Wednesday, February 26, 2014

"इस शहर में सरमरमर कि कीमते बड़ी हैं"

सुना है आज के बाशिदों में हसरते बड़ी हैं
श्लोक के नाम पर जुबान पर मसलते बड़ी है  

शक्ल पर तो नूर छलकता है आँखों में आफताब
मगर दिल के बाग़-बागीचों में नफरते बड़ी हैं  

भरी हैं जिनकी तिजोरियां गाँधी छाप कागज़ो से
यकीनन उनके नसीब में रातो को करवटे बड़ी हैं  

मैं गरीब हूँ बेफिक्र हूँ बेखौफ मुस्कुराती रहती हूँ
अमीरो के पेशानी पर देखो सिलवटे बड़ी हैं 

भूल गया है इंसान इंसानियत कि बोली भाषा
इनकी दीद में खुदगर्ज़ी कि रंगीन परते चढ़ी हैं 

सीरत का हुनर भूले सीरत पे सब हुए अमादा
इस शहर में सरमरमर कि कीमते बड़ी हैं  

मुझसे खफा हुए तो हो जाओ जहानवालो
मुझे भी कसम से सच कहने कि आदत बुरी है



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

No comments:

Post a Comment

मेरे ब्लॉग पर आपके आगमन का स्वागत ... आपकी टिप्पणी मेरे लिए मार्गदर्शक व उत्साहवर्धक है आपसे अनुरोध है रचना पढ़ने के उपरान्त आप अपनी टिप्पणी दे किन्तु पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ..आभार !!