भ्रष्टाचार कि हर सांस
कई मासूमो के
जिंदगी के अहम हक़ को
निगल लेता है
भ्रष्टाचार बांस कि
कोठरी कि तरह है
जितना काटो उतना पसरता जाता है
दूषित हो गयी है
आब-ओ-हवा मुल्क कि
जिसको कुर्सी मिली
वो मग्न हो जाता है
अपने रुतबे के फैलाव में
फिर कैसे दुरपयोग किया जाए
शक्ति का इससे चूकते नहीं
सोचती हूँ कि
किस तरह से हास हो गया होगा
इंसान कि मानसिकता और मानवता का
जो भ्रष्टता के आसमान पे जा पहुंचा
अपनी-अपनी सबको पड़ी है
हर जर्रा सिसकता है अब
दम घोटती है हवा
कितनी बेरंग हो गयी है
मन कि दीवार सबकी
जो है बस लीपा पुती में लगा रहा
ये तो कथित सत्य है
जिनको भूख है वो भूखा सोता है
जिनका पेट भरा है वो
रोटी कुत्तो में डाल देता है
बड़े अफ़सोस पे उतर आती है
मेरी कविता के शब्द
व्यंग कसु या विलाप करूँ ?
किसको इल्जाम दूँ
देश के रूप का तख्ता पलट करने का
आम आदमी को जो अपने हक़ नहीं समझा
सियासी आदमी को जिसको फुर्सत नहीं सियासत से
या फिर बीच के लोगो से
जिनकी जेब गर्म बाकी सब ठंडा !!
रचनाकार : परी ऍम श्लोक
कई मासूमो के
जिंदगी के अहम हक़ को
निगल लेता है
भ्रष्टाचार बांस कि
कोठरी कि तरह है
जितना काटो उतना पसरता जाता है
दूषित हो गयी है
आब-ओ-हवा मुल्क कि
जिसको कुर्सी मिली
वो मग्न हो जाता है
अपने रुतबे के फैलाव में
फिर कैसे दुरपयोग किया जाए
शक्ति का इससे चूकते नहीं
सोचती हूँ कि
किस तरह से हास हो गया होगा
इंसान कि मानसिकता और मानवता का
जो भ्रष्टता के आसमान पे जा पहुंचा
अपनी-अपनी सबको पड़ी है
हर जर्रा सिसकता है अब
दम घोटती है हवा
कितनी बेरंग हो गयी है
मन कि दीवार सबकी
जो है बस लीपा पुती में लगा रहा
ये तो कथित सत्य है
जिनको भूख है वो भूखा सोता है
जिनका पेट भरा है वो
रोटी कुत्तो में डाल देता है
बड़े अफ़सोस पे उतर आती है
मेरी कविता के शब्द
व्यंग कसु या विलाप करूँ ?
किसको इल्जाम दूँ
देश के रूप का तख्ता पलट करने का
आम आदमी को जो अपने हक़ नहीं समझा
सियासी आदमी को जिसको फुर्सत नहीं सियासत से
या फिर बीच के लोगो से
जिनकी जेब गर्म बाकी सब ठंडा !!
रचनाकार : परी ऍम श्लोक
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