क्यूँ नहीं होता
हमारी जिंदगी में
वो जो हम चाहते हैं?
क्यूँ हम क्षमता होने के बावज़ूद भी
गुलाम से ज्यादा कुछ नहीं ?
जो प्रकृति, किस्मत, फैसले, भावनाएं, रिश्ते
इन सब के तराजुओं में
तुलता ही रहता है आय दिन आदमी !
कम से कम वो जो बुरा न हो
थोड़ा अच्छा हो मन- मुताबिक
उसे तो मुकाम मिलना चाहिए न ?
क्यूँ कभी कभार हम खुद को भी
अपने वश में नहीं कर पाते?
क्यूँ हमेशा इंसान अंदर के
खायी कि गहराई रहस्यमयी होती है ?
क्यूँ सपने से
साक्षातकार नहीं किया जा सकता?
क्यूँ जीवन को अपने मुताबिक
रोका या चलाया नहीं जा सकता
जबकि हर सांस कि पहरी मैं हूँ?
पंछियो कि तरह धरती-आसमान पे
मेरा अधिपत्व क्यूँ नहीं ?
जबकि उनसे ज्यादा काबिल हुँ मैं !
गलत का रूपांतरण कैसे किया जाता है?
सही का आधार क्या है आत्मा या समाज है ?
सच हर कोई अपने लहज़े में बोलता है !
फिर भी वो सच कैसे होता है ?
क्या किसी ने भगवान् खुद कभी देखा है ?
फिर कैसे कहते हैं ?
कि भगवान् सब देखता है ?
पता नहीं जिज्ञासा क्या है ? कितनी है ?
मगर
सोचती हूँ मैं भी
अक्सर ऐसी ही कुछ बातें
बादलो में पैर मारने लगती हूँ
जानते हुए भी
कि कद छोटा है सवाल अज़ीब
और इन प्रश्नो के सबके पास
बेबुनियाद उत्तर है लेकिन फिर भी !!!
रचनाकार : परी ऍम श्लोक
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