जिंदगी का इक
मौसम बदल रहा
है
जवानी आ रही
है बचपन ढल
रहा है
बड़ी कुर्बानिये देनी होती हैं इस मुकाम पर आकर
जैसे रोशनी देकर मोम
पिघल रहा है
जुबान पे रखने
होंगे बर्फ के
गोले ही गोले
बेशक कि जंगल
दिल का जल रहा
है..
ख्वाब पाश-पाश
हो जाएँ फिर
भी मुस्कुराते रहना
जैसे घटा
छाकर भी बिना
बरसे कभी बादल
रहा है
कई झोंके तुम्हे बिखेर
सकते हैं इस
दौर में
इस लम्हात में इंसान जहन से पैदल रहा है ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
26/02/2014
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