कुछ नहीं था वहाँ
सन्नाटे कि दीवारे थी
छत थी बेक़रारियो कि बेताबियों कि
न ज़मीन कि खाकी परत थी
न आसमान का नीला आँचल
झूल रही थी हवाओ के बीच कहीं
तुम थे तुम्हारी याद थी
तेज़ दौड़ती हुई मेरी धड़कने थी
मरे काबू से इकदम बाहर
सिलवटे थी अँधेरी रात कि
मैं एकदम तनहा
हालातो के कैद में फसी हुई
तन्हाईओं कि जुबान पर नाम मेरा था
और मेरी जुबान पर तुम्हारा
तकरार थी अज़ब सी
और
टूटती बिखरती हुई मैं
तारो कि टिमटिमाहट
कभी जलाता कभी बुझा देता
हैरान थी उलझने… बेबस थी संवेदनाये
लेकिन इन तमाम कशमकशमें
तुम्हे अपने करीब मौजूद पाया मैंने
कई मीलो कि अनगिनत दूरियों के बावज़ूद भी !!
रचनाकार : परी ऍम श्लोक
रचनाकाल : साल 2004 , 28 सितम्बर
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