Friday, February 7, 2014

" वैश्याएं "


कई हज़ारो संख्या में
सौन्दर्य कि देवियाँ  
नीचे से ऊँचे दामो पर
उन गलियो में बने
हर घर कि कोठरी में
सामान कि तरह मिलती हैं
उनकी बोली लगती है
नीलाम वस्तुओ कि तरह
वहाँ कोई ब्याहने के लिए
रिश्ता लेकर
उन्हें देखने या
पसंद करने नहीं जाता 
उन्हें कोई भी आशा नहीं होती
इस कैद से आज़ाद होने कि
कच्ची उम्र से अंत तक
आँखे ग्राहक खोजती है
ग्राहक उनमें औरत
गुण-अवगुण का
कोई अर्थ नहीं होता
हर पुरुष का भोग बनती है
ह्रदय तो होगा यकीनन उनमें भी
लेकिन शायद प्रेम का ताल
सूख जाता है देह परोसते-परोसते
क्यूंकि उन्हें मालूम होता है
केवल उनमें ही इतना सामर्थ्य है
कि वो अपने घर में
खरीददारों को इक कोना दे सकती हैं
किन्तु निसंदेह ये आशा नहीं होती
कि वो किसी के घर में
कोई कोना पा भी सकती हैं
बिता देती हैं इक जीवन
वासना को झेलते हुए
खुद को कोसते हुए
फिर इसी संसार में
जिन्हे हम अलग नाम से नावाज देते हैं
कि आखिर हैं तो वो वैश्याएं !!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

(((हमारे समाज कि घृणित मानसिकताओं ने शय दिया है वैश्यावृति के बढ़ोतरी को ये जानते हुए कि शायद ही कभी इसपे लगाम लगे मैंने कोशिश कि है इस खरीद-बेच में सामान कि तरह बिकने वाली औरत के दर्द को इक औरत कि तरह महसूस करके व्यक्त करने कि))))
!! "मेरी एक कोशिश वैश्याओ के लिए लिखने की..जो कभी मज़बूरन तो कभी जबरन पहुँच जाती है नरक में" !! 

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