Friday, February 21, 2014

"गरीबी"


मशगूल होती है कितनी
गरीबी अपने आप में
पेट कि भूख के आगे
कुछ भी नहीं चलता
सोते जागते जब भी
केवल सोचता है
आज कि रोटी कैसे जुटाएगा ?
बिलखते बच्चो को
कैसे चुप कराएगा ?
सियासत, लोगो कि
बुराई-दुताई इनसब से
कोसो दूर होता है
क्यूंकि उसके पास चिंता का
अथाह भण्डार होता है
उसे केवल तन ढापने के लिए
लिबास चाहिए होता है
सुंदरता को बढ़ाने का
भूले से भी ख्याल नहीं आता
उसे मालूम होता है
उसके पास मात्र इक चादर है
और उसे सर्दी, गर्मी सब
उसी चादर को अपने परिवार के साथ
बांटकर बिताना है
उसे रोटी कि मिठास का अंदाज़ा
बर्गर, पीज़ा, डोसा,
इनसब से बढ़कर होता है
गरीब से बेहतर कौन जनता होगा ?
संघर्ष का मूल अर्थ
और
सांझेदारी का सच्चा तात्पर्य
जो इक रोटी से कई टुकड़े तैयार कर
पूरे परिवार को संतुष्ट कर देता है !!



रचनाकार : परी ऍम श्लोक

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