Tuesday, February 11, 2014

"माटी है देह"


माटी है सबका देह सखी 
माटी मा मिल जाना है
राख बन पानी संग बहना
कब्र में पड़े-पड़े गल जाना है
जिस पल पड़ी मैं अचेत सखी
इकहरा ही रुक्सत हो जाना है
अंत यही लिखा है सबके जनम का
फिर क्या खोना क्या पाना है
माटी से ज्यादा सखी हमको
अपना कर्म शोभायमान बनाना है
ये रूप रंग का क्या कहना
इक दिन झुर्री पड़ जाना है
हमसे मिलने का ठौर सखी
मन मेल का घरुही ठिकाना है
देह पाकर भी कुछ न पायो
जो प्रेम का शस्त्र जंगाना है
किस्मत से ही मिले भाव ये
खोज-खरीद के भी न पाना है
झूठ के सांचे में ढले सब जन
नेकी का गवाच गयो आशियाना है
 


रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

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