Wednesday, February 26, 2014

जिंदगी का इक मौसम बदल रहा है


जिंदगी का इक मौसम बदल रहा है
जवानी रही है बचपन ढल रहा है
 
बड़ी कुर्बानिये देनी होती हैं इस मुकाम पर आकर
जैसे रोशनी देकर मोम पिघल रहा है  

जुबान पे रखने होंगे बर्फ के गोले ही गोले
बेशक कि जंगल दिल का जल रहा है..  

ख्वाब पाश-पाश हो जाएँ फिर भी मुस्कुराते रहना
जैसे  घटा छाकर भी बिना बरसे कभी बादल रहा है

कई झोंके तुम्हे बिखेर सकते हैं इस दौर में
इस लम्हात में इंसान जहन से पैदल रहा है



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

26/02/2014

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