Wednesday, January 1, 2014

काश! होती स्वप्न कि सीमा!!!!!!

क्यूँ नहीं होती
स्वप्न कि कोई सीमा?
कल्पनाओ का विराम बिंदु?
क्यूँ होता है ?
उम्मीदो के सुनहरे पंखो का
फैलाव इतना व्यापक ?
जो कुछ पल घेर कर खड़ा हो जाता है
अनायास ही वास्तविकता कि किरच को...
नज़दीकियों के सुवास से
तुम्हारे वादो को सहेजते हुए विश्वास के
सुरक्षित तिजोरी में  
उम्र के ऐसे ही मोड़ पर
करवट लेना शुरू किया था 
इच्छाओ ने मुझमे
लाल-हरी चूड़ियो से भरी
गेहुंए प्रतिबिम्ब कि कलाइयां
महरूनी जोड़ा पहने हुए...
सिन्दूर के रंग में रंगी हुई
देखी थी मैंने स्वप्न कि संपूर्ण गली..
अछूती हो गयी थी यथार्थ से..
कृत्रिम रेशमी सोच के आवरण में लिपट कर..
ये समझ ही नहीं पायी इकपल भी कि
स्वप्न उड़ा ले जाता है भावनाओ को
बिना किसी रोक-टोक ऐसी ही दुनिया में
जहाँ इसके टूटने कि
खनक का भान तक नही रह जाता
ऐसे में काश!
होता स्वप्न को काबू में
रखने वाला कोई पिंजरा
काश!
इसके टूटने पर खेद न होता...
होती इसकी भी कोई निर्धारित सीमा!!    

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

1 comment:

  1. सिन्दूर के रंग में रंगी हुई
    देखी थी मैंने स्वप्न कि संपूर्ण गली..
    अछूती हो गयी थी यथार्थ से..

    बहुत ही मर्म-स्पर्शी... आपके लेखन और आपके बारे में जानने की दिलचस्पी है..

    ReplyDelete

मेरे ब्लॉग पर आपके आगमन का स्वागत ... आपकी टिप्पणी मेरे लिए मार्गदर्शक व उत्साहवर्धक है आपसे अनुरोध है रचना पढ़ने के उपरान्त आप अपनी टिप्पणी दे किन्तु पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ..आभार !!