Friday, February 7, 2014

"नहीं कहूँगी"

कहने को नही है
कुछ भी मेरे पास
पर अगर तुम सुनोगे
तो जरूर कह डालूंगी
तूफ़ान सी अंदर उठती हुई
असमंजस कि अजीबो-गरीब दास्तान...
हो सकता है तुम्हे समझ ज़रा भी न आये
यकीनन इसके लिए वो एहसास चाहिए
जो तुम्हे पाने के पहले दिन से
मेरे ह्रदय में पनप उठा है
और मुझे वहमो के झूले में बिठा
पेंगी लगता हुआ पत्ता रहा है !

सब कहते हैं मैं बावली हो गयी हूँ
तुम्हे तो मेरी तनिक भी सुध नहीं
फिर भी मैं हूँ कि तुम्हे भूलती ही नहीं

कैसे भूलूं क्या ये यूँही क्षणो में
भुला देने वाला इत्तफाक है ?
 सच कहूं ? जितना सुख देती है
उठती-गिरती गोते लगाती सी खलल
उतनी ही पीड़ा देती है तुम्हारी अनुपस्थिति

बड़ी तल्लीनता से गढ़ा है तुम्हे 
तुम सपना हो इक सुंदर सा
जिसे जीने कि भूल कर बैठी हूँ
सपने तो होते हैं टूटने के लिए
पर तुम्हे मैं सजोना चाहती हूँ
हर तरह कि हलाहल से बचा के
और महफूज़ कर लेना चाहती हूँ
हमेशा के लिए तुम्हारी हर अदा,
हर सोच को मुझमे...

नहीं कहूँगी कि तुम मेरे हो जाओ
क्यूंकि तुम क्या चाहते हो?
ज्यादा महत्वपूर्ण है मेरे लिए
मगर
तराश लूंगी तुम्हारा अक्स
मैं आर-पार देह से रूह तक
ताकि तुम लाख चाह कर भी
मुझसे तुमको छीन न सको!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

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