Friday, February 7, 2014

" कवि "

आशावादी कवि बनना चाहती थी
हमेशा से ही मैं...
तब जब कभी मैंने पहली बार
शब्दो को सज़ा के लिखा था
और पढ़ा था किसी कवि को !

मगर हुआ यूँ कि
निराशा कि मांजे वाली जाल में
फस के मैं गिर पड़ी इक रोज़
और
आशा कहीं झट से धुँआ हो गयी
बचे हुए वादी के साथ
निराशा ने फट से गाँठ जोड़ लिया !

कल्पना करना चाहती थी
बहुत दूर तक फैलाना चाहती थी
अपने सोच के बहुरंगी पंख
लेकिन
हकीकत में ऐसी बहुत सी घटनाएं
मेरे सामने घटित होने लगी
जिसे अनदेखा करना
मुनासिफ बिलकुल नहीं था !

जो मैंने महसूस किया
अपने आस-पास होता हुआ
उसपे काफी विचार किया
अंदर के कवि ने सलाह दी कि
सत्य ली लाइन खींचती हुई आगे बढूँ
अंजाम कि फ़िक्र कलमवाले नही करते !

बस फिर मैं लिखती चली गयी
बिना ये जाने-बूझे कि मेरे बारे में

किसी कि व्यक्तिगत या संगठित रूप में 
क्या राय बन सकती हैं?

कि मैं क्या हूँ ?
किस मिज़ाज़ कि कवि हूँ??

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

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