Friday, February 7, 2014

!! अच्छा नहीं लगा !!

इंसान कोई इस शहर का सच्चा नहीं लगा
घर से निकल के बाहर मुझे अच्छा नहीं लगा

सपनो कि उड़ान ने लाकर गिराया ज़मीं पर
नींद का मुझे कुछ यूँ सताना अच्छा नहीं लगा

जबरन खींच लिया है यौवन ने दहलीज़ पर
बचपन का हाथ छूट जाना अच्छा नहीं लगा

रोने पे भाग आते थे मेरे अपने किसी वक़्त
मुस्कुरा के उनसे आहें छिपाना अच्छा नहीं लगा

बड़े आराम से कह जाते हैं फैसले हम ही लेंगे 
हर किसी का यूँ हक़ जताना अच्छा नहीं लगा

ताड़ता रहा मेरे यौवन को छुपी-फिरि नज़रो से
मोहोब्बत के नाम पे हवसखाना अच्छा नहीं लगा

कायदे अलग क्यूँ जब इंसान हम एक हैं?
औरत के हिस्से में नसीब-ए-पैखाना अच्छा नहीं लगा

सम्भाले हुए हैं इक टीस सी बगावत सीने में 
माटी सा रिश्ता झाड़ जाना अच्छा नहीं लगा

ता-उम्र जिनका वास्ता नहीं रहा जिंदगी से मेरी
मेरे मरने पे उनका आँसू बहाना अच्छा नहीं लगा


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

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