Sunday, February 9, 2014

"भूख ही भूख"

कितनी भूख में लिबड़ा हुआ है
समाज का जन-जन
इसी भूख से घृणित रूप उभर के
समाने आता है समाज का
कितनी भूख है व्याप्त ?
हर व्यक्ति के अंदर
बस भूख ही भूख
कहीं गरीब रोटी के लिए भूखा
जिनका पेट भरा है
वो शरीर के लिए भूखा
जिद्द और गुस्सा
किसी के खून के लिए भूखा
जो कम कमा रहा है
अपनी जरुरत से ज्यादा जरुरतो को
पूरा करने के लिए भूखा
भाई-भाई का रिश्ता
कुछ टुकड़े ज़मीन के जिए भूखा
माँ-पिता के प्रति स्नेह
पैतृक सम्पति के लिए भूखा
सब भूख के हत्थे चढ़ चुके हैं
टंग गए हैं इसी भूख के लिए
कितने अधिक प्रतिशत समाज के अंग
भ्रष्टता और अपराध
के सलीब पे
इक जरिया बन गया है
देह व्यापार भी
पैसे कि भूख को तृप्त करने का
क्यूंकि अब इंसान कि कामुकता
उसके सर पे चढ़ गयी है
और वो गुलाम बन गया है
ऐसी भावना का,,
जहाँ औरत का मान सर्वोपरि होता था
आज भी हम उसी देश के नागरिक हैं
परन्तु मान का अर्थ सिकुड़ के
रह गयी है
मात्र कुछ प्रतिशत में
कुछ भी तो नहीं रहा
आज भूख से ऊपर
इक गहरा सत्य यही है!

परन्तु
क्या भूख को
अपराध मुक्त किया जा सकता है?
क्या हैं ये मुमकिन?
मतलबी सामाजिक लोगो के बीच
जिन्होंने कानो में रुई,
आँखों पे पट्टी
और
मानवता को किसी
तालाबंद बक्से में
कैद करके रख दिया है
अक्सर ही मैं निरुत्तर हो जाती हूँ
इस प्रश्न को करने के बाद !!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

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