शोषित हूँ पुरुषार्थ से
श्रापित हूँ पितृ दोष युक्त समाज से
शोषक निर्भयिता से जीता है
जीती हूँ मैं पीड़ा औऱ संताप में
घर में रावण, बाहर दुर्योधन
अंदर भी छीले ही जाना
बाहर भी नोचे जाना
नारी का बेच खरीद करो
मानवता को शर्मसार औऱ भयभीत करो
मैं नहीं हूँ कोई समान
फिर क्यूँ होता है इतना अपमान?
कैसी कैसी छेड़खानी औऱ भद्दे व्यंग
छेड़ देते हैं भीतर इक जंग
आँख पनीली हो या लाल
दर्द वेदना अपना हाल
क्यूँ ह्रदय दिया इतना भावुक
मोह माया में जा फसी है जान
सहन मेरी मारे चीत्कार
सहती है तू क्यूँ निरपराध
धमका देती हूँ उसको भी मैं
कि मैं तो अबला नारी हूँ
करम,दुर्भाग्य,देह, रूप के कारण
हीन समाज कि सोच से हारी हूँ
मुझमे क्षमता देख सागर जैसे
लोग तोड़ देते हैं गागर जैसे
भेट चढ़ु अपनों के नाम पर
दाग लगे जो उनके दामन पर
मेरा दायरा नियत कर दिया
जीवन रच डाला जैसे बेचारा है
मैं ही कुल कि मर्यादा हूँ
औऱ मेरा मान ही हारा है
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
श्रापित हूँ पितृ दोष युक्त समाज से
शोषक निर्भयिता से जीता है
जीती हूँ मैं पीड़ा औऱ संताप में
घर में रावण, बाहर दुर्योधन
अंदर भी छीले ही जाना
बाहर भी नोचे जाना
नारी का बेच खरीद करो
मानवता को शर्मसार औऱ भयभीत करो
मैं नहीं हूँ कोई समान
फिर क्यूँ होता है इतना अपमान?
कैसी कैसी छेड़खानी औऱ भद्दे व्यंग
छेड़ देते हैं भीतर इक जंग
आँख पनीली हो या लाल
दर्द वेदना अपना हाल
क्यूँ ह्रदय दिया इतना भावुक
मोह माया में जा फसी है जान
सहन मेरी मारे चीत्कार
सहती है तू क्यूँ निरपराध
धमका देती हूँ उसको भी मैं
कि मैं तो अबला नारी हूँ
करम,दुर्भाग्य,देह, रूप के कारण
हीन समाज कि सोच से हारी हूँ
मुझमे क्षमता देख सागर जैसे
लोग तोड़ देते हैं गागर जैसे
भेट चढ़ु अपनों के नाम पर
दाग लगे जो उनके दामन पर
मेरा दायरा नियत कर दिया
जीवन रच डाला जैसे बेचारा है
मैं ही कुल कि मर्यादा हूँ
औऱ मेरा मान ही हारा है
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
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