मैं जब धूप में आती हूँ
सांवली पड़ जाती हूँ और तब ये कांच के मगरूर आईने
कमियां जताने पर अमादा हो जाते हैं
फिर अचानक तुम्हारी याद आ जाती है मुझे
जाने कैसे तुम बिना गुरेज
मेरे खूबसूरत होने का दम भरते हो ?
कौन से आँखों से
ताकते हो मुझे आखिर ?
क्या तुम्हारे मन का आइना इतना साफ़ है ?
कि मुझे मेरी खामिया
मालूम होने के बावजूद भी
उसका एहसास ही नही होने देती मुझे
जानते हो ?
तुम्हारा साथ मुझे सबसे जुदा होने के
गुमान में डाल देता है
रति, अप्सरा इनसे बढ़कर हो जाती है फिर 'श्लोक'
पता नहीं तुम ज्यादा अच्छे हो
या फिर तुम्हारे ख्यालात
मैं दोनों ही शक्ल में
अंतर नही भाप पायी आज तक
सच तो ये हैं कि
कुछ भी हो मगर
तुम दोनों ही सूरत में
मेरे लिए तो बस मेरे खुदा हो !!
रचनाकार : परी ऍम श्लोक
रचनाकाल : 2006 , 14 जुलाई
(Note : कुछ फेर बदल करके, कुछ पंक्तियाँ अब जोड़ी हैं उसके बाद ये कविता प्रस्तुत कि है यहाँ मैंने )
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