Friday, February 7, 2014

"जमाने के रंग"


मैं चलती हूँ
तो चलता हैं
साथ-साथ ज़माना
मैं गिरती हूँ
तो चढ़ के निर्दयिता से
कुचलने लगते हैं
जब हसती हूँ
तो जाने क्यूँ
जल से जाते हैं ?
जब रोती हूँ तो
बजाने लगते हैं तालियां
सर्कस बना दिया हैं
दूसरो का जीवन जैसे
हर दूसरे व्यक्ति ने 
चले आते हैं घटना सुनके
पीड़ा लादे थकी हुई
पीठ को थपथपाने 
पेट भरा हो तो
सब घेर खड़े हो जाते हैं
जब भूखी रहती हूँ
तो मुख फेर के खड़े हो जाते हैं
कोई न पढ़ पाया जन को
अदृश्य लिखावटों में
जाने क्या-क्या रच जाते हैं?
अब ताल कटोरा नैन का सुखाय लिए
हर समस्या कि
हम भी अट्हास उड़ाते हैं
जब से जान पाये हैं
इनके मन्त्र हैं मीठे बोल
हम भी इन्ही में रच-बस के
राब से ही बन जाते हैं!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

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