ टूटे ही नहीं टूट कर बिखरते चले गए
हम दर्द कि हर इम्तिहान से गुजरते चले गए
सोचा था तुम्हे बयां नही करेंगे हाल-ए-तड़प अपना
मगर आंसू आँखो कि दहलीज़ पार करते चले गए

शायरा : परी ऍम श्लोक

"कहूँ कि कितना खुश हूँ मै"


कहूँ कि कितना खुश हूँ  मै मेरी आदाओ से पढ़ लो
कि आज कल कुछ भी बयान करने को अल्फाज़ नहीं मिलते

उनको जता पाती मोहोब्बत मेरी चाहती है क्या-क्या
नजाने क्यूँ दिल के हालात से लबो के इज़हार नहीं मिलते

करती हूँ बाते बहकी-बहकी नजाने किस खुमार में रहती हूँ
की पहले  के ‘श्लोक’ से अब मेरे मिजाज़ नहीं मिलते,,,,

तोड़ती जा रही हूँ बंदिशे.. इस मतलबी समाज की,,,
जो मुझे रोक ले राह-ए-दरमियाँ वो दीवार नहीं मिलते…

मै लुटाने लगी हूँ उनपे रातो की नींदे आखिर कुछ तो है वजह
सच कहूँ तो इंसानी बस्ती में फ़रिश्ते-ए- किरदार नहीं मिलते


ग़ज़लकार  : परी ऍम श्लोक

"गर्दिश"