इन चेहरो के बीच
कहीं तुम
कई करोड़ो के दरमियां
कहीं हम
तुम दूर तलक
भी मुझको नज़र
आते नहीं
ख्वाबो में आकर
भी चहरे से
पर्दा हटाते नहीं
तुम गुलाबी हो सुनहरे
हो मालूम नही
तुम किस शहर
में ठहरे मालूम
नही
तुम हो तो
कहीं, हो तो
कहीं, हो तो
कहीं
मेरी तलाश उम्मीद
के पर्वत पे
चढ़ चिल्लाती है
इक हसरत तेरे
नाम पे उठती
है जब भी
मेरे एहसासो पर हलचल
के रंग उड़ेल
जाती हैं
है सफ़र और
मुकाम भी तयशुदा
है
इक दिन मिलेगा
मुझसे जो अबतक
जुदा है
तेरे नाम से
चलती हूँ सुबह
बनकर
शाम बनके ढलती
हूँ जब थक
जाती हूँ
क्या क्या बीती
है मुझपर कैसे
बताउंगी तुम्हे
जब से सोचती
हूँ तो खुदा
कसम सिहर जाती
हूँ
खुदा हर किसी
में कहाँ हर
हुनर मिलाते हैं
न गुमान करे इसलिए
कुछ तो बचाते
हैं
इक उम्र के
बाद जगी हैं
मुझमे आरज़ू
क्या यही वो
दौर है सब
तनहा खुद को
पाते हैं
ज्यादा वहम सुना
है अच्छा नहीं
होता
ये ख्याल आते ही
नींद में खो
जाते हैं
बस इतना जानती
हूँ जैसे सब
बताते हैं
खुदा हर किसी
के लिए हमसफ़र
बनाते हैं
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 2011, Dec 18
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